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प्रकृति बंध
१. भेद व लक्षण
३. कर्म प्रकृतिके भेद
उपशान्तकषायादवतरत सूक्ष्मसापराये। यत्कर्म यस्मिन् गुणस्थाने १. मूल व उत्तर दो भेद
व्युच्छिद्यते तदनन्तरोपरितनगुणस्थानं श्रेणि तत्रानारूढे अनादिबन्ध'
स्यात्, यथा सूक्ष्मसापरायचरमसमयादधस्तत्पश्चकस्य । तु-पुन. अभभू आ./१२२१ दुविहो य पडिबधो मूलो तह उत्तरो चेव । प्रकृति
व्यसिद्धेध वबन्धो भवति निष्प्रतिपक्षाणां बन्धस्य तत्रानाद्यनन्तत्वात। बन्ध मूल और उत्तर ऐसे दो प्रकारका है ।१२२१॥ (प.सं./प्रा./२/१)
भव्य सिद्ध अध्र वअन्धो भवति । सूक्ष्मसापराये बन्धस्य व्युच्छिन्त्या (क. पा. २/२-२२/ चूर्ण सूत्र/६४१/२०) (रा. वा./८/३/११/५६७/२०);
तत्पश्चकादीनामिव । जिस कर्मके बन्धका अभाव होकर फिर बन्ध (ध. ६/१,६-१,३/५/६); (पं. सं./सं /२/१)
होइ तहाँ तिस कर्म के बन्ध को सादि कहिये । जैसे-ज्ञानावरणको २. मूल प्रकृतिके आठ भेद
पाँच प्रकृतिका बन्ध सुक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त जीवके था। ष. खं. १३/०५/सू १९/२०५."कम्मपयडी णाम सा अट्टविहा-णाणावर
पीछे वही जीव उपशान्त कषाय गुणस्थानको प्राप्त भया तब णीयकम्मपयडी एवं सणावरणीय-वेयणीय-मोहणीय-आउअ
ज्ञानावरण के बन्धका अभाव भया। पीछे वही जीव उतर कर सूक्ष्मणामा-गोद-अंतराइयकम्मपयडी चेदि ।। -नोआगम कर्म द्रव्य
साम्परायको प्राप्त हुआ वहाँ उसके पुन. ज्ञानावरणका बन्ध भया तहाँ प्रकृति आठ प्रकारको दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम,
तिस बन्धको सादि कहिये। ऐसे ही और प्रकृतिनिका जानना। गोत्र और अन्तराय कर्म प्रकृति ।१६ (ष खं. ६/१,६-१/सू. ४-१२/
जिस गुण स्थानमें जिस कर्मकी व्युच्छित्ति होइ, तिस गुणस्थानके ६-१३); (त. सू./८/४); (मू आ./१२२२); (प.स./प्रा./२/२);
अनन्तर ऊपरिके गुणस्थानको अप्राप्त भया जो जीव ताके तिस (न. च. वृ./४); (गो. क./मू./८/७); (द्र, स./टी/३१/१०/६)।
कर्मका अनादि बन्ध जानना। जैसे-ज्ञानावरणकी व्युच्छित्ति
सूक्ष्मसाम्परायका अन्त विर्षे है। ताके अनन्तर ऊपरकै गुणस्थानको ३. उत्तर प्रकृतिके १४८ मेद
जो जीव अप्राप्त भया ताकै ज्ञानावरणका अनादिबन्ध है। ऐसे ही त. सू./८/५ पञ्चनवद्वयष्टाविशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा अन्य प्रकृतियोंका जानना। -बहरि अभव्य सिद्ध जो अभव्यजीव यथाक्रमम् ।। -आठ मूल प्रकृतियोके अनुक्रमसे पाँच, नौ, दो, तीहिविः ध्र बबन्ध जानना। जाते नि.प्रतिपक्ष जे निरन्तर बन्धी अट्ठाईस, चार, ब्यालोस, दो और पाँच भेद है ।। (विशेष देखो- कर्म प्रकृतिका बन्ध अभव्यके अनादि अनन्त पाइए है। बहुरि उस उस मूल प्रकृतिका नाम) (ष वं /६/१,६-१/सू./पृ.१३/१४; भव्यसिद्धविर्षे अधव बन्ध है जात भव्य जीवक बन्धका अभाव १५/३१, १७/३४,१६/३७:२५/४८:२६/४६१४५/७७:४६/७८); (ष. खं.
भी पाइए वावध भी पाइए। जैसे-ज्ञानावरण पंचककी सूक्ष्म साम्पराम १३/५,५/सू./पृ.२०/२०६६८४/३६३; ८८/३५६६०/३५७६६/३६२,१०१/
विष अन्धकी व्युच्छित्ति भई । नोट-(इसी प्रकार उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट ३६३,१३३/३८८,१३७/३८६), (पं सं/प्रा/२/४), (गो क.मू./२२)
तथा जघन्य व अजधन्य बन्धकी अपेक्षा भी सादि अनादि ध्रुव १५), (पं.सं/सं./२/३-३५) ।
अध व विकल्प यथा सम्भव जानना । (गो क./जी./प्र/६९/७५/१५)।
गो.क./भाषा/80/७५/४ विवक्षित बन्धका बीचमें अभाव होइ ४. असंख्यात भेद
बहुरि जो बन्ध होइ सो सादिबन्ध है। बहुरि कदाचिव अनादि तें गो क./म् /७/६ तं पुण अट्टविहं वा अडदालसयं असखलोग वा। ताणं बन्धका अभाव न हुवा होइ तहाँ अनादिबन्ध है। निरन्तर बन्ध पुण घादित्ति अ-घादित्ति य होति सण्णाओ।७। सामान्य कर्म हुआ करे सो भवबन्ध है। अन्तर सहित बन्ध होइ सो अध वबन्ध आठ प्रकार है, वा एक सौ अडतातीस प्रकार है, वा असंख्यात लोक कहते है। प्रमाण प्रकार है। तिनकी पृथक-पृथक धातिया व अधातिया ऐसी ५. सान्तर, निरन्तर व उमय बन्धी प्रकृतियों के लक्षण सज्ञा है ।
घ. ८/३,६/१७/८ जिस्से पयडीए पच्चओ णियमेण सादि अधुओ पं. ध./उ /१००० उत्तरोत्तरभेदैश्च लोकासंख्यातमात्रकम् । शक्तितोs- अतोमुहत्तादिकालावट्ठाई सा गिरतरबंधपयडी। जिस्से पयडीए नन्तसज्ञश्च सर्वकर्मकदम्बकम् ॥१०००। (अवश्यं सति सम्यक्त्वे
अद्धाक्खएण बंधवोच्छेदो संभवइ सा सांतरबंधपयडी। -जिस तल्लब्ध्यावरणक्षति (प ध/८५६) - उत्तरोत्तर भेदोकी अपेक्षासे
प्रकृतिका प्रत्यय नियमसे सादि एवं अध्र तथा अन्तर्मुहूर्त आदि कर्म असंख्यात लोक प्रमाण है। तथा अपने अविभाग प्रतिच्छेदोके
कालतक अवस्थित रहनेवाला है, वह निरन्तर बन्धी प्रकृति है। शक्तिकी अपेक्षासे सम्पूर्ण कर्मों का समूह अनन्त है ।१०००। (ज्ञानसे
जिस प्रकृतिका काल क्षयसे बन्ध व्युच्छेद सम्भव है वह सान्तरबन्धी चेतनावरण-स्वानुभूत्यावरण कर्मका नाश अवश्य होता है। इत्यादि
प्रकृति है। और भी दे० नामकर्म)।
गो. क /भाषा/ ४०६-४०७/५७०/१७ जैसे-अन्यगतिका जहाँ बन्ध १. सादि-अनादि व ध्र व-अध्र वबन्धी प्रकृतियोंके लक्षण पाइये तहा तौ देवगति सप्रतिपक्षी है सो तहाँ कोई समय देवगतिका 4. स /प्रा/४/२३३ साइ अबधाबंधइ अणाइबंधो य जीवकम्माणं । बन्ध होई कोइ समय अन्य गतिका बन्ध होइ तातै सान्तरबन्धी है। धुवबधो य अभब्वे बंध-विणासेण अधुवो होज २३३। -विवक्षित
जहाँ अन्य गतिका बन्ध नाहीं केवल देवगतिका बन्ध है तहाँ देवगति कर्म प्रकृतिके अबन्ध अर्थात् बन्ध विच्छेद हो जानेपर पुनः जो उसका
निष्प्रतिपक्षी है सो तहाँ समय समय प्रति देवगतिका बन्ध पाइए बन्ध होता है, उसे सादिबन्ध कहते है। जीव और कर्म के अनादि
तातै निरन्तर बन्धी है । तातै देवगति उभयबन्धी है। कालीन बन्धको अनादिबन्ध कहते है। अभव्यके बन्धको धवबन्ध
६.परिणाम,मव व परमविक प्रत्यय रूप प्रकृतियोंके लक्षण कहते है। एक बार बन्धका विनाश होकर पुनः होनेवाले बन्धको ल, सा./जी, प्र./३०६-३०७-३८८ पञ्चविशतिप्रकृतयः परिणामप्रत्ययाः,
अध्र वबन्ध कहते है । अथवा भव्यके बन्धको अध वमन्ध रहते है। आत्मनो विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धयनुसारेण एतत्प्रकृतमनुभाध ८/३,६/१७/७ जिस्से पयडीए पच्चओ जत्थ कत्थ वि जीवे अणादि- गस्य हानिवृद्धिसद्भावात।३०६॥ चतुस्त्रिशत्प्रकृतयो भवप्रत्यया । एता
धुवभावेण लगभइ सा धुवनधीपयडी 1 = जिस प्रकृतिका प्रत्यय सामनुभागरय विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धि निरपेक्षतया विवक्षित. जिस किसी भी जीवमें अनादि एव ध्र व भावसे पाया जाता है वह भवाश्रयेणैव षट्स्थानपतितहानिवृद्धिसंभवात । अतः कारणादवस्थितध्रुव-बन्ध प्रकृति है।
विशुद्धिपरिणामेऽयुपशान्तकषाये एतच्चतु स्त्रिशत्प्रकृतीनां अनुभागोगो. के./भू. व टी./१२३/१२४ सादि-असंधमधे सेडिअणारुढगे अणादीहु। दयस्त्रिस्थानसंभवो भवति । कदाचिदीयते कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धाअभव्यसिद्धम्हि धुवो भवसिद्ध अधुवो बंधो।१२३सादिबन्धः निवृद्धिभ्यां विना एकादृशं एवावतिष्ठते ।३०७।- पच्चीस प्रकृति परिअबन्धपतितस्य कर्मण पुनर्बन्धे सति स्यात, यथा ज्ञानावरणपञ्चकस्य णाम प्रत्यय है। इनका उदय होनेके प्रथम समय में आत्माके विशुद्धि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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