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मुनिभद्र
मुनिभद्र इनका उल्लेख ई. १३०० के एक शिलालेख में आता है। इनके एक शिष्यने जिनका कि नाम ज्ञात नहीं है 'परमात्मप्रकाश' ग्रन्थपर एक कन्नड टीका लिखी है। समय (ई. १३५०-१३६० ); ( १. १. १. १२४ कैलाशचन्द्र शास्त्री)। मुनिसुव्रतनाथ - १.न. पु/ ६०/ श्लोक नं. पूर्व भवनं २ में चम्पापुर नगरके राजा हरिवर्मा थे |२॥ पूर्वभव में प्राणतेन्द्र थे । १५॥ (युगपत् सर्वभके लिए ये श्लोक ६०) वर्तमान भनमें २०३ सीकर हुए विशेष वे तीर्थंकर/५) २. भविष्यकालीन ११ तीर्थंकर । अपर नाम सुत्रत या जयकीर्ति-दे. तीर्थंकर / ५) । मुनिसुव्रत पुराण कृष्णदास (ई. १६२४) २३ सन्धि (ती /४/६५) ।
तथा ३०२५ श्लोकप्रमाण संस्कृत काव्य । मुन्नालाल - आप जयपुर निवासी थे। पं. जयचन्द्र छाबडाके शिष्य तथा पं. सदासुखदासजी के गुरु थे। तीनों पण्डित समकालीन हैं। समय - वि. १८३०-१८१० ( ई०१७७३ १८३३) ।
मोक्षकी इच्छा
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मुमुक्षु स्व. स्तो./टी./३/० मोम: करनेवाला मुमुक्षु है।
अन. घ./१/११/३४ स्वार्थे कमतयो भान्तु मा भान्तु घटदीपवत् । परार्थे स्वार्थमय महर्दनम् ॥११- तीन प्रकारके होते हैं-- एक तो परोपकारको प्रधान 'रखकर स्वोपकार करनेवाले, दूसरे स्वोपकारको प्रधान रखकर स्वोपकार करनेवाले और तीसरे केवल स्वोपकार करनेवाले - विशेष दे० उपकार । मुरजमध्यव्रत इसकी दो प्रकार विधि है - बृहत् व लघु । १. बृहत विधि - यन्त्र में दिखाये अनुसार क्रमशः ५,४,३,२,२,३,४,५ इस प्रकार २८ उपवास करे । बोचके सर्व खाली स्थानों में एक एक करके पारणाएँ करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल 00000 जाय करे । (ह. पु. / ३४ / ६६ ) । २ लघुविधि यन्त्र में दिखाये अनुसार क्रमश २,३.४,५.५.४.३ इस प्रकार २६ उपवास करे । बीच के सर्व खाली स्थानों में एक एक करके ७ पारणा करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( व्रतविधान संग्रह / पृ० ८०) ।
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मुररा-भरत आर्य एक नदी मनुष्य ४ ।
मरुड वंश - मरुदय वंशका ही प्रसिद्ध नाम मौर्यवंश है, क्योकि मालवा देशके राजवंशके अनुसार दिगम्बर आम्नायने जहाँ मरुड वंशका नाम दिया है वहाँ श्वेताम्बर आम्नायने मौर्यवंशका नाम दिया। इसी वंशका दूसरा नाम परुढवंश भी है । - दे० इतिहास / ३/४ ।
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मुष्टिविधान व्रत प्रभावमा चैत्र मास में अर्था तीनों दशलक्षण पर्वोंमें कृ. १ से शु. १५ तक पूरे पूरे महीने प्रतिदिन १ मुष्टि प्रमाण शुभ द्रव्य भगवान्के चरणोंमें चढ़ाकर अभिषेक व चतुर्विंशति जिन पूजन करें"। "ओं ह्रीं वृषभादिवीरान्तेभ्यो नम इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे ।
मुहांवापुर वर्तमान सम्मई म.पू. ४६/५ पन्नालाल )।
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मुहूर्त
ध. ४ / १.५.१ / गा. १०-११ / ३१८ उच्छवासानां सहस्राणि त्रीणि सप्तशतानि चसिति पुनस्तेषां ते १० निमेषा सहसाण पञ्चभूय' शतं तथा । दश चैव निमेषा स्युर्मुहूर्त्ते गणिता बुधै ॥ ११ ॥ -१, ३७७३ उच्छ्वासोंका एक मुहूर्त कहा जाता है | ११ | (ध. ३/ १.२.६/गा. ३६ / ६६ ) । २. अथवा ५११० निमेषका एक मुहूर्त कहा जाता है । - दे० गणित // /१/४ ।
मूढ
२. मुहूर्तके प्रमाण सम्बन्धी दृष्टिभेद
४. २/१.२.६/७ का भाषार्थ कितने ही जाचार्य ७२० प्राणोंका मुहूर्त होता है, ऐसा कहते हैं; परन्तु स्वस्थ मनुष्यके उच्छ्वासों को देखते हुए उनका इस प्रकार कथन घटित नहीं होता है...क्योकि ७२० प्राणीको ४ से गुणा करके जो गुणनफल आवे उसमें ८६३ और मिलाने [अर्थात् (७२०x४) + ८६३ -२८८०८६३३७७३ उच्छ्वास] सूत्र में कहे गये सांका प्रमाण होता है। यदि ७२० प्रापका एक मूहूर्त होता है, इस कथनको मान लिया जाये तो केवल २१६०० प्राणोंके द्वारा ही ज्योतिषियोके द्वारा माने गये अहोरात्रका प्रमाण होता है । किन्तु यहाँ आगमानुकूल कथनके अनुसार तो १६३१६० उच्छ्वासोंके द्वारा एक अहोरात्र होता है ।
३. असे कम और एक आगलीसे अधिक काम प्रमाण - (वे. ब)।
४. मित्र एक समय कम काम प्रमाण भिन्नउ
मूक-कायोत्सर्गका एक अतिचार-- (दे. व्युत्सर्ग/१) । मूकसंज्ञा कायोत्सर्गका एक अतिचार. सर्ग /१। मूडबिद्री - दक्षिणके कर्नाटक देशमें स्थित एक नगर है । होयसल नरेश बल्लाल देव के समय (ई. ११०० ) में यहाँ जैनधर्मका प्रभाव खूब बढ़ा चढा था। ई. श. १३ में यहाँ तुलुबके आलूप नरेशोका तथा ई. श. १५ में विजयनगरके हिन्दू नरेशोका राज्य रहा। यहाँ १८ मन्दिर प्रसिद्ध हैं। जिनमें 'गुरु बसदि' नामका मन्दिर सिद्धान्त अर्थात् शास्त्रो की रक्षा के कारण सिद्धान्त मन्दिर भी कहलाता है । 'मिदिर' का अर्थ कनाडी भाषामै मॉस है बाँसोके समूहको कर यहाँके सिद्धान्तमन्दिरका पता लगाया गया था, जिससे इस ग्रामका नाम "भिदुरे' प्रसिद्ध हुआ। कनाडीमे 'का' अर्थ पूर्व दिशा है और पश्चिम दिशाका वाचक शब्द 'पुडु' है। यहाँ मूल्की नामक प्राचीन ग्राम 'पुडुबिदुरे' कहलाता है। इसके पूर्व मे होने के कारण यह ग्राम 'मूड विदुरे' या 'मूडविदिरे' कहलाया । 'वंश' और 'वेणु' शब्द बाँसके पर्यायवाची है। इसीसे इसका अपर नाम 'वेणुपुर या 'बशपुर' भी है। और अनेक साधुओका निवास होनेके कारण 'व्रतपुर' भी कहलाता है । ( ध / ३ / प्र.४ / H L Jain ) ।
मूढ
प.प्र./मू /१/१३. देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ । जो देहको हो आत्मा मानता है वह प्राणी मूढ अर्थात् बहिरात्मा है ( और भी दे, बहिरात्मा ) ।
दे 'मोह' का लक्षण - ( द्रव्य गुण पर्यायोंमें तत्त्वकी अप्रतिपत्ति होना मूढ भावका लक्षण है । उसीके कारण ही जीव परद्रव्यों व पर्यायों में आमबुद्धि करता है।"
जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश
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