________________
यति
३७०
यथाजात
सकता है कि वे संन्यासमरण पर्यन्त एक धोती पहने ।१७१। ४. यज्ञोपवीत धारण करनेवाले पुरुषोको मास रहित भोजन करना चाहिए, अपनी विवाहिता कुल-स्त्रीका सेवन करना चाहिए, अनारम्भी हिंसाका त्याग करना चाहिए और अभक्ष्य तथा अपेय पदार्थ का
परित्याग करना चाहिए। म पु/३८/२२ गुणभूमिकृताइ भेदात् क्लुप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कार' क्रियते स्मैषा अवताश्च बहि कृताः ।२२। -प्रतिमाओके द्वारा किये हुए भेदके अनुसार जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किये है, ऐसे इन सबका भरतने सत्कार किया। शेष अवतियोको वैसे ही जाने दिया ।२२। (म.पू./४१/३४)। दे० संस्कार/२/२ में उपनीति क्रिया (गर्भसे आठवें वर्ष में बालककी उपनौति (यज्ञोपवीत धारण) क्रिया होती है।)
३. चारित्र भ्रष्ट ब्राह्मणोंका यज्ञोपवीत पाप सूत्र कहा है म.पु/२६/११८ पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रकण्ठका. । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिता. ११८। - आप लोग तो गले में सूत्र धारणकर समीचीन मार्गमें तीक्ष्ण कण्टक बनते हुए, पाप रूप सूत्रके
अनुसार चलनेवाले, केवल मलसे दूषित है, द्विज नहीं है ।१९८१ म. पु./४१/५३ पापसूत्रधरा धूर्ता. प्राणिमारणतत्परा. । वत्स्यद्य गे प्रवस्य॑न्ति सन्मार्ग परिपन्थिन.॥५३॥ = (भरत महाराजके स्वप्नका फल बताते हुए भगवान की भविष्य वाणी) पापका समर्थन करनेवाले अथवा पापके चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले, प्राणियोंको मारने में सदा तत्पर रहनेवाले ये धूर्त ब्राह्मण आगामी युगमें समीचीन मार्गके विरोधी हो जायेंगे।५३॥ * अन्य सम्बन्धित विषय १. उत्तम कुलीन गृहस्थोंको यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिए।
-दे० संस्कार/२। २. द्विजों या सब्राह्मणोंकी उत्पत्तिका इतिहास
-दे० वर्ण व्यवस्था।
है. वा जिसमे यतियोके आचारादिका वर्णन किया गया है, ऐसे मूलाचार, भगवती आराधना, अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों को भी यत्याचार कहा जाता है। यथाख्यात चारित्रस.सि./8/१८/४३६/ह मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमारक्षयाच्च आरमस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते। यथ त्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्त्वात् । -समस्त मोहनीय कमके उपशम या क्षयसे जैसा आत्माका स्वभाव है उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह अथारख्यातचारित्र कहा जाता है।...जिस प्रकार आत्माका स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते है। (रा. वा/8/१८/११/६१७/२६); (त. सा/६/४९); (चा. सा./८४/४); (गो. क./जी.प्र./५४७/७१४/८)। प.सं./प्रा./१/१३३ उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि ।
छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू १३३॥ - अशुभ रूप मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जानेपर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथारख्यातसंयम कहते है।...१३३। (ध.१/१,१, १२३/गा. १६१/१२३); (गो.जी./मू./४७५/८८३); (पं.स./प्रा./१/२४३)। घ १/१,१,१२३/३७१/७ यथारख्यातो यथाप्रतिपादित विहार' कषाया
भावरूपमनुष्ठानम् । यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहारा। यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसयताश्च यथारख्यातविहारशुद्धिसंयता'। -- परमागममें विहार अर्थात् कषायोके अभाव रूप अनुष्ठानका जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है, उन्हे यथाख्यात विहार कहते है । जो यथाख्यातविहारबाले होते हुए
शुद्धि प्राप्त सयत है, वे यथारख्यातविहार शुद्धि-सयत कहलाते है। द्र.सं/टी./३/१४८/७ यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति । == जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध स्वभावसे कषाय रहित आत्माका स्वरूप है, वैसा ही आरख्यात अर्थात कहा गया है, सो यथारख्यात
चारित्र है। जैन सिद्धान्त प्र/२२६ कषायोंके सर्वथा अभावसे प्रादुर्भुत आत्माकी शुद्धि विशेषको यथाख्यात चारित्र कहते है।
२. याख्यात चारित्रका गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व ष. खं. १/१, १/सू. १२८/३७७ जहाक्खाद-विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था स्वीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति ।१२८॥ यथा-रख्यात-विहारशुद्धि-संयत जीव उपशान्त कषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थः सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते है ।१२८(पं.सं /प्रा./२/१३३); (ध.१/१,१,१२३/गा, १६१/१२३) (गो. जी /मू/४७/८८३); (प.सं./सं./९/२४३); (द्र. सं./टी./३५/१४६/१)।
३. उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता ष. खं.७/२,१९/सू.१७४/५६७ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्ण
अणुक्कस्सिया चरित्त लगी अणतगुणा १७४ कसायाभावेण वड्डिहाणिकारणभावादो। तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुक्कस्सा च । = यथारख्यात विहार शुद्धि संयतकी अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र लब्धि अनन्तगुणी है ।१७४।"कषायका अभाव हो जानेसे उसकी वृद्धि हानिके कारणका अभाव हो गया है इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट
भी है। यथाजात-प्र. सा./ता. वृ./२०४/२७८/१५ व्यवहारेण नग्नत्वं यथा
जातरूपं निश्चयेन तु स्वास्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः। = व्यवहारसे नग्नपनेको यथाजातरूपधर कहते हैं, निश्चयसे तो जो आत्माका स्वरूप है
यात-चा. सा/४६/४ यतयः उपशमक्षपकण्यारूढा भण्यन्ते । जो
उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी में विराजमान हैं उन्हे यति कहते है। (प्र.सा/ता. वृ/२४६/३४३/१६); (का. अ./पं. जयचन्द/४८६)। प्र. सा./ता. वृ./48/१०/१४ इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रयत्नपरो यति ।
-जो इन्द्रिय जयके द्वारा अपने शुद्धात्म स्वरूपमें प्रयत्नशील होता है उसको यति कहते है। दे० साधु/१ (श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदंत,
दान्त, यति ये एकार्थवाची है।) मू. आ./भाषा/८८६ चारित्रमें जो यत्न करे वह यति कहा जाता है। यतिवरवृषभ-प्र. सा./ता. वृ.//१००/१५ निजशुखात्मनि यत्नपरास्ते यतयस्तेषां बरा गणधरदेवादयस्तेभ्योऽपि वृषभ' प्रधानो यतिवरवृषभस्तं यतिवरवृषभं । -निज शुद्धारममें जो यत्नशील है वे यति है। उनमें जो वर-श्रेष्ठ हैं वे गणधर देव आदि हैं, उनमें भी जो प्रधान है यतिवरवृषभ कहलाते हैं। यतिवृषभ-दिगम्बर आचार्यों में इनका स्थान ऊँचा है क्योकि इनके ज्ञान व रचनाओंका सम्बन्ध भगवान वीरकी मूल परम्परासे आगत सूत्रोंके साथ माना जाता है। आर्य मंश्च व नागहस्तिके शिष्य थे। कृति-कषाय प्राभृतके चूर्णसुत्र, तिलोय पण्णत्ति। समयवा. नि. ६७०-७०.व. २००२२३०१३०१४६-१७३ (विशाष . काश भाग १/परिशिष्ट यत्याचार-१. आ, पद्मनन्दि ७ (ई०१३०५) की एक रचना। २. यतियों अर्थात् साधुओंके आचार-विचारको अत्याचार कहा जाता
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org