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विनय
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४ उपचार विनयके योग्यायोग्य पात्र
चतुर गो सेनाका जेसे मेनापति प्रवर्तक माना जाता है वैसे यह भाव नमस्कार भी मरण समयमे तप, ज्ञान, चारित्रका प्रवर्तक है।
सुरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊणज्झाओ गवासणेणेव वंदति ११६५१ = सयमोपकरण, ज्ञानोपकरण तथा अन्य भी जो उपकरण उनमे, औषधादिमे, आतापन आदि योगोमे इच्छाकार करना चाहिए ११३१। आर्यिकाएं आचार्योको पाँच हाथ दूरसे, उपाध्यायको छह हाथ दूरसे और साधुओ को सात हाथ दूर से गवासनसे बेठकर बन्दना करती हैं ।१६५ मो पा/टी /१२/३१४ पर उद्धृत गा -"वरिससयदिक्वि याए अज्जाए अज्ज दिक्विओ साहू । अभिगमण-वदण-णमसणेण विणएण सो पुज्जो ।। -सौ वर्षकी दीक्षित आर्यिकाके द्वारा भी आजका नबदीक्षित साधु अभिगमन, वन्दन, नमस्कार व विनयसे पूज्य है। (प्र. सा /ता वृ/२२५ प्रक्षेपक ८/३०४/२७) । मो पा./टी /१२/३१३/१६ मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्पर वन्दनापि न युक्ता। यदि ता बन्दन्ते तदा मुनिभिन मोऽस्त्विति न वक्तव्य, कि तहि वक्तव्य । समाधिकर्मयोऽस्त्विति। -मुनिजन व आर्यिकाओके बीच परस्पर वन्दना भी युक्त नहीं है। यदि वे वन्दन करे तो मुनिको उनके लिए नमोऽस्तु' शब्द नही कहना चाहिए, किन्तु 'समाधिरस्तु' या 'कर्मक्षयोऽस्तु' कहना चाहिए ।
२. विनय व्यवहारके योग्य व अयोग्य अवस्थाएँ मू आ/५४७-५६६ यखित्तपराहुत तु पमत्त मा दाइ वं दिज्जो । आहार
च कर तो णीहार वा जदि करेदि ५१७ आसणे आसणत्थं च उबसतं च उपदि । अणुविष्णय मेधावी किदियम्म पउजदे ।।१८। आनो यणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अबराधे य गुरु वदणमेदेसु ठाणेसु । ५६३ व्याकुल चित्तबालेको, निद्रा विकथा आदि से प्रमत्त दशाको प्राप्तको तथा आहार व णीहार करतेको वन्दना नही करनी चाहिए ।५६७। एकान्त भूमिमें पद्मासनादिसे स्वस्थ चित्तरूपसे बैठे हुए मुनिको वन्दना करनी चाहिए और वह भी उनकी विज्ञप्ति लेकर ।१६। आलोचनाके समय, प्रश्न के समय, पूजा व स्वाध्यायके समय तथा क्रघादि अपराधके समय आचार्य उपाध्याय आदिकी वन्दना करनी चाहिए ५६६। ( अन. ध 19/५३-५४/७७२) भ आ /घि /११६/२७५/६ बसतेः, कायभूमित . भिक्षात , चैत्यात, गुरुसकाशात, ग्रामान्तराद्वा आगमनकालेऽभ्युत्थातव्यम्। गुरुजनश्च यदा निष्क्रामति निष्क्राम्य प्रविशति वा तदा तदा अभ्युत्थानं कार्यम् । अनया दिशा यथागममितरदप्यनुगन्तव्यम् । = वसतिका रथानसे, कायभूमिमे (.), भिक्षा ले कर लौटो समय, चैत्यालयसे आते समय, गुरुके पाससे आते समय अथवा ग्रामान्तरगे आते समय अथवा गुरुजन जब बाहर जाते है या बाहरसे आते है, तब तत्र अभ्युत्थान करना चाहिए। इसो प्रकार अन्य भी जानना चाहिए ।
३. उपचार विनयकी आवश्यकता ही क्या भ. आ/म. व वि./७५६-७५७/१२० ननु सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपांसि ससारमुच्छिन्दन्ति यद्यपि न स्यान्नमस्कार इत्यशङ्कायामाह-जो भावणमोकारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतया। ण हु ते होति समत्था ससारुच्छेदण कादु १७५६। यद्य व सम्यग्दशनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण बिरुध्यते । नमस्कारमात्रमेव कर्मणा बिनाशने उपाय इत्येवमुक्तिमार्गकयनादित्याशङ्कायामाह-चदुर गाए सेणाए णायगो जह पबत्तवो हादि । तह भावणमोकारो मरणे तवणाणचरणा ७५७) -प्रश्न-सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप ससारका नाश करते है,
सलिए नमस्कारकी क्या आवश्यक्ता है। उत्तर-भाव नमरकारके बिना सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र और तप ससारका नाश करनेमे समर्थ नही होते है। प्रश्न-पदि ऐसा है तो 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मधमार्ग ' इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा, क्या कि, आपके मतके अनुसार नमस्कार अकेला हो कर्मविनाशवा उपाय है ? उत्तर
४. उपचार विनयके योग्यायोग्य पात्र
१. यथार्थ साधु आर्यिका आदि वन्दनाके पात्र है भ आ /म /१२७/३०४ राइणिय अराइणीएम अज्जासु चेव गिहिबग्गे। विणो जहारिहो सो कायज्यो अप्पमत्तेण ११२७१ - राइणिय' उत्कृष्ट परिणामवाले मुनि, 'अराइणीय' न्यून भूमिकाबाले अर्थात आयिका व श्रावक तथा गृहस्थ आदि इन सबका उन उनकी योग्यतानुसार आदर व विनय करना चाहिए। (मू आ./३८४) द पा/मू २३ दसणणाणचरिते तबविणये णिचकाल सुपसत्था । एदे दु व दणीय। जे गुणवादी गुणधराणं। -दर्शन ज्ञान चारित्र तथा तपविनय इनमे जो स्थित है वे सराहनीय व स्वस्थ है, और गणधर आदि भी जिनका गुणानुवाद करते है, ऐसे साधु बन्दने योग्य
है ।२३। (म् आ /५६६ ), (सू पा / /१२), ( बो. पा/म् /११) पं ध/3/६७४ ७३५ इत्याद्यनेकधानेकै साधु साधुगुणे. श्रित ।
नमस्य श्रेयसेऽवश्य ६७४। नारीभ्योऽपिताढ्याभ्यो न निषिद्ध' जिनागमे । देय समानदानादि लोकानाम विरुद्धत १७३॥ = अनेक प्रकारके साधु सम्बन्धी गुणोसे युक्त पूज्य साधु ही मोक्षकी प्राप्तिके लिए तत्त्वज्ञानियो द्वारा बन्दने योग्य है । ६७४ा जिनागममें व्रतोसे परिपूर्ण खियोका भी सम्मान आदि करना निषिद्ध नही है, इसलिए उनका भो लोक व्यवहारके अनुसार सम्मान आदि करना चाहिए ।७३५॥ दे. विनय/३/१-(सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिकासे भी आजका नवदीक्षित साधु वन्द्य है।)
२. जो इन्हें वन्दन नही करता सो मिथ्यादृष्टि है द पा /मू /२४ सहजुप्पण्ण रूव द जो मण्णएण मच्छरिओ। सो सजमपडि बण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।२४। - जो सहजात्पन्न यथाजात रूपको देखकर मान्य नहीं करता तथा उसका विनय सत्कार नही करता और मत्सरभाव करता है, वे यदि सयमप्रतिपन्न भी है, तो भी मिथ्यादृष्टि है। ३. चारित्रवृद्धसे भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है भ आ/वि /११६/२७५/८ वाचनामनुयोग वा शिक्षयत अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्य तन्मूलेऽध्ययन कुर्वद्भि सर्व रेव । = जो ग्रन्थ और अर्थक । पढाता है अथवा सदादि अनुयोगोका शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपनेसे रत्नत्रयमे होन भी है, तो भी उसके आनेपर जो
जो उसके पास अध्ययन करते है वे सर्वजन खडे हो जावे । प्र सा /ता वृ/२६३/३५४/१५ यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भरन्ति तपसा वा तथापि सम्रज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छु तविन सार्थ मभ्युत्थेया । प्र सा /ता. वृ ०६५/३५८/१७ यदि बहुताना पार्वे ज्ञानादिगुणवृद्धयर्थं
स्वय चारित्रगुणाधिका अपि वन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा दोषो नास्ति । यदि पुन केवलं ख्यातिपूजालाभार्थ बर्तन्ते तदातिप्रस गादोधो भवति। - चारित्र व तपमे अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुणसे ज्येष्ठ होनेके कारण श्रुतकी विनयके अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनयके योग्य है। यदि कई चारित्र गुणमे अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुणको वृद्धिके अर्थ बहुश्रुत जनो के पास बन्दनादि क्रियामे वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परन्तु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभके अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोषका प्रसग प्राप्त होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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