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पूजा
है अतएव एक जिन या जिनालयकी वन्दनासे सभी जिन या जिनालयकी वन्दना हो जाती है। ३. देव व शास्त्रकी पूजामें समानता सा, ध./२/४४ ये सजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽजसा जिनम् । न किचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयो ४४। जो पुरुष भक्तिसे जिनवाणीको पूजते है, वे पुरुष वास्तवमें जिन भगवानको ही पूजते है, क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेन्द्रदेवमें कुछ भी अन्तर नहीं कहते है।४४॥
४. साधु व प्रतिमा भी पूज्य है बो. पा./मू /१७ तस्य य करइ पणाम सव्वं पुज्ज च विणयवच्छल्लं । जस्स य द सण णाणं अत्थि धुर्व चेयणा भावो ।१७। - ऐसे 'जिनबिंब अर्थात आचार्य प्रणाम करो, सर्व प्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, काहै तें-जाके ध्र व कहिये निश्चयतें दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है। बो. पा./टी./१७/८५/ह जिनबिम्बस्य जिनबिम्बमूर्तेराचार्यस्य प्रणाम नमस्कारं पञ्चाङ्गमष्टाङ्ग बा कुरुत। चकारादुपाध्यायस्य सर्वसाधोश्च प्रणाम कुरुत तयोरपि जिनबिम्बस्वरूपत्वाव । सर्वां पूजामष्टविधमचनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनय · वैयावृत्यं कुरुत यूय ।... चकारात्पाषाणादिघाटितस्य जिनबिम्बस्य पञ्चामृत स्नपन,अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजन कुरुत यूयं । -जिनेन्द्रकी मूर्ति स्वरूप आचार्यको प्रणाम, तथा पंचाङ्ग वा अष्टांग नमस्कार करो। च शब्दसे उपाध्याय तथा सर्व साधुओंको प्रणाम करो, क्योंकि वह भी जिनबिम्ब स्वरूप है।.. इन सबकी अष्टविध पूजा, तथा अर्चना करो, विनय, एवं वैयावृत्य करो ।...चकारसे पाषाणादिमें उकेरे गये जिनेन्द्र भगवान्के बिम्बका पंचामृतसे अभिषेक करो और अष्टविध पूजाके द्रव्यसे पूजा करो, भक्ति करो और भी दे० पूजा |२१) । दे० पूजा/१/४ आकारवान व निराकार वस्तुमें जिनेन्द्र भगवान्के गुणो___ की कल्पना करके पूजा करनी चाहिए। दे० पूजा/२/१ ( पूजा करना श्रावकका नित्य कर्तव्य है।)
५. साधुको पूजासे पाप नाश कैसे हो सकता है ध.१/४,१,१/११/१ होदु णाम सयलजिणणमोकारो पावप्पणासओ, तस्थ
सव्वगुणाणमुवतंभादो। ण देसजिणाणभेदेसु तदणुवल भादो त्ति । ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुबलभादो। तदो सयलजिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सव्वकम्मक्खयकारओ ति दछन्बो। सयलासयलजिणठियतिरयणाण ण समाणत्तं ।... संपुण्णतिरणकज्जमसंपुण्णतिरयणाणि ण करेति, असमणत्तादो त्ति ण, णाण-दसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तु वलंभादो। ण च असमाणाणं कज्ज असमाणमेव त्ति णियमो अस्थि, संपुण्ण ग्गिया कोरमाणदाहकज्जस्स तदवयवे वि उबलं भादो, अमियघडसएण कीरमाण णिव्विसोकरणादि कज्जस्स अमियस्स चलुवे वि उवल भादो वा।
प्रश्न-सकलजिन नमस्कार पापका नाशक भले ही हो, क्योकि उनमे सब गुण पाये जाते हैं। किन्तु देशजिनोंको किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योकि इनमें वे सब गुण नही पाये जाते ? उत्तर-नहीं, क्योंकि सकल जिनोंके समान देशजिनो में भी तीन रत्न पाये जाते है। इसलिए सकल जिनोंके नमस्कार के समान देश जिनोंका नमस्कार भी सब कर्मोका क्षयकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। प्रश्न-सकल जिनों और देशजिनोंमे स्थित तोन रत्नोकी समानता नहीं हो सकती क्योंकि सम्पूर्ण रत्नत्रयका कार्य असम्पूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, क्योंकि, वे असमान है। उत्तर-नहीं, क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्रके
३. पूजा निर्देश व मूर्तिपूजा सम्बन्धमे उत्पन्न हुई समानता उनमें पायी जाती है। और असमानोंका कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नही है, क्योंकि सम्पूर्ण अग्निके द्वारा किया जानेवाला दाह कार्य उसके अवयवमें भी पाया जाता है, अथवा अमृतके सैकड़ो घडोंसे किया जानेवाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लू भर अमृतमें भी पाया जाता है।
६. देव तो मावों में है मूर्ति में नहीं प.प्र.//९/१२३४१ देउ ण देउले गवि सिलए णवि लिप्पड़ णवि चित्ति। अखउ गिर जणु णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति ।१२३॥ -आन्म देव देवालयमें नहीं है, पाषाणकी प्रतिमामें भी नहीं है, लेपमें भी नहीं है, चित्रामकी मुतिमें भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म अंजनसे रहित है, केवलज्ञान कर पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभावमें तिष्ठ रहा है ।१२३. (यो. सा यो./४३-४४) यो, सा.यो./४२ तित्थहि देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वृत्त । देहा
देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुतु ॥४२॥ श्रुतकेवलीने कहा है कि तीर्थो में देवालयोमें देव नहीं है, जिनदेव तो देह देवालयमें विराजमान हैं ४२॥ ओ.पा./टी./१६२/३०२ पर उद्धुत-न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये । भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं १॥ भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु वहहि सिरेण । पत्थरि कमलु कि निप्पजइ जइ सिचहि अमिएण २ = काष्ठकी प्रतिमामें, पाषाणकी प्रतिमामें अथवा मिट्टीकी प्रतिमामें देव नहीं है। देव तो भावों में है। इसलिए भाव ही कारण है । हे जीव । यदि भाव रहित केवल शिरसे जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करता है तो वह निष्फल है, क्योंकि क्या कभी अमृतसे सींचनेपर भी कमल पत्थरपर उत्पन्न हो सकता है ।२। दे० पूजा/१/५ (निश्चयसे आत्मा ही पूज्य है।)
७. फिर मूर्तिको क्यों पूजते हैं भ. आ./वि./४७/१६०/१३ अर्हदादयो भव्याना शुभोपयोगकारणतामुपा
यन्ति । तद्वदेतान्यपि तदीयानि प्रतिबिम्बानि । यथा...स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालम्बनं। एक्मर्हदादिगुणानुस्मरणनिबधनं प्रतिबिम्बम् । तथानुस्मरणं अभिनवाशुभप्रकृतेः सवरणे, सममिति सकलाभिमतपुरुषार्थ सिद्धिहेतुतया उपासनीयानीति । जैसे अर्हदादि भव्योको शुभोपयोग उत्पन्न करनेमे कारण हो जाते है, वैसे उनके प्रतिविम्ब भी शुभोपयोग उत्पन्न करते है। जैसे-अपने पुत्रके समान ही दूसरेका सुन्दर पुत्र देखनेसे अपने पुत्रकी याद आती है। इसी प्रकार अर्हदादिके प्रतिविम्ब देखनेसे अहंदादिके गुणोका स्मरण हो जाता है, इस स्मरणसे नवीन अशुभ कर्मका संवरण होता है। .. इसलिए समस्त इष्ट पुरुषार्थकी सिद्धि करनेमें, जिन प्रतिबिम्ब हेतु होते है, अत: उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिए। भ. आ./वि./३००/५११/१५ चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रतिबिम्बानि कृत्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्ता.। यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाइद्वेषो रागश्च जायते। यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुसरणे निमित्ततास्ति तवज्जनसिद्धगुणा. अनन्तज्ञानदर्शनसम्यवत्ववीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न सन्ति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयन्ति सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरणं अनुरागात्मक ज्ञानदर्शने संनिधापयति । तेच संवरनिर्जरे महत्यौ संपादयतः । तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनी कुरुत। -हे मुनिगण । आप अर्हन्त और सिद्धको अकृत्रिम और कृत्रिम प्रतिमाओंपर भक्ति करो। शत्रुओं अथवा मित्रोंकी फोटो अथवा प्रतिमा दीख पडनेपर द्वेष और प्रेम उत्पन्न होता है। यद्यपि उस फोटोने उपकार अथवा अनुपकार कुछ भी नहीं किया है, परन्तु बह शत्रुकृत उपकार और मित्रकृत उपकारका स्मरण होने में कारण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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