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व्युत्सर्ग
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उसे क्षमा किये बिना करना प्रदुष्ट, और १८. तर्जनी अंगुलीके द्वारा अन्य साधुओको भय दिखाते हुए अथवा आचार्य आदिसे स्वयं तजित होकर वन्दनादि करना तजित दोष है ।१०। १६. वन्दनाके भीचमें बातचीत करना शब्द, २०. वन्दनाके समय दूसरोंको धक्का आदि देना या उनको हँसी आदि करना हेलित, २१, कटि ग्रीवा मस्तक आदिपर तोन बल पड जाना त्रिबलित दोष है ।१०६॥ २२. दोनों घुटनोंके बीच में सिर रखना कुंचित, २३. दिशाओं की तरफ देखना अथवा दूसरे उसकी ओर देखें तब अधिक उत्साहसे स्तुति आदि करना दृष्ट दोष है ।१०७। २४, गुरुकी दृष्टिसे ओझल होकर अथवा पीछेसे प्रतिलेखना न करके वन्दनादि करना अदृष्ट, २५. 'संघ जबरदस्ती मुझसे बन्दनादि कराता है। ऐसा विचार आना 'संघर मोचन दोष है ।१०८।२६, उपकरणादिका लोभ हो जानेपर क्रिया करना आलब्ध, २७. उपकरणादिकी आशासे करना अनालब्ध, २८. मात्राप्रमाणकी अपेक्षा हीन अधिक करना हीन, २६. वन्दनाको थोडी ही देरमें ही समाप्त करके उसकी चूलिका रूप आलोचनादिको अधिक समय तक करना उत्तर चूलिका दोष है ।१०।। १०. मन मनमें पढना ताकि दूसरा न सुने अथवा वन्दना करते करते बीच-बीच में इशारे आदि करना मूक दोष है, ३१. इतनी जोर जोरसे पाठका उच्चारण करना जिससे दूसरोंको बाधा हो सो दुर्दर दोष है ।११०। ३२. पाठको पंचम स्वरमें गा गाकर बोलना सुललित या चलित दोष है । इस प्रकार ये वन्दनाके ३२ दोष कहे (११॥
२. व्युत्सर्ग तप या प्रायश्चित्त निर्देश
१. व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्तका लक्षण स. सि./६/२०/४३६/- आत्माऽत्मीयसंकल्पत्यागो व्युत्सर्गः। स. सि./९/२२/१४०/८ कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्ग। स. सि./६/२६/४४३/१० व्युत्सर्जन व्युत्सर्गस्त्यागः । १. अहंकार और ममकाररूप संकल्पका त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। २. कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। (रा. वा./8/२२/६/६२१/२८); (त. सा./७/२४)। ३. व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका नाम त्याग है। (रा. वा./६/२६/१/६२४/२६)। घ.८/३,४१/८/२ सरीराहारेसु हु मणवयणपवुत्तीओ ओसारिय ज्झयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम । शरीर व आहार में मन एवं वचनकी प्रवृत्तियोंको हटाकर ध्येय वस्तुकी ओर एकाग्रतासे चित्तका निरोध करनेको व्युत्सर्ग कहते है। घ. १३/५,४.२६/६१/२ झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्खमासादिकालमच्छणं उबसग्गो णाम पायच्छित्तं । कायका उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त है। (चा. सा./१४२३); ( अन.ध./७/११/६६५)। अन ध./७/६४/७२१ बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतव' । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गों निरुच्यते ।६४ा बन्धके हेतुभूत विविध प्रकारके बाह्य और अभ्यन्तर दोषोका उत्तम प्रकारसे त्याग करना, यह 'व्युत्सर्ग' की निरुक्ति है।
२. व्युत्सर्ग तपके भेद-प्रभेद मू.आ४०६ दुविहो य विउसग्गो अब्भतर बाहिरो मुणेयम्वो।४०६। व्युत्सर्ग दो प्रकारका है-अभ्मन्तर व बाह्य । (त. सू १/२६); (त. सा./७/२६)। चा,सा/पृष्ठ/पंक्ति अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग सद्विविधा-यावज्जीवं, नियत-
कालश्चेति । ( १५४/३)। तत्र यावज्जीव त्रिविध-भक्तप्रत्याख्यानेङ्गिनीमरणप्रायोपगमनभेदात् । (१५४/३)। नियतकालो द्विविध'
२. व्युत्सर्ग तप या प्रायश्चित्त निर्देश नित्यनैमित्तिक्भेदेन । ( १५५/१) अभ्यन्तर उपधिका व्युत्सर्ग दो प्रकारका है-यावज्जीव व नियतकाल। तहॉ यावज्जीव व्युत्सर्ग तीन प्रकार है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी, और प्रायोपगमन । नियतकाल दो प्रकारका है-नित्य व नैमित्तिक । ( अन ध /७/६६६८/७२१); ( भा. पा/टी./७८/२२५/१६) ।
३. बाह्य व अभ्यंतर व्युत्सर्गके लक्षण मू. आ./४०६ अभ्यंतरः क्रोधादिः बाह्य क्षेत्रादिक द्रव्यं 1४०६॥
- अभ्यन्तर उपधिरूप क्रोधादिका त्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है और बाह्य उपधि रूप क्षेत्र वास्तु आदिका त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है ।४०६। विशेष (दे० ग्रन्थ/२) । स. सि./६/२६/४४३/११ अनुपात्तं वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधिः । क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरोपधि। कायत्यागश्च नियतकालो यावज्जीवं वाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते। -आत्मासे एकत्वको नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन और धान्य आदि बाह्य उपधि हैं ओर क्रोधादि आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि हैं। (इनका त्याग बाह्य व अभ्यन्तर उपधि व्युत्सर्ग है)। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक कायका त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधित्याग कहा जाता है। (रा. वा /8/२६/३-४/६२४/३०); ( त सा /७/२६); (चा. सा/१५४/१); (अन ध०/७/६३,६६/७२०)। चा, सा./१५५/२ नित्य आवश्यकादयः। नैमित्तिक' पार्वणी क्रिया निषद्याक्रियाद्याश्च ।-काय सम्बन्धी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग नियत व अनियतकालकी अपेक्षा दो प्रकारका है। तहाँ अनियतकाल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्याख्यान, इगिनी व प्रायोपगमन विधिसे शरीरको त्यागनेकी अपेक्षा तीन प्रकारका है । ( इन तीनोके लक्षण दे. सल्लेखना/२)। नियतकाल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिकके भेदसे दो प्रकारका है(वे. व्युत्सर्ग/२/२)] इन दोनों में से आवश्यक आदि क्रियाओंका करना नित्य है तथा पर्व के दिनोमें होनेवाली क्रियाएँ करना व निषद्या
आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। (अन. ध /9/६७-६८/७२२ ) । भा, पा/टी/२२५/१६ नियतकालो यावज्जीवं वा कायस्य त्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्गः । बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्ग' | कायका नियतकालके लिए अथवा यावज्जीवन त्याग करना अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग अनेक प्रकारका है। * बाह्य व अभ्यन्तर उपधि-दे. ग्रन्थ/२। ४. व्युत्सर्गतपका प्रयोजन स सि /8/२६/४४३/१२ निस्संगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थ, रा, वा./8/२६/१०/६२५/१४ निसङ्गत्व मिर्भयत्वं जीविताशाव्युदासः, दोषोच्छेदो, मोक्षमार्गप्रभावनापरत्वमित्येवमाद्यों व्युत्सगोंऽभि धीयते द्विविध । =नि संगत्व. निर्भयत्व, जीविताशाका त्याग, दोषोच्छेद और मोक्षमार्गप्रभावना, तत्परत्व आदिके लिए दोनों प्रकारका व्युत्सर्ग करना आवश्यक है। (चा. सा./१६६/५), (भा पा /टी /७/२२५/१७)
५. व्युत्सर्गतपके अतिचार भ. आ /वि/४८७/७०७/२३ व्युत्सर्गातिचारः । कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्ति.। = शरीरपरसे ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है। परन्तु ममत्व दूर नही करना यह व्युत्सर्ग तपका अतिचार है।
६. व्युत्सर्ग तप व प्रायश्चित्तमें अन्तर रा, वा/8/२६/८/६२५/७ अथ मतमेतत-प्रायश्चित्ताभ्यन्तरो व्युत्सर्गस्ततः पुनस्तस्य वचनमनर्थकमिति; तन्नः किं कारणम् । तस्य प्रतिद्वन्द्विभावात्, तस्य हि व्युत्सर्गस्यातिचारः प्रतिद्वन्द्वी विद्यते, अयं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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