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परमाण्यात्मतरंगिनी
प्र.सा./त.प्र / परिनयनं ३४ ईश्वरनयेन धात्रीहट्टावलेह्य मानपान्थबालकवत्पारतन्त्र्यभोक्तृ । ३४ | आत्मद्रव्य ईश्वर नयसे परतन्त्रता भोगने वाला है । धायकी दुकानपर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के भालकी भाँति (दे० कर्म (१/१) ।
५. वैदिक साहित्य में ईश्वरवाद
१. ईश्वरके विविध रूप
१. वैदिक युगके लोग सर्व प्रथम सूर्य, चन्द्र आदि प्राकृतिक पदार्थों को ही अपना आराध्यदेव स्वीकार करते थे । २. आगे जाकर उनका स्थान इन्द्र, वरुण आदि देवताओको मिला, जिन्हे कि वे एक साथ या एक-एक करके जगत्के सृष्टिकर्ता मानने लगे । ३. इससे भी आगे जाकर वैदिक ऋषि ईश्वरको निश्चित रूप देनेके लिए सअसद जीवन-मृत्यु आदि परस्पर विरोधी शब्दो का वर्णन करने लगे । ४ इससे भी आगे ब्राह्मणग्रन्थोकी रचना के युग में ईश्वरके सम्बन्ध में अनेको मनोरंजक कल्पनाऍ जागृत हुईं। यथा-प्रजातिने एकसे अनेक होनेकी इच्छा की। उसके लिए उसने तप किया। जिससे क्रमश धूप, अग्नि, प्रकाश आदिकी उत्पत्ति हुई । उसीके अबिन्दु समुद्रमे गिर जानेसे पृथिवीकी उत्पत्ति हुई। अथवा उसके तपसे ब्राह्मणव जलकी उत्पत्ति हुई, जिससे सृष्टि बनो । ५. उपनिषद् युगमें कभी तो असद मृत्यु क्षुधा आदि जल, पृथ्वी आदिको उत्पत्ति मानी गयी है, कहीं ब्रह्मसे, और कही अक्षरसे सृष्टिकी रचना मानी गयी है । (स्या,मं/परिपृ. ४११ ) ।
२. ईश्वरवादी मत
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भारतीय दर्शनों में चापौ जैन, मीमासक, सारूप और योगदर्शन तथा वर्तमानका पाश्चात्य जगत् इस प्रकारके सृष्टि रचयिता किसी एक ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। परन्तु न्याय और वैशेषिक दर्शनी में ईश्वरको सृष्टिका रचयिता माना गया है (स्वा.म / परि. ग. पू. ४९३) ।
३. ईश्वर कर्तृत्वमें युक्तियाँ
इसके लिए वे लोग निम्न युक्तियाँ देते है -१ नैयायिकोका कहना है कि सृष्टिका कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह कार्य है । २ कुछ ईश्वरवादी पाश्चात्य विद्वान् कहते है कि यदि ईश्वर न होता तो उसके अस्तित्वको भावना ही हमारे हदयमे जागृत न होती । ३. वैदिक जनोका कहना है कि बिना किसी सचेतन नियन्ताके सृष्टिकी इतनी अद्भुत व्यवस्था सम्भव नहीं थी। अपने ऊपर आये आक्षेपोका उत्तर भी वे निम्न प्रकार देते है -- १. कृतकृत्य होकर भी केवल करुणाबुद्धिसे उसने सृष्टिकी रचना की । २. प्राणियो के पुण्य-पापके अनुसार होनेके कारण वह रचना सर्वथा सुखमय नही हो सकती । ३ शरीर रहित होते हुए भी उसने इच्छामात्र से उसकी रचना की है । ४. प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाणमे सिद्ध न होनेपर भी वह शब्द प्रमाणसे सिद्ध है (स्वा.मं./परि.ग. ४१३४१८ ) ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. लोगों का ईश्वरवाद और जैनियोंका कर्म कर्तावाद एक ही
बात है-दे० कारक / कर्ता ।
२. मतिप्रकरण में ईश्वर में कर्तापनेका आरोप निषिद्ध नहीं
- दे० भक्ति ।
२. जीवका कचिर्ता अपना-दे०चैतना/३ परमाध्यात्मतरंगिनी -
"आ० अमृतचन्द्र (३० १०५-१५५) कृत संस्कृत छन्दबद्ध कलशोंकी आ० शुभचन्द्र भट्टारक (वि १५७३
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परमेष्ठी
३० १२९६) कृत संस्कृत टीका यह अधिकारी में विभक्त २३२ श्लोकप्रमाण है। विषय अध्यात्म है । (ती./३/३६६) ।
परमानंदात्मोपयोग अपर नाम दे० मोक्षमार्ग/२/५ । परमानन्द विलास देवीशस ( ई० १०५६-२०६०) द्वारा
रचित भाषापद संग्रह 1
परमार्थपरमार्थ
स./ सा // १५१ परमट्ठी स्वछ समओ सुद्धो जो केमली मुणी गाणी | तहि दिदा सहावे गुनियो पाति जिम्मा १५१। निश्चय जो परमार्थ है, समय है, सुख है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है, उस स्वभाव में स्थित मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है । न.च.वृ./४ उच्च तह परमट्ठ दव्यसहाय सहेब परमपरं धेयं शुद्ध परमं यट्ठा हुति अभिहाणा |४| तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध, और परम ये सब एक ही अर्थ को जनानेवाले है । ससा./ता.वृ./१५१/२९४/११९ उत्कृष्टार्थ परमार्थ धर्मार्थकाममोक्षलक्षणेषु परमार्थेषु परमष्टमोक्षलक्षणोऽर्थः परमार्थ अथवा मतिश्रुता वधिमन पर्यय केवलज्ञानभेदरहितत्वेन निश्चयेने कः परमार्थ सोऽपि परमात्मैद | उत्कृष्ट अर्थको परमार्थ कहते है। अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्षलक्षणा परमार्थ जो परम उत्कृष्ट है, ऐसा मोक्ष लक्षणवाला अर्थ परमार्थ कहलाता है। अथवा मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यय न केवलज्ञानके भेरसे रहित होनेसे निश्चयसे एक ही परमार्थ है वह भी आत्मा ही है।
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-शुद्धोपयोग अपर नाम- दे० मोक्षमार्ग / २ / ५ ६
परमार्थं तत्त्व - शुद्धोपयोग अपर नाम - दे० मोक्षमार्ग /२/५ । परमार्थ प्रत्यक्ष-०९।
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परमार्थ बाह्य - स. सा./ता.वृ./१५२- १५३/२१७ भेदज्ञानाभावाद परमार्थमाह्या | १३२ | परमसामायिकमलभमानाः परमार्थमाह्याः | १५३| = भेदज्ञानके न होनेके कारण परमार्थबाह्य कहलाते है ११५२० परम सामायिकको नहीं प्राप्त करते हुए परमार्थ बाह्य होते है ॥१५३॥ परमावगाढ सम्यग्दर्शन -३० सम्यदर्शन २ परमावधिज्ञान दे० अज्ञान/१
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परमावस्था दे० मोक्षमार्ग २/३ । परमेश्वर
कालीन सोलहवें तीर्थंकरदे० तीर्थंकर / २. आप एक कवि थे। आपने वागर्थ संग्रह पुराणग्रन्थ चम्पू रूपमें लिखा था। समय - ई० ७६३ से पूर्ववर्ती (म. पु. प्र. / ४८ प. पन्नालाल ); ३. परमात्मा के अर्थ में परमेश्वर - दे० परमात्मा । परमेश्वर तत्व/२१/७/२८५ नाभिस्कन्धाद्विनिष्कान्तं प
दरमध्यगम् । द्वादशान्ते सुविश्रान्तं तज्ज्ञेयं परमेश्वरम् ॥७॥ [ जो नाभिस्कन्ध से निकाला हुआ तथा हृदय कमल में से होकर द्वादशान्त ( तालुरंध ) में विश्रान्त हुआ ( ठहरा हुआ ) पवन है उसे परमेश्वर जानो क्योकि यह पवनका स्वामी है ॥७॥
परमेष्ठी- आप एक कवि थे। आपने वागर्थ संग्रह पुराणकी रचना की थी। आपका समय आ० जिनसेनके महापुराण (वि.८१७ ) से पहले बताया जाता है। (म. पु. / प्र./२१ / पं. पन्नालाल ) । परमेष्ठो
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स्व. तो /टी./३६ परमपदे तिष्ठति इति परमेष्ठी परमात्मा । जो परमपदता है वह परमेष्ठी परमात्मा होता है।
भा.पा./टी./१४६/२६३/८ परमे इन्द्रचन्द्र धरणेन्द्रवन्दिते पदे मिती वि
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