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मनुष्य व्यवहार
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मनोयोग
घ.१/१,१,६५/३०८/३ चतुर्णा मनसा मामान्य मन', तजनितवीर्येण
परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोग । मनकी उत्पत्तिके लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते है। (ध १/१,१,४७/२७६/२)। -सत्य आदि चार प्रकारके मनमें जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य मन कहते हैं। उस मनसे उत्पन्न हुए परिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे मनोयोग कहते हैं। (विशेष देखो
आगे शीर्षक नं.)। ध.७/२,१,३३/७६/६ मणवग्गणादो णिप्पण्णदव्यमणमवलं बिय जो जीवस्स संकोचविकोचो सो मणजोगो। -मनोवर्गणासे निष्पन्न हुए द्रव्यमनके अवलम्बनसे जो जीवका सकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है। ध. १०/४,२,४,१७४/१३७/१० बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्ण जीव
पदेसपरिफंदो मणोजोगो णाम। -बाह्यपदार्थ के चिन्तनमें प्रवृत्त हुए मनसे उत्पन्न जीव प्रदेशोंके परिस्पन्दको मनोयोग कहते है।
२. मनोयोगके भेद ष खं. १/१.१/सूत्र ४६/२८० मणजोगो चउव्यिहो सच्चमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असच मोसमणजोगो चेदि १४१ -मनोयोग चार प्रकारका है-सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषा ( अनुभय ) मनोयोग ।४। (रा. वा./१/७/१४/३४/२१); (ध.८/३,६/२१/६); (गो. जी /मू./२१७/४७५); (द, सं./टी/१३/३७/७)।
प्रवेणी, कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सू करिका, अम्बर्णा । (२६/८३- ८७)। भीमरथी, दारुवेणी, नीरा, मूला, बाणा, केतवा, करीरी, प्रहरा, मुररा, पारा, मदना, गोदावरी, तापी, लीगल खातिका । (३०/५५-६३) । कुसुमवती, हरणबती, गजवती, चण्डवेगा। (५६/ ११६)।
७. भरतक्षेत्रके कुछ नगरोंका निर्देश ह. पु./१७/श्लोक दुर्गदेशमे इलावर्धन १॥ नर्मदा नदीपर माहिष्मती ।२०। वरदा नदीपर कंडिनपुर ।२३। पौलोमपुर ।२५। रेवा नदीपर इन्द्रपुर ।२७। जयन्ती व बनवास्या ।२७। कल्पपुर ।२८। शुभ्रपुर 1३२ बजपुर 1३श विन्ध्याचलपर चेदि १३६) शुक्तीमती नदीपर
शुक्तिमती ।६। भद्रपुर, हस्तनापुर, विदेह ३४ मथुरा, नागपुर ।१६४। ह. पु/१८/श्लोक-कुशद्यदेशमें शौरपुर ।। भद्रलपुर ।१११॥ ह. पु/२१/श्लोक-कलिंगदेशमें कांचनपुर ११० अचलग्राम ॥२६॥ __ शालगुहा ।२६॥ जयपुर ।३०। इलावर्धन ।३४। महापुर ।३७१ ह. पु./२/श्लोक-गजपुर ।६। ह.पु/२७/श्लोक सिंहपुर । पोदन 1 वर्धकि ।६। साकेतपुर
(अयोध्या)।६३. धरणी तिलक १७७१ चक्रपुर ।। चित्रकारपुर ६६) मनुष्य व्यवहारप्र. सा./पं. जयचन्द्र/१४ मै मनुष्य हूँ, शरीरादिकी समस्त क्रियाओंको
मै करता हूँ, स्त्री, पुत्र धनादिके ग्रहण त्यागका मै स्वामी हूँ' इत्यादि मानना सो मनुष्य व्यवहार है। मनुष्यायु- दे आयु । मनो गुप्ति-दे० गुप्ति । मनोज्ञ साधु-स. सि/६/२४/१४२/१० मनोज्ञो लोकसंमत'।
लोकसम्मत साधुको मनोज्ञ कहते हैं। रा वा /8/२४/१२-१४/६२३/२५ मनोज्ञोऽभिरूप ।१२। संमतो वा लोकस्य विद्वत्तावक्तृत्वमहाकुलत्वादिभि ।१३ . गौरवोत्पादनहेतुत्वात् । असं यतसम्यग्दृष्टिक १४। संस्कारोपेतरूपत्वात् । अभिरूपको, अथवा गौरव की उत्पत्तिके हेतुभ्रत विद्वान, वाग्मी व महाकुलीन आदिरूपसे लोकप्रसिद्धको, अथवा मुसंस्कृत सम्यग्दृष्टिको
मनोज्ञ कहते है। (चा. सा /१५१/४ ), (भा. पा/टी/७८/२२५/२)। घ १३/५,४,२६/६३/१० आइरियेहि सम्मदाण गिहत्याणं दिक्वाभिमुहाणं वा जं करिदे तं मणुण्ण वेज्जावच्च णाम ।-आचार्योंके द्वारा सम्मत और दीक्षाभिमुख गृहस्थकी वैयावृत्त्य मनोज्ञ कहलाती है। (चा सा./१५१/2 )। मनोदंड-दे० योग/१। मनोदुष्ट-कायोत्सर्गका अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१६ मनोबल-१. ऋद्धि/६, २. दे० प्राण । मनोभद्र-यक्षीका एक भेद-दे० यक्ष । मनोयोग-स सि /६/२/३१८/११ अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियाबरगक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसं निधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मन परिणामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोग । वीर्यान्तराय और नोहन्द्रियावरणके क्षयोपशम रूप आन्तरिक मनोलब्धिके होनेपर तथा बाहरी निमित्तभूत मनोवर्गणाओंका आलम्बन मिलनेपर मनरूप पर्यायके सम्मुख हुए आरमाके होनेवाला प्रदेशपरिस्पन्द मनोयोग कहलाता है। (रा. वा./६/५/
१०/५०/१५)। ध. १/१,१.१०/२८२/६ मनस समुत्पत्तये प्रयत्नो मनोयोगः ।
३. इन चारके अतिरिक सामान्य मनोयोग क्या ध. १/१,१,५०/२८२/८ मनोयोग इति पञ्चमो मनोयोग क्व लब्धश्चेन्नैप दोष', चतसृणा मनोव्यक्तीनां सामान्यस्य पञ्चमत्वोपपत्तेः । कि तत्सामान्यमिति चेन्मनसः सादृश्यम। -प्रश्न-चार मनोयोगों के अतिरिक्त (मार्गणा प्रकरण में ) 'मनोयोग' इस नामका पाँचवाँ मनोयोग कहाँसे आया । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भेदरूप चार प्रकारके मनोयोगोमे रहनेवाले सामान्य योगके पाँचवीं संख्या बन जाती है। प्रश्न-वह सामान्य क्या है। उत्तर-यहाँ पर सामान्यसे मनकी सदृशताका ग्रहण करना चाहिए।
१. मनोयोगके भेदोंके लक्षण पं.सं./प्रा/१/८-१० सम्भावो सच्चमणा जो जोगो सो दु सञ्चमणजोगो। तबिवरीओ मोसो जाणुभयं सचमोस त्ति ।८। ण य सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे असच्चमोसो दुमणजोगो।। - सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थके विषय करनेवाले मनको सत्यमन कहते है और उसके द्वारा जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते है। इससे विपरीत योगको मृषा मनोयोग कहते है। सरय ओर मृषा योगको सत्यमृषा मनोयोग कहते है।६। जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो उसे असत्यमृषामन कहते है और उसके द्वारा जो योग होता है उसे असत्यमृषामनोयोग कहते है ।(ध.१/१,१,४६/गा.१५६-१९७४२८१,
२८२); (गो जी /मू./२१८-२१९/४७७)। ध. १/१,१,४६/२८१/४ समनस्केषु मन पूर्विका वचस प्रवृत्ति' अन्यथानुपलम्भाव । तत्र सत्यवचननिबन्धनमनसा योग सत्यमनोयोग । तथा मोषवचननिबन्धनमनसा योगो मोषमनोयोगः । उभयात्मकवचननिबन्धनमनसा योग सत्यमोषमनोयोगः । त्रिविधवचनव्यतिरिक्तामन्त्रणादि वचननिबन्धनमनसा योगोऽसत्यमोषमनोयोगः । नायमों मुख्य, सकलम नसामव्यापकत्वात् । क. पुननिरबद्योऽर्थश्चेद्यथावस्तु प्रवृत्त मन मत्यमन । विपरीतमसत्यमन । द्वयात्मकमुभ गयमन । सशयानध्यवसायज्ञाननिबन्धनम
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