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परमात्मा
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३. ईश्वर निर्देश
वैराग्यरूपी महलके शिरवरका जो शिखामणि है, पर-द्रव्यसे जो पराड मुरव है, पाँच इन्द्रियोके विस्तार रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है, जो परम जिन योगीश्वर है, स्व द्रव्यमे जिसकी तीक्ष्ण बुद्धि हैऐसे आत्माको 'आत्मा' वास्तव में उपादेय है। द्र सं/टी/१४/४७/४ विष्णु • परमब्रह्म .ईश्वर सुगत'- शिव . जिन'। इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्रसंख्यनाम-वाच्य परमात्मा ज्ञातव्य । - विष्णु, परमब्रह्म, ईश्वर, सुगत, शिव और 'जिन इत्यादि परमागममे कहे हुए एक हजार आठ नामोसे कहे जाने योग्य जो है, उसको परमात्मा जानना चाहिए।
५. परमात्मा कारण कार्य विमागकी सिद्धि स श (मू ६७-६८ भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः । वति
पि यथोपास्य भिन्न भवति ताशी १७ उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरु' 1801 - यह आत्मा अपमेसे भिन्न अहन्त सिद्ध रूप परमात्माकी उपासना-आराधना करके उन्हींके समान परमात्मा हो जाता है जैसे-दीपकसे भिन्न अस्तित्व रखनेवाली बत्ती भी दीपककी आराधना करके उसका सामीप्य प्राप्त करके दीपक स्वरूप हो जाती है 1१७ अथवा यह आत्मा अपने चित्स्वरूपको ही चिदानन्दमय रूपसे आराधन करके परमात्मा हो जाता है जैसे बाँसका वृक्ष अपनेको
अपनेसे ही रगडकर अग्नि रूप हो जाता है ।। न. च वृ./३६०,३६१ कारणकज्जसहावं समय णाऊण होइ ज्झायव्यं ।
कज्ज सुद्धसरूव कारणभूदं तु साहणं तस्स ३६०1 सुद्धो कम्मखयादी कारणसमओ हु जीवसम्भावो । खय पुणु सहावझाणे तह्मा तं कारणं झेयं ।३६१॥ = कारण और कार्य स्वभाव रूप समय अर्थात् आत्माको जानकर उसका ध्यान करना चाहिए। उनमें से शुद्ध स्वरूप अर्थात सिद्ध भगवान तो कार्य है और कारणभूत जो स्वभाव वह उसका साधन है । ३६०। वह कारण समय रूप जीवस्वभाव ही कर्मोंका क्षय हो जानेपर शुद्ध अर्थात् कार्य समय रूप हो जाता है। और वह क्षय स्वभावके ध्यानसे होता है उस लिए वह उसका कारणभूत ध्येय
प्र.सा./त प्र./६८ स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थ।
-भगवान आत्मा स्वयमेव ही स्वपरको प्रकाशित करने में समर्थ है। (और भी दे० परमात्मा /१/३)। * अन्य सम्बन्धित विषय १. परमात्माके एकार्थवाची नाम-दे० म. पु./२५/१००-२१७ २. पंच परमेष्ठीमें देवत्व
-दे० देव/1/१। ३. सच्चे देव, अर्हन्त
-दे० वह वह नाम। ४. सिद्ध
-दे० मोक्ष। २. भगवान् निर्देश
१. मगवानका लक्षण ध. १३१५,५.८२/३४६/८ ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भग., सोऽस्यास्तीति भगवान । -ज्ञान-धर्मके माहात्म्योका नाम भग है, वह जिनक है व भगवान् कहलाते है। ३. ईश्वर निर्देश
६. सकल निकल परमात्माके कक्षण का. अ./मू १६८ स-सरीरा अरहता केवल-णाणेण मुणिय सयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा सबुत्तम-सुखसंपत्ता १६८ = केवलज्ञानसे जान लिये है सकल पदार्थ जिन्होने ऐसे शरीर सहित अर्हन्त तो सकल परमात्मा है । और सर्वोत्तम सुखकी प्राप्ति जिन्होको हो गया है तथा ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा है। ति, सा/ता. वृ/४३ निश्चयेनौदारिक क्रियकाहार कतैजसकार्मणाभि
धानपञ्चशरीरप्रपञ्चाभावान्निकल । -निश्चयसे औदारिक, वैकि. यिक, आहारक, तेजस, और कामण नामक पाँच शरीरोके समूहका
अभाव होनेसे आत्मा नि कल अर्थात नि.शरीर है। स श/टी./२/२२३७ सकलात्मने सह कलया शरीरेण वर्तत इति सकलः स चासावात्मा । = कल अर्थात शरीरके साथ जो बर्त सो सकल कहलाता है और सकल भी हो और आत्मा भी हो वह सकलात्मा कहलाता है।
१. ईश्वरका लक्षण द्र.सं./टी /१४/४७/७ केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिण* सन्तो यस्याज्ञा कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति । -- केवलज्ञानादि गुण रूप ऐश्वर्यसे युक्त होनेके कारण जिसके पदकी अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञाका पालन करते हैं, अत: वह परमात्मा ईश्वर होता है। स.श/टी/६/२२५/१७ ईश्वर. इन्द्राद्यसंभविना अन्तरगयहिरङ्गषु
परमैश्वर्येण सदैव संपन्न। -इन्द्रादिकको जो असम्भव ऐसे अन्तरंग और अहिर ग परम ऐश्वर्यके द्वारा जो सदैव सम्पन्न रहता है, उसे ईश्वर कहते है। २. अपनी स्वतन्त्र कर्ता कारण शक्तिके कारण आत्मा ही ईश्वर है प्र. सा./त. प्र/३५ अपृथग्भूतकतृ करणवशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति- -आत्मा अपृथग्भूत कतृ'ख और करणत्वकी शक्तिरूप परमैश्वर्यवान है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है । ३. ईश्वरकर्तावादका निषेध आप्त. प./४/६५१-६८/३२-४६ तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य । न चैतदसिद्धम्, यत्कार्य तद् बुद्धिमन्निमित्तकं दृष्टम, यथा वस्त्रादि । . नैकस्वभावेश्वरकारणकृतं विचित्रकार्यत्वात् ।। यत्र यदा यथा यत्कार्यमुत्पत्सु तत्र तदा तथा तदुत्पादनेच्छा माहेश्वरस्यैकैव ताहशी समुत्पद्यते। • ततो नान्वयव्यतिरेकयोापकयोरनुपलम्भोऽस्ति । - प्रश्न-ईश्वर शरीर इन्द्रिय व जगतका निमित्त कारण है । उत्तर-नहीं, क्योंकि इनसे पृथक् कोई ईश्वर दिखाई नहीं देता। प्रश्न-वस्त्रादिकी भाँति शरीरादि भी किसी बुद्धिमान्के बनाये हुए होने चाहिए। उत्तर-भिन्न स्वभाववाले पदार्थ एक स्वभाववाले ईश्वरसे उत्पन्न नहीं हो सकते । प्रश्न-यथावसर ईश्वरको वैसी वैसी इच्छा उत्पन्न हो जाती है जो विभिन्न कार्योको उत्पन्न करती है। उत्तर-इस प्रकार या तो सर्व जगदमें एक ही प्रकारका कार्य होता रहेगा या इच्छाके स्थानसे अतिरिक्त अन्य स्थानों में कार्यका अभाव हो जायेगा। प्रश्न-ईश्वरेच्छाके साथ भिन्न क्षेत्रों में रहने
७. वास्तव में आत्मा ही परमात्मा है ज्ञा./२१/७/२२१ अयमात्मा स्वयं साक्षात्परमात्मेति निश्चय । विशुद्धध्याननिर्धूत-न्धनसमुत्व र १७१ - जिस समय विशुद्ध ध्यानके बलसे कर्मरूपी इन्धनको भस्म कर देता है, उस समय यह आत्मा ही साक्षात् परमात्मा हो जाता है, यह निश्चय है ।७।
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