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मनोयोग
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मनोयोग
सत्यमोषमन इति । अथवा तद्वचनजननयोग्यतामपेक्ष्य चिरन्तनोऽप्यर्थ समीचीन एव। -१. समनस्क जीवों में बचनप्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि, मनके बिना उनमें वचन प्रवृत्ति नहीं पायी जाती । इसलिए उन चारोंमें-से सत्यवचनानिमित्तक मनके निमित्तसे होनेवाले योगको सत्यमनोयोग कहते है। असत्य वचन निमित्तक मनसे होनेवाले योगको असत्य मनोयोग कहते है। सत्य और मृषा इन दोनों रूप वचन निमित्तक मनसे होनेवाले योगको उभयमनोयोग कहते है। उक्त तीनों प्रकारके वचनोंसे भिन्न आमन्त्रण आदि अनुभयरूप वचननिमित्तक मनसे होनेवाले योगको अनुभय मनोयोग कहते हैं। फिर भी उक्त प्रकारका कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि, इसकी सम्पूर्ण मनके साथ व्याप्ति नहीं पायी जाती। अर्थात् यह कथन उपचरित है, क्योकि, वचनकी सत्यादिकतासे मनमें सत्य आदिका उपचार किया गया है। प्रश्नतो फिर यहाँपर निर्दोष अर्थ कौन-सा लेना चाहिए। उत्तर२. जहाँ जिस प्रकारकी बस्तु विद्यमान हो वहाँ उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करनेवाले मनको सत्यमन कहते है। उससे विपरीत मनको असत्यमन कहते है। सत्य और असत्य इन दोनों रूप मनको उभयमन कहते है। तथा जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञानका कारण है, उसे अनुभयमन कहते है। ३. अथवा मनमें सत्य-असत्य आदि बचनोको उत्पन्न करनेरूप योग्यता है, उसकी अपेक्षासे सत्यवचनादि निमित्तसे होनेके कारण जिसे पहले उपचार कह आये है, वह कथन मुख्य भी है। गो जो./जी. प्र./२१७-२१६/४७५/४ सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु या. प्रवृत्तयः मनोवचनयो तदा ज्ञानवाकप्रयोगजनने जीवप्रयत्नरूपप्रवृत्तीना सत्यादि तन्नाम भवति सत्यमन इत्यादि। • सम्यग्ज्ञानविषयोऽर्थः सत्य यथा जलज्ञानविषयो जल स्नानपानाद्यर्थक्रियासद्भावात। मिथ्याज्ञान विषयोऽर्थ असत्य' यथा जलज्ञानविषयो मरीचिका जले जल, स्नानपानाद्यर्थ क्रियाविरहात । सत्यासत्यज्ञानविषयोऽर्थः, उभय. सत्यासत्य इत्यर्थः यथा जलज्ञानविषय' कमण्डलुनि घट' । अत्र जलधारणार्थ क्रियाया सद्भावात् सत्यताया. घटाकारविकलवादसत्यतायाश्च प्रतीते । अयं गौणार्थ अग्निर्माणवक इत्यादिवत । अनुभयज्ञानविषयोऽर्थ अनुभय' सत्यासत्यार्थद्वयेनावक्तव्यः यथा किंचित्प्रतिभासते। सामान्येन प्रतिभासमानोऽर्थः स्वार्थ क्रियाकारिविशेषनिर्णयाभावात सत्य इति वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते, इति जात्यन्तरम् अनुभयार्थः स्फुट चतुर्थो भवति। एवं घटे घटविकल्प' सत्य , घटे पटविकल्पोऽसत्य , कुण्डिकाया जलधारणे घटविकल्प उभय , आमन्त्रणादिषु अहो देवदत्त इति विकल्प, अनुभयः । कालेनैव गृहीता सा कन्या कि मृत्युना अथवा धर्मणा इत्यनुभय' ।२१७ सत्यमन , सत्यार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थः। तेन सत्यमनसा जनितो योग.-प्रयत्नविशेष' स सत्यमनोयोग', तद्विपरीत. असत्यार्थविषयज्ञानजनितशक्तिरूपभावमनसा जनितप्रयत्नविशेष' मृषा असत्यमनोयोग. । उभय-सत्यमृषार्थज्ञानजननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्न विशेषः उभयमनोयोग।२१। असत्यमृषामन', अनुभयार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थः । तेन भावमनसा जनितो यो योग, प्रयत्नविशेष. स तु पुन' असत्यमृषामनोयोगो भवेत् अनुभयमनोयोग इत्यर्थ । इति चत्वारो मनोयोगा. कथिता.। -सत्य-असत्य उभय और अनुभय इन चार प्रकारके अर्थों को जानने या कहने में जीवके मन व वचनकी प्रयत्नरूप जो प्रवृत्ति विशेष होती है, उसीको सत्यादि मन व वचन योग कहते हैं । तहाँ-यथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ सत्य है, जैसे जलज्ञानका विषयभूत जल, क्योंकि, उसमें स्नान, पान आदि अर्थ क्रियाका सद्भाव है। अयथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ असत्य है, जैसे जलज्ञानका विषयभूत मरीचिकाका जल, क्योकि, उसमें स्नान,
पान आदि अर्थ क्रियाका अभाव है। यथार्थ और अयथार्थ दोनों ज्ञानगोचर अर्थ उभय अर्थात सत्यासत्य है, जैसे जलज्ञानके विषयभूत कमण्डलुमें घटका ग्रहण, क्योकि, जलधारण आदिरूप क्रियाके सदभावसे यह घटकी नाई' सत्य है, परन्तु घटाकारके अभावसे असत्य है। प्रतिभाशाली देखकर बालकको अग्नि कहनेकी भाँति यह कथन गौण है। यथार्थ अयथार्थ दोनो ही प्रकारके निर्णयसे रहित ज्ञानगोचर पदार्थ अनुभय है, जैसे 'यह कुछ प्रतिभासित होता है।' इस प्रकारके सामान्यरूपेण प्रतिभासित पदार्थ में स्वार्थक्रियाकारी विशेषके निर्णयका अभाव होनेसे उसे सत्य नहीं कह सकते और न ही उसे असत्य कह सकते है, इसलिए वह जात्यन्तरभूत अनुभय अर्थ है। इसी प्रकार घटमें घटका विकल्प सत्य है, घटमें पटका विकल्प असत्य है, कुण्डीमें जलधारण देखकर घटका विकल्प उभय है, और 'अहो देवदत्त ।' इस प्रकारकी आमन्त्रणी आदिभाषा (दे० भाषा) में उत्पन्न होनेवाला विकल्प अनुभय है। अथवा 'वह कन्या कालके द्वारा ग्रहण की गयी है' ऐसा विकल्प अनुभय है, क्योकि, कालका अर्थ मृत्यु व मासिकधर्म दोनो हो सकते है।२१७) सत्यमन अर्थात सत्यार्थज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भाव मन । ऐसे सत्यमनसे जनित योग या प्रयत्न विशेष सत्यमनोयोग है। उससे विपरीत असत्यार्थविषयक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भावमनसे जनित प्रयत्नविशेष असत्यमनोयोग है। उभयार्थ विषयक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भावमनसे जनित प्रयत्न विशेष उभयमनोयोग है। और अनुभयार्थ विषयक ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्तिरूप भावमनसे जनित प्रयत्नविशेष अनुभयमनोयोग है। इस प्रकार चार मनोयोग कहे गये।
५. शुभ-अशुभ मनोयोग बा अ./गा, आहारादी सण्णा असुहमणं इदि विजाणे हि ।५० किण्हादितिण्णि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिहिपरिणामो। ईसाविसादभावो असुहमण त्ति य जिणा वेति ॥५१॥ रागो दोसो मोहो हस्सादी-णोकसायपरिणामो। थूलो वा सुहुमो वा असुहमणोत्ति य जिणा वेति १५२। मोत्तूण असुहभावं पुन्बुत्तं णिरवसेसदो दव्यं । बदसमिदिसीलसंजमपरिणाम मुहमणं जाणे ॥५४॥ -- आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, कृष्ण-नील व कापोत लेश्याएँ, इन्द्रिय सुखो में लोलुपता, ईर्षा, विषाद, राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद रूप परिणाम अशुभ मन है।५०५२। इन अशुभ भावो व सम्पूर्ण परिग्रह को छोड कर बत, समिति, शोल और संयमरूप परिणाम होते है, उन्हे शुभ मन जानना
चाहिए। दे. उपयोग/II/४/१,२ (जीव दया आदि शुभोपयोग हैं और विषय
कषाय आदिमें प्रवृत्ति अशुभोपयोग है।) दे, प्रणिधान-(इन्द्रिय विषयो में परिणाम तथा क्रोधादि कषाय अशुभ प्रणिधान है और नत समिति गुप्तिरूप परिणाम शुभ प्रणिधान हैं।) रा.वा./६/३/१.२/पृष्ठ/पंक्ति वधचिन्तनेष्र्यास्यादिरशुभो मनोयोगः । (५०६/३३) । अहंदादिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादि शुभो मनोयोगः । (५०७/३)।-हिंसक विचार, ईर्षा, असूया आदि अशुभ मनयोग है
और अर्हन्त भक्ति, तपको रुचि, श्रुत बिनयादि विचार शुभ मनोयोग है। (स.सि/६/३/६१६/११) ६. मनोज्ञान व मनोयोगमें अन्तर ध./१/१,१,५०/२८३/१ पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनसः प्रवृत्ति - श्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षितः, तन्निमित्तप्रयत्नसंबन्धस्य परिस्पन्द रूपस्य विवक्षितत्वाइ ।-प्रश्न
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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