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३. ईश्वर निर्देश
परमात्मा वाली विभिन्न सामग्री के मिल जानेसे विभिन्न कार्योकी सिद्धि हो जायेगी। उत्तर-उपरोक्त हेतुमें कोई अन्वय व्यतिरेक हेतु सिद्ध नहीं होता। स्या, मं/६/पृ ४४-५६ यत्तावदुक्तं परै 'क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्त का., कार्यत्वाद घटवदिति' तदयुक्तम् । स चायं जगन्ति सृजन सशरीरोsशरीरो वा स्याव। प्रथमपक्षे प्रत्यक्षबाधः। तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुरभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनाव प्रमेयत्वादिवत साधारणानै कान्तिको हेतु.। द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणम् ।"इतरेतराश्रयदोषापत्तेश्च । सिद्ध हि माहात्म्यविशेषे तस्यादृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यम् । तत्सिद्धौ चमाहात्म्यविशेषसिद्धिरिति । अशरीरश्चेत् तदा दृष्टान्तदाान्तिकयो:षम्यम् । अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुत' सामर्थ्यम् आकाशादिवव ।...बहूनामेककार्य करणे वैमत्यसंभावना इति नायमेकान्त.। अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेऽपि शक्रमून', "अथै तेष्वप्येक एवेश्वरः कर्तेति बपे। 'तहि कुबिन्दकुम्भकारादितिरस्कारेण पटधटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते ।। सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नम् । तद्धि शरीरात्मना, ज्ञानात्मना वा स्यात् । प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगवत्रयस्य व्याप्तत्वाद इतरनिर्मेयपदार्थानाश्रयानवकाश'। द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यता। -स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत् साक्षाद् देहव्यापारेण निर्मिमीते, यदि वा संकल्पमात्रेण । आद्य पक्षे एकस्यैव "कालक्षेपस्य सभवाइ बहीयसाप्यनेहसा न परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु संकल्पमात्रेणैव कार्यकल्पना नियतदेशस्थायित्वेऽपि न किंचिद् दूषणमुत्पश्याम' |.. ....... स हि यदि नाम स्वाधीन सन् विश्वं विधत्ते, परमकारणिकश्च त्वया वर्ण्यते, तत्कथं सुखितदु.खिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटित घटयति भुवनम् एकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते । अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तत्तदीयशुभाशुभकर्मप्रेरित सत् तथा करोतीति दत्तस्तहि स्ववशत्वाय जलाउजलिः ।.. कर्मापेक्षश्चेदीश्वरो जगत्कारणं स्यात् तर्हि कर्मणीश्वरत्वम, ईश्वरोऽनीश्वर' स्यादिति । · स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन्, त्रिभुवनसर्गस्वभावोsतत्स्वभावौ वा । प्रथम विधायां जगन्निर्माणात कदाचिदपि नोपरमेद । तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानि | एवं च सर्गक्रियाया अपर्यवसानाद एकस्यापि कार्यस्य न सृष्टि । अतत्स्वभावपक्षे तु न जातु जगन्ति सृजेत् तत्स्वभावायोगाद् गगनवत् । अपि च तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिवत सहारोऽपि न घटते । ..एकस्वभावाव कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधात । स्वभावान्तरेण चेद् नित्यत्वहानि' । स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः ।...अथास्तु नित्यः, तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते। इच्छावशात चेत्, ननु ता अपीच्छः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः सदैव कि न प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः।" कार्यभेदानुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वाद नित्यत्वहानि' केन वार्यते ।...ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात, कारुण्याद वा। न तावत् स्वार्थात तस्य कृतकृत्यत्वात् । न च कारुण्यात....। ततः प्राक सज्जीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम्। सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याभ्यामुपगमे तदुत्तरमितरेतराश्रयम् कारुण्येन सृष्टि' सृष्टया च कारुण्यम् । इति नास्य जगत्कत त्वं कथमपि सिद्धयति।
प्रश्न-पृथिवी आदि बुद्धिमान्के बनाये हुए हैं, कार्य होनेसे घटके समान । दृश्य शरीरसे ? उत्तर-शरीर दीखता नहीं है। दूसरे, घास वृक्षादिको ईश्वरने अपने शरीरसे नहीं रचा है। अतः कार्य हेतुपना साधारण कान्तिक दोषका धारक है। प्रश्न-अदृश्य शरीरसे बनाये हैं। उत्तर-अदृश्य शरीरकी सिद्धिसे ईश्वरका माहात्म्य, तथा माहात्म्यसे शरीरकी सिद्धि होनेके कारण तथा दोनों ही होनेसे अन्योन्याश्रय दोष आता है। प्रश्न-ईश्वर शरीर रहित होकर मनाता है। उत्तर-दृष्टान्त ही बाधित हो जाता है। दूसरे, शरीर
रहित आकाश आदिकमे कार्य करनेकी सामर्थ्य नहीं है। अतः अशरीरी ईश्वर भी कार्य कैसे कर सकता है। प्रश्न-वह अनेक है। अनेक हो तो मतभेदके कारण कोई कार्य ही न बने। उत्तर-मतभेद होनेका नियम नहीं। बहुतसी चीटियाँ मिलकर बिल बनाती है। प्रश्न-बिल आदिका कर्ता ईश्वर है। उत्तर-तो घट-पट आदिका कर्ता भी इसे ही मानकर कुम्भकार आदिका तिरस्कार क्यो नही कर देते । प्रश्न-ईश्वर सर्वगत है इसलिए कर्ता है। उत्तर-शरीरसे सर्वगत है या ज्ञानसे । यदि शरीरसे तो जगदमे और पदार्थको ठहरनेका अवकाश न होगा। शरीर व्यापारसे बनाता है या सकल्प मात्रसे ? प्रश्न-शरीर व्यापारसे । उत्तर-तब तो एक कार्यमे अधिक काल लगनेसे सबका कर्ता नहीं हो सकता । प्रश्न-संकल्प मात्रसे । उत्तर-तब सर्वगतपनेकी आवश्यकता नही। परम क्रुणाभावके धारक ईश्वरने सुख-दुःखसे भरे इस जगतको क्यो बनाया । केवल सुख रूप ही क्यो नहीं बना दिया। प्रश्न-ईश्वर जीवोके अन्य जन्मोमें उपार्जित कर्मोसे प्रेरित होकर ऐसा करता है। उत्तर-इस प्रकार तो ईश्वर स्वाधीन न रहा। और कर्म की मुख्यता होनेसे हमारे मतकी सिद्धि हुई। दूसरे इस प्रकार कमोंका कर्ता ईश्वर न हुआ। जगत्के बनानेसे उसे कभी भी विश्राम न होगा। यदि विश्राम लेगा तो उसके स्वभावके घातका प्रसंग आयेगा। इस प्रकार कोई भी कार्य पूर्ण हुआ न कहलायेगा। प्रश्न-कर्तापना उसका स्वभाव नहीं है 1 उत्तर-तौ फिर वह जगत्का निर्माण ही कैसे करे, दूसरे एक ही प्रकारके स्वभावसे निर्माण तथा संहार दो ( विरोधी) कार्य नहीं किये जा सकते । प्रश्न-संहार करनेका स्वभाव अन्य है। उत्तर-नित्यताका नाश हो जायेगा। स्वभाव भेद ही अनित्यताका लक्षण है। कभी किसी स्वभाववाला और कभी किसी स्वभाववाला होगा। निरन्तर वह क्यों नही बनाता। शंका-जब इच्छा नही रहती तब बनाना छोड देता है। उत्तर-इच्छासे ही कर्तापनेकी सिद्धि है, तो सदा इच्छा' क्यों नहीं करता। दूसरे कार्योंकी नानारूपता उसकी इच्छाओको भी नानारूपताको सिद्ध करती है। अत. ईश्वर अनित्य है । ईश्वरने जगत्को किसी प्रयोजनसे बनाया या करुणा से। शका-प्रयोजनसे । उत्तर-कृतकृत्यता खण्डित हो जाती है। प्रश्नकरुणाभावसे । उत्तर-दुःख अनादि नही है, तो ईश्वरने इन्हे क्यों बनाया। प्रश्न-दुःख देखकर पीछेसे करुणा उत्पन्न हुई। उत्तरइससे तो इतरेतराश्रय दोष आया। करुणासे जगत रचना और जगत से करुणा उत्पन्न होना। दे० सव/१ (सत स्वभाव ही जगदका कर्ता है)।
४. ईश्वरवादका लक्षण १. मिथ्या एकान्तको अपेक्षा गो.क./मू./८८० अण्णाणी हु अणासो अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च ।
सग्गं णिरयं गमण सब ईसरकयं होदि ।८००/-आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है। उस आत्माके सुख-दुःख, स्वर्ग-नरकादिक, गमनागमन सर्व ईश्वरकृत है, ऐसा मानना सो ईश्वरवादका अर्थ है ।८००। (स. सि./८/१/५ की टिप्पणी)।
२. सम्यगेकान्तकी अपेक्षा स.सा./म्./३२२ लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पओ कुणई।
-लोकके मतमें विष्णू करता है, वैसे ही श्रमणोंके मतमें आत्मा करता है। प.प्र./मू०/१/६६ अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ । भुवणत्तयह
वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ६६ हे जीव । यह आत्मा पंगुके समान है, आप कहीं न जाता और न आता है, तीनो लोकोमें जीवको कर्म ही ले जाता है, कर्म ही लाता है ।६६।
जैनेन्द्र सिवान्त कोश
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