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मंगल
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२. मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएं
प्राप्ति होती है ।३०। शास्त्रके आदि मध्य और अन्तमे किया गया जिनस्तोत्र रूप मगलका उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नोको उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को ।३१। (ध. १११.१,१/ गा. २१-२२/४१), (प. का /ता वृ./१/५/१० पर उद्धृत २ गाथाएँ)। आस. प./मू/२ श्रेयोमार्गस्य ससिद्धि प्रसादात्परमेष्ठिन. । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्र शास्त्रादौ मुनिषंगा.। = अर्हत्परमेष्ठी के प्रसादसे मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है, इसलिए प्रधान मुनियोने
शास्त्रके प्रारम्भमें अर्हत् परमेष्ठीके गुणोकी स्तुति की है। ध, १/१,१,१/३६/१० मगलफलं देहितो कयअब्भुदयणिस्सेयसमुहाइत्त ।
- मंगलादिकसे प्राप्त होनेवाले अभ्युदय और मोक्षसुखके आधीन मगलका फल है।
३. तीन बार मंगल करनेका निर्देश व उसका प्रयोजन ति.प./१/२८-२६ पुबितलाइरिएहिं उत्तो सत्याण मगलं जो सो।
आइम्मि मझअवसाणि य सणियमेण कायव्यो ।२८॥ पढमे मगलवयणे सित्था सत्थस्स पारगा होति । मज्झिम्मे पीविरवं विज्जा विज्जाफल चरिमे २8 - पूर्वकालीन आचाोंने जो शास्त्रोका मगल कहा है उस मंगलको नियमसे शास्त्रोके आदि, मध्य और अन्तमे करना ही चाहिए ।२८। शास्त्रके आदिमे मगलके पढने पर शिष्य लोग शास्त्रके पारगामी होते है, मध्यमे मगलके करनेपर निर्विघ्न विद्याको प्राप्ति होती है और अन्तमे मगल के करनेपर विद्याका फल प्राप्त होता है ।२६। (ध १/१,१,१/गा. १६-२०/४०); (ध. ६/४,१,१/गा.२/४)। दे० मंगल/२/२ (शास्त्रके आदिमें मंगल करनेसे समस्त विनोका नाश
तथा मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है)। द्र.सं./टी./१/६/५ पर उधृत-'नास्तिकत्वपरिहार' शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्न' शास्त्रादौ तेन सस्तुति ।। -नास्तिकताका त्याग, सभ्य पुरुषोके आचरणका पालन, पुण्यकी प्राप्ति और विघ्न विनाश इन चार ल भोके लिए शास्त्रके आरम्भ मे इष्ट देवता. को स्तुति की जाती है। ध १/१,१.१/४०/४ तिसु ठाणेसु मंगल किम बुच्चदे । कयकाउयमगल-पायच्छित्ता विणयोवगया सिस्सा अज्झेदार। सोदारो वत्तारी आरोग्गमबिग्घेण विज्ज विज्जाफलं हि पातु ति। -प्रश्न-तीन स्थानों में मंगल करनेका उपदेश क्सि लिए दिया गया है। उत्तरमंगल सम्बन्धी आवश्यक कृतिकर्म करनेवाले तथा मंगल सम्बन्धी प्रायश्चित्त करनेवाले तथा विनयको प्राप्त ऐसे शिष्य, अध्येता ( शास्त्र पढनेवाला), श्रोता और वक्ता क्रम से आरोग्यको, निर्विघ्न रूपसे विद्याको तथा विद्याके फल को प्राप्त हो, इसलिए तीनो जगह मगल करनेका उपदेश दिया गया है।
सत्यपारंभादिकिरियास णियमेण अरहंतणमोक्कारी कायव्वो त्ति सिद्ध । बवहारणयमस्सिदूण गुणहारभडारयस्स पुण एसो अहिष्पाओ, जहा-कीरउ अण्णत्थ सव्वत्थ णियमेण अरहंतणमोकारो, मगलफलस्स पारदकिरियाए अणुवलं भादो। एत्थ पुण णियमो णत्थि. परमागमुवजोगम्मिणियमेण मगलफलोवल भादो। प्रश्न-गणधर भट्टारकने गाथासूत्रोके आदिमे तथा यतिवृषभ आचार्य ने भी चूर्णसूत्रोके आदिमें मगल क्यों नहीं किया। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रारम्भ किये हुए कार्य में विघ्नकारक कर्मोक विनाशार्थ मगल किया जाता है और वे परमागमके उपयोगसे ही नष्ट हो जाते है। यह बात असिद्ध भी नही है क्योकि यदि शुभ और शुद्ध परिणामोसे कर्मोका क्षय न माना जाये तो फिर कर्मोका क्षय हो ही नहीं सकता। प्रश्न-इस प्रकार यद्यपि कोका क्षय तो हो जाता है पर फिर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य में विघ्नोकी और विद्याके फल की प्राप्ति न होनेकी सम्भावना तो बनी ही रहती है। उत्तर-नहीं, क्योकि, ऐसा मानने में विरोध आता है (कर्मोका अभाव हो जानेपर विघ्नोकी उत्पत्ति सम्भव नहीं; क्योकि, कारण के बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होतो)। प्रश्न-शब्दानुसारी शिध्यमें देवताविषयक भक्ति उत्पन्न करानेके लिए शास्त्रके आदिमें मगल अवश्य करना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि, मगल के बिना भी केवल गुरुवचनसे ही उनमे वह भक्ति उत्पन्न हो जाती है। प्रश्न-पुण्यकर्म बॉधनेके इच्छुक देशवतियोंको मगल करना युक्त है, किन्तु कर्मों के क्षयके इच्छुक मुनियोको मगल करना युक्त नहीं, यदि ऐसा कहो तो। उत्तर-नहीं, क्योकि, पुण्यबन्धके कारणके प्रति उन दोनों में काई विशेषता नहीं है। २, इसलिए सोना, खाना, जाना, आना और शास्त्रका प्रारम्भ करना आदि क्रियाओंमें अरहन्त नमस्कार अवश्य करना चाहिए। किन्तु व्यवहारनयकी दृष्टिसे गुणधर भट्टारकका यह अभिप्राय है, कि परमागमके अतिरिक्त अन्य सब क्रियाओमें अरहन्त नमस्कार नियमसे करना चाहिए, क्योकि, अरहन्त नमस्कार किये बिना प्रारम्भ की हुई क्रियामैं मगलका फल नहीं पाया जाता। किन्तु शास्त्रके प्रार भमें मगल करनेका नियम नही है, क्योकि, परमागमके उपयोगमें ही मगलका फल नियमसे प्राप्त हो जाता है।
४. लौकिक कार्यों में मंगल करनेका नियम है. पर
शास्त्र में वह माज्य है क. पा. १/१-१/६२-४/५-६ २ संपहि (पदि ) गुणहरभडार एण गाहा
सुत्ताणमादीए जइवसहत्येरेण वि चुण्णिसुत्तस्स आदीए मगल किण्ण कर्य । ण एस दोसो; मगल हि कीरदे पारद्वज्जविग्धपरकम्मविणासणट्ट । त च परमागमुक्जोगादो चेव णस्सदि। ण चेदमसिद्धं, सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मरवयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।..ण च कम्मवर संते पारद्वकज्जविग्घस्स विज्जाफलाणुव(व)त्तीए वा संभवो, विरोहादो। ण च सदाणुसारिसिस्साणं देवदाविसयभक्तिसमुप्पायण तं वीरदे; तेण विणा वि गुरुवयणादो चेव तेसि तदुप्पदिद सणादो ।३ पुण्णकम्मबंधत्थीण देसव्ययाण मगलकरणं जुत्त ण मुणोण क्म्मक्खयकंवखुवाणमिदि ण वात्तु जुत्तं: पुण्णबंधहे उत्त पडिविसेसाभावादो । ४.तेण सोवण-भोयण-पयाण-पच्चावण
५. स्वयं मंगल स्वरूप शास्त्रमें भी मंगल करनेकी
क्या आवश्यकता ध.११.१,१/४१/१० सुत्तं कि मगलमुद अमंगलमिदि । जदि ण मंगलं, ण तं मुत्तं पावकारणस्स सुत्तत्तविरोहादो। अह मंगलं, किं तत्थ मंगलेण एगदो चेय कज्जणिप्पत्तीदो इदि । ण ताव मुन्तं ण मगलमिदि । तारिस्सपइज्जाभावादो परिसेसादो मंगलं स । मुत्तस्सादीए मगल पढिउजदि, ण पुवुत्तदोसो वि दोण्हं पि पुध पुध विणासिज्जमाणपावदसणादो। पढणविग्यविद्दावणं मंगलं । सुत्ते पुण समयं पडि असंखेज्जगुणसेढीए पावं गालिय पच्छा सव्वकम्मरखयकारणमिदि। देवतानमस्कारोऽपि चरमावस्थायां कृत्स्नकर्मक्षयकारीति द्वयोरप्येक कार्यकतत्वमिति चेन्न, सुत्रविषयपरिज्ञानमन्तरेण तस्य तथाविधसामथ्य भावात् । शुक्लध्यानान्मोक्षः, न च देवतानमस्कार' शुक्लध्यानमिति ।-प्रश्न-सूत्र ग्रन्थ स्वयं मंगल रूप है, या अमंगलरूप । यदि सूत्र स्वय मंगलरूप नहीं है तो वह सूत्र भी नहीं कहा जा सकता, क्योकि, मंगलके अभावमे पापका कारण होनेसे उसका मूत्रपनेसे विरोध पड़ जाता है। और यदि सूत्र स्वयं मंगल स्वरूप है, तो फिर उसमें अलगसे मगल करनेकी क्या आवश्यकता है। क्योकि, मगल रूप एक सूत्र ग्रन्थसे ही कार्यकी निष्पत्ति हो जाती है। और यदि कहा जाय कि यह सूत्र नहीं है, अतएव मंगल भी नहीं है, तो ऐसा तो कहीं कहा नहीं गया कि यह सूत्र नहीं है। अतएव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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