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पर्याप्त
२. पर्याप्त अपर्याप्त नामकर्मके लक्षण
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स. सि./८/११/३६२/२ यदुदयाहारादिपर्याप्तिनिवृत्ति तत्पर्याप्तिनाम | विषयभावहेतुचर्याशनान जिसके उदयसे आहार विधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्तिनाम । आदि पर्याप्तियोको रचना होती है वह पर्याप्त नामकर्म है जो प्रकारको पर्याशियो के अभागका हेतु है मह अपना कर्म है । (रा. वा./८/११/३१.३३ / ५७६/११ ); (ध. ६/१,६-१,२८/६२/३ ); (मो.क./जी.प्र./१३/३०/९.१३) ।
घ. १३/५,५,१०१/३६५/७ जस्स कम्मस्सुदपण जीवापजत्ता होति तं कम्मं पज्जत्त णाम । जस्स कम्मसुदएण जीवा अपज्जत्ता होति तं - जिस कर्म के उदयसे जीव पर्याप्त होते हैं वह कम्ममपज्जत्त णाम । पर्याप्त नामकर्म है जिस कर्म के उदयसे जीन अपर्याप्त होते हैं यह अपर्याप्त नामकर्म है।
३. पर्याप्ति के भेद
मू. आ /१०४५ आहारे य सरोरे तह इंदिय आणपाण भासाए । होंति मणो वि य कमसो पज्जत्तीओ जिणमादा । १०४५। - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्रास, भाषा और मन ऐसे पर्या कहो है (भोपा./२४), (पं.स./९/२४), (स.सि./६/९९/ ३२ / ३), (ध. २/१,१/गा २१८/४१७ ); ( रा वा / ८ / ११ / ३१ / ५७६/ १३) (१९.९.१४/२५४/४ ) ( १/१.१,००/३१२/१) (गो. जो // ९९२/३२६) ( का.अ./मू./१०४-१३४) (प.स./ /९/९२८). (गो.क./जी.प्र./१३/२०/१). (गो.जी./जी.प्र./९११/२२६/१०) |
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४. छह पर्याप्सियोंके लक्षण
भ. १/९.१.२४/१५४/६ वारीरनामक मोंदयात गलविपाकिन आहारवर्गमागतगलस्कन्ध समवेतानन्तु परमाणु निष्पादित आमानक्षेत्रस्था कर्मस्कन्धसमन्धतो मूर्तीभूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्र - यन्ति । तेषामुपगतानां खलरसपर्यायै परिणमनशक्तेनिमित्तानामातिराहारपर्याप्ति । तं खलभाग तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावयतिलसमान रसमार्ग रसरुधिरवसाशुक्रादिनानपरौदारिकादिशरीरयपरिणामश्वयुपेतानां स्कन्धामामवासि शरीरपर्याचिः योग्यदेशस्थित रूपादिविशिष्टार्थ ग्रहणशयुत्पत्तेनिमित्त पुद्गलप्रचयावाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । ... उच्छ् वासनिस्सरणशतेर्निमितलावाशरानपानपर्याभावावर्गणाः
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स्कन्दाचतुभिधभाषाकारेण परिणमनशतेर्निमित्तनोगतप्रचयावातिषापर्याप्ति । मनीवर्गगा स्कन्धनिअनु धृतार्थशक्तिनिमित्तः मन पर्या द्रव्यमनोऽष्टम्भेनानुभूतार्थस्म रणरुत्पतिर्मनः पतिर्वा शरीर नामकर्मके उदयसे जो परस्पर अनन्त परमाणुओके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए है, और जो आत्मासे व्याप्त आकाश क्षेत्रमे स्थित है, ऐसे पुद्गल विपाकी आहारकवर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कन्ध, कर्म स्कन्धके सम्बन्धसे कथं - चिमूर्तपने को प्राप्त हुए है, आत्माके साथ समवाय रूपसे सम्बन्धको प्राप्त होते है, उन खल भाग और रस भागके भेदसे परिणमन करने की शक्तिसे बने हुए आगत पुद्गल स्कन्धोंकी प्राप्तिको आहार पर्याप्ति कहते है । : तिलकी खलीके समान उस खल भागको हड्डी आदि कठिन अवयव रूपसे और तिल तेलके समान रस भागको रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयव रूपसे परिणमन करनेवाले औदारिकादि दोन शरीरोकी शक्तिसे युक्त पुहगत स्कन्धोंकी प्राप्तिको शरीर पर्याप्त कहते है । योग्य देशमें स्थित रूपादिसे युक्त पदार्थोंके ग्रहण करने रूप शक्तिकी उत्पत्तिके निमित्त भूत पुद्गल प्रचयको प्राप्तिको इन्द्रियपर्याप्त कहते हैं। उच्वास और निःश्वास रूप शक्तिको पूर्णताके निमित्तत हगढ़ प्रचयकी प्राप्तिको आनपान पर्याप्त कहते है ।... भाषावर्गणाके स्कन्धोंके निमित्तसे चार
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भा० ३-६
१. भेद व लक्षण
प्रकारकी भाषा रूपसे परिणमन करनेकी शक्तिके निमित्तभूत नोकर्मयतप्रचयको प्राप्तिको भाषापर्याति कहते है अनुभूत अर्थके स्मरण रूप शक्तिके निमित मनोवर्गणा स्कन्धों से निष्पन्न पुद्गल प्रचयको मन पर्याप्ति कहते है । अथवा द्रव्यमनके आलम्बनसे अनुभूत अर्थके स्मरणरूप शक्तिको उत्पत्तिको मन - कहते है। गोजी/जी/११/२२६ / १२ अत्र औदारिकने क्रियिकाहारकशरीरनामकर्मोदप्रथममयादि कृला दरीत्रपट्र्यापिर्यायपरिण मनयोग्यतस्कन्धात् खत्तरसभागेन परिणमपितु पर्या शिनामकर्मोदयामष्टमस भूतात्मन शक्तिनिष्पतिराहारपयति तथा गिलस्कन्धाना खभागम् अस्यादिस्थिरायमरूपेण रसभार्ग रुधिरादिद्रारूपे च परिणमयितु' शक्तिनिष्पति शरीरपर्याप्त आवरणयोर्यान्तरायक्षयोपशमभि भितात्मनो योग्य देशावस्थितरूपादिविषयापारे शक्तिनिष्पतिर्जातिनामकर्मोदयजनितेन्द्रियपर्याप्ति' आहारवर्गमायागतस्कन्धा उच् वासनिश्वासरूपेण परिणमयि उच्छवासनिश्यासनामयजनितशक्तिनिष्पत्तिरुवासनिश्वासपर्यात स्वरनामकर्मोदयमशाद भाषावर्गणामास्कन्धाद सत्पात्योभवानुभवभाषारूपेण परिणमवि शक्तिनिष्पति भाषापर्याप्त मनोवागलस्कन्धान् अंगोपागनामकर्मोदयबलाधानेन द्रव्यमनोरूपेण परिणमवितुं द्रव्यमनोबलाधानेन यावरणवीर्यान्तराय क्षयोपशमविशेषेणगुणदोषविचारानुस्मरणप्र विधानलक्षणभागमन परिणम शक्तिनिष्पत्तिर्मन पर्याप्तिः । - औदारिक, वैक्रियक वा आहारक इनमें से किस ही शरीररूप नामकर्म की प्रकृतिके उदय होनेका प्रथम समय से लगाकर, जो तीन शरीर और छह पर्याप्त रूप पर्याय परिणमने योग्य पुद्गल स्कन्धको खलरस भागरूप परिणामावनैको पर्याप्तिनामा नामकर्मके उदयसे ऐसी शक्ति निपजे-जैसे तिलको पेलकर खल और तेल रूप परिणमा, तेसे कोई पुद्गलतो खल रूप परिण मात्रै कोई पुद्गल रस रूप। ऐसी शक्ति होनेको आहार पर्याप्त कहते है । खलरस भागरूप परिणत हुए उन पुद्गल स्कन्धों में से वभागको हड्डी, धर्म आदि स्थिर अवयवरूपते और रसभागको रुधिर, शुकइत्यादि रूपसे परिणमानेकी शक्ति हो, उसको शरीर पर्याप्त कहते है । मति श्रुत ज्ञान और चक्षु अचक्षु दर्शनका आबरण तथा वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न जो आत्माके यथा योग्य द्रव्येन्द्रियका स्थान रूप प्रदेशोंसे वर्णादिकके ग्रहणरूप उपयोगकी शक्ति जातिनामा नामकर्मसे निपजै सो इन्द्रिय पर्याप्ति है । आहारक वर्गणारूप पुद्गलस्कन्धोंकी श्वासोश्वास रूप परिमालकी वाणि हो. श्वासोश्वास नामकर्मसे निपजे सो श्वासोश्वास पर्याप्त है । स्वरनामकर्मके उदयसे भाषा वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धोको सत्य, असत्य, उभय, अनुभय भाषारूप परिणमावनेकी शक्तिकी जो निष्पत्ति होइ सो भाषापर्याप्ति है। मनोवर्गणा रूप जो पुद्गलस्कन्ध, उनको अंगोपांग नामकर्मके उदयसे द्रव्यमनरूप परिणमावनेकी शक्ति होइ, और उसी द्रव्यमनके आधारसे मनका आवरण अर वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशम विशेषसे गुणदोष विचार, अतीतका याद करना, अनुगतमें याद रखना इत्यादि रूप भावमनकी शक्ति होइ उसको मन पर्याप्ति कहते है ।
५. निर्ऋति पर्याप्तापर्याप्त के लक्षण गो.जी././१२९/३३१ तस्य उदये णिमणियजन्ति मिडियाहोदि । जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति अपुण्णगो भवति । १२११ पर्याप्तिनामकर्मके उदयसे एकेन्द्रियादि जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियोंकी सम्पूर्णताको शक्तिले युत होते हैं। जन तक शरीर पूर्ण नहीं होती, उतने काल तक अर्थात् एक समय कम शरीरपर्याप्ति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निवृत्ति अपयश कहते है। अर्था
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