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प्रत्यय नाम
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गुणिमित तित्थयर सजमेण आहारं बज्भंति से सियाओ मिच्छत्ताई हे अहि |४८६| = साता वेदनीयका अनुभाग बन्ध चतुर्थ (योग) प्रत्ययसे होता है। मिथ्यात्व गुणस्थानमे बन्धसे व्युच्छिन्न होने वाली (दे० प्रकृतिबन्ध/०/४) सोसह प्रकृतियों मिध्याव प्रत्ययक है। दूसरे गुणस्थान में बन्धसे व्युच्छिन्न होने वाली पच्चीस और चीने मधसे होने वाली एस. (दे० प्रकृति बन्ध १०/४) ये पैतीस प्रकृतियों कि है क्योंकि इनका पहले गुणस्वामियात्यकी प्रधानठारी और दूसरे से चौथे तक असयमकी प्रधानता से बन्ध होता है। तीर्थंकर और आहारकद्विपके बिना दोष सर्व प्रकृतियों (दे० प्रकृतिबन्ध ७/४) प्रिय है। क्योंकि उनका पहले गुणस्थानमे मिध्यात्वकी प्रधानता, दूसरे चौथे गुणस्थान में असंयमकी प्रधानतासे, और आगे कषायकी प्रधानता से बन्ध होता है 1४८८ | तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध सम्यक्त्व गुणके निमिचसे और आहारक डिकका यमके निमिससे होता है |४|
प्रत्यय नाम दे० नाम ।
३० वय १
प्रत्यय मल- दे० मल/१ । प्रत्यधिक बन्ध प्रत्यवेक्षणससि / ७/३४ / ३७०/६ जन्तव सन्ति न सन्ति वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षुर्व्यापार जीव है या नहीं है इस प्रकार देखना प्रत्यवेक्षण कहलाता है (रा.वा./७/२४/१/५६७/२२ ) ( चा. सा. २२/५)।
से
प्रत्याख्यान - आगामी कालमें दोष न करनेकी प्रतिक्षा करना प्रत्याख्यान है । अथवा सीमित कालके लिए आहारादिका त्याग करना प्रत्याख्यान है। त्याग प्रारम्भ करते समय प्रत्याख्यानकी प्रतिष्ठापना और अवधि पूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है। वीतराग भाव सापेक्ष किया गया प्रत्याख्यान ही वास्तविक है।
१. भेद व लक्षण
१. प्रत्याख्यान सामान्यका लक्षण
२. व्यवहार नयकी अपेक्षा
मू आ./२७ णामादीनं छष्ण अजोरगपरिवज्जणं तिकरणेण । पच्चक्वाण णेयं अणागयं चागमे काले । २७ नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र. काल और भाव इन छहोमे शुभ मन, वचन व काय से आगामी काल के लिए अयोग्यका त्याग करना प्रत्याख्यान जानना ॥२७॥
रा. वा' (६/२४/१२/५३०/१४ अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् । भविध्यत्मे दोष न होने देनेके लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है। (भ. आ./वि/११/२०६/२१) (भा पा./टी./०७/२२१/१६) ।
१/१.१ १.२३/२४/४जी महत्वमाई ति एयो - प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत एक अर्थ वाले है ।
घ. ८ / ३,४१ / ८५/१ महत्त्रयाण विणासण मलारोहणकारणाणि तहाण हातिराहा करेमि त्ति मणेासोचिय परासीदितवखयमुपहिग्गहो परखार्थ पाम महामलोके विनाश मनोपादनके कारण जिस प्रकार न होगे वैसा करता हूँ, ऐसी मनसे आलोचना करके चौरासी लाख व्रतोकी शुद्धिके प्रतिग्रहका नाम प्रत्याख्यान है । निसा ता वृ/२५ महारयावाद मुनयो क्या देन देन पुनर्योग्यास प्रदिशम्यानारुपय रावहारप्रत्याख्यानस्वरूपम्। मुनि दिन दिनमे भोजन करके फिर योग्य काल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य, और लेह्यकी रुचि यह व्यवहार प्रत्याख्यानका स्वरूप है ।
छोड़ते है
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२. निश्चय भयकी अपेक्षा
स. सा. / / ३०४ कम्म ज हम जहिय भावन्हि बमद भविस्सं तत्तो नियत्तए जो सो पच्चक्रवाण हवइ चेया । ३८४१ = भविष्यत कालका शुभ व अशुभ कर्म जिस भावमें बन्धता है, उस भावसे जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है । ३८४ | नि सा./मू./गा मोत्तूण सयलजप्पमणागय सुहमसुहवारण किच्चा | अप्पा जो भायदि पच्चवखाण हवे तस्स || यिभावं वि मुच्चइ परभाव णेव गेव्हए केई । जाणदि पस्सदि सम्बं सोह इदि चितर पाणी ७ सम्म मे सव्वभूदेसु वेरं मज्मं ण केणवि । आसाए
सरित्ताणं समाहि पडिवज्जए । १०४ | समस्त जल्पको छोडकर और अनागत शुभ व अशुभका निवारण करके जो आत्माको ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान कहते है । ६५। जो निजभावको नहीं छोड किचित् भी परभावको ग्रहण नहीं करता, सर्व को जानता देखता है, वह मै हूँ - ऐसा ज्ञानी चितवन करता है । ६७ सर्व जीवोके प्रति मुझे समता है, मुझे किसी के साथ वैर नही है; वास्तव में आशाको छोड़कर मै समाधिको प्राप्त करता हूँ | १०४ ॥
यो सा. अ /५/५१ आगम्यागोनिमित्तानां भावानां प्रतिषेधनं । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्तात्मविलोकिन । ५१३ जो महापुरुष समस्त कर्मज वासनाओसे रहित आत्माको देखने वाले है, उनके
जो पापो के आनेमे कारण भागोका स्थान है, उसे प्रत्याख्यान कहते है
३. द्वादशांगका एक अंग
द्वादशांग १४ पूमेसे एक पूर्व है। दे० /777/
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प्रत्याख्यानके भेद
प्रस्यास्यान
१. सामान्य भेद
मू आ./६३७-६३६ अपागदसदिकत कोडीसदिदं हि पे सागारमणागार परिमाणागर्द अपरिसेस | ६३७१ अद्वाणगदं णवम दसमं तु सहेबुग निवाणवियमा पिरुतिसा जगदखि ६१८| विजय साभास हमदिय अषाढणाम परिणामे एवं पच्चक्खाण चदुब्बिध होदि णादव्वं । भविष्यत् कालमें उपवास आदि करना जैसे चौदसका उपवास तेरसको वह १. अनागत प्रत्याख्यान है । २. अतिक्रान्त, ३ कोटीसहित ४ निखंडित, ५. साकार, ६ अनाकार, ७ परिमाणगत, ८ अपरिशेष, ६. अध्वगत १० सहेतुक प्रत्याख्यान है। इस प्रकार सार्थक प्रत्याख्यान के दस भेद जनमत जानने चाहिए ६३७६ १ विनयकर २ अनुभाबाकर, ३, अनुपालनकर, ४ परिणामकर शुद्ध यह प्रत्याख्यान चार प्रकार भी है । ६३|
२ नाम स्थापनादि भेद
भ आ /वि./११६/२७६/२१ तच्च (प्रत्याख्यानं) नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल भावविकल्पेन षड्विधं • यह प्रत्याख्यान नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव ऐसे विकल्पसे छ प्रकारका है।
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३. प्राख्यानके भेदोंके लक्षण सामान्य भेदोंके लक्षण
विणओ सह गाम-ईसण
सू. आ / ६४०-६४३ कवियम्मं काचारिय परिचय
मदि तं तु । ६४०१ अणुभासदि गुरु अक्खर पदवजणं कमविसुद्ध घोसविसुद्धी सुद्ध एद अणुभासासु ॥ ६४९० आपके उसमे यदुक्त कतारे पालिद ण भरगं एवं अणुपालणासुद्ध ६४२॥ रागेण व दोसेण व मण
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