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पूजा
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४. पूजायोग्य द्रव्य विचार
है। जिनेश्वर और सिद्धोके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुण यद्यपि अर्हत्प्रतिमामें और सिद्ध प्रतिमामे नही है, तथापि उन गुणोंका स्मरण होनेमें वे कारण अवश्य होती है, क्योकि अईत और सिद्धोका उन प्रतिमाओमे सादृश्य है। यह गुण स्मरण अनुरागस्वरूप होनेसे ज्ञान और श्रद्धानको उत्पन्न करता है,
और इनसे नवीन कर्मोंका अपरिमित सवर और पूर्वसे बंधे हुए कर्मोकी महानिर्जरा होती है । इसलिए आत्म स्वरूपकी प्राप्ति होने में सहायक चैत्य भक्ति हमेशा करो। (ध.६/४,१,१/८/४), (अन ध./
प्रदीप्त किरणोसे युक्त रत्नमयी दीपकोंसे, और पके हुए कटहल, केला दाडिम एव दाख इत्यादि फलोसे पूजा करते है ।२२३-२२६। (ति.
५/५/१०४-१११, ७/४८; ८/५८६)। ध./३,४२/१२/३ चरु-वलि-पुप्फ-फल-गंधधूवदीवादीहि सगभत्तिपगासो अच्चणा णाम । चरु, बलि, पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप आदिकोसे अपनी भक्ति प्रकाशित करनेका नाम अर्चना है। (ज. प०/५/११७)। वसु. श्रा./४२०-४२१. अक्खयचरु-दीवेहि-य धूवेहि फलेहि विविहेहि । १४२०। बलिवत्तिएहि जावारएहिं य सिद्धत्थपण्णरुवखेहि। पुव्वुत्तुवयरणेहि य रएज्जपुज्ज सविहवेण ।४२२ -(अभिषेकके पश्चात) अक्षत- चरु, दीपसे, विविध धूप ओर फलोसे, बलि वर्तिकोसे अर्थात पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियोसे जवारकोसे, सिद्धार्थ (सरसो) और पर्ण वृक्षोंसे तथा पूर्वोक्त (भेरी, घंटादि ) उपकरणोसे पूर्ण वैभवके साथ या अपनी शक्तिके अनुसार पूजा रचे ।४११-४२१) (विशेष दे० वसु. श्रा, (४२५-४४१), (सा. ध./२/२५.३१); (बो. पा./टी./१७/ ८५/२०)।
८. एक प्रतिमामें सर्वका संकल्प र.क श्रा/प. सदासुख/११६/१७३/३ एक तीर्थकरकै हु निरुक्ति द्वारै
चौबीसका नाम सम्भवै है। तथा एक हजार आठ नामकरि एक तीर्थकरका सौधर्म इन्द्र स्तवन क्यिा है, तथा एक तीर्थकरके गुणनिके द्वारे असंख्यात नाम अनन्तकालतें अनन्त तीर्थकरके हो गये है। तातै हूँ एक तीथंकरमे एकका भी सकल्प अर चौबीसका भी सकल्प सम्भवै है। ..अर प्रतिमाकै चिन्ह है सो नामादिक व्यवहारके अर्थि है। अर एक अरहन्त परमात्मा स्वरूपकरि एक रूप है अर नामादि करि अनेक स्वरूप है। सत्यार्थ ज्ञानस्वभाव तथा रत्नत्रय रूप करि वोतराग भावकरि पंच परमेष्ठी रूप हो प्रतिमा जाननी।
९. पार्श्वनाथकी प्रतिमापर फण लगानेका विधि निषेध र. क श्रा./पं. सदामुख/२३/३६/१० तिनके (पद्मावतीके) मस्तक ऊपर पाश्वनाथ स्वामीका प्रतिबिम्ब अर ऊपर अनेक फणनिका धारक सर्पका रूप करि बहुत अनुराग करि प्रजें है, सो परमागमत जानि निर्णय करो । मूढलोकनिका कहिवो योग्य नाही। चर्चा समाधान/चर्चा नं.७० प्रश्न-पार्श्वनाथजीके तपकाल विर्षे
धरणेन्द्र पद्मावती आये मस्तक ऊपर फणका मण्डप किया। केवलज्ञान समय रहा नाही। अब प्रतिमा विर्षे देखिये। सो क्योंकर सभवै । उत्तर-जो परम्परा सौ रीति चली आवै सो अयोग्य कैसे कही जावै।
१०. बाहुबलिकी प्रतिमा सम्बन्धी शंका समाधान चर्चा समाधान/शंका न०६६ -प्रश्न-बाहुबलिजी की प्रतिमा पूज्य है कि नहीं । उत्तर-जिनलिग सर्वत्र पूज्य है। धातुमें, पाषाणमें जहाँ है तहाँ पूज्य है। याही ते पाँचो परमेष्ठीकी प्रतिमा पूज्य है।
२. अष्ट द्रव्य पूजा व अभिषेकका प्रयोजन व फल सु. श्रा/४८३-४१२ जलधारणिक्खेवेण पावमलसोहणं हवे णिय । चंदणवेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णो ४८३॥ जायइ अक्रवयणिहिरयणसामियो अक्खएहि अक्वोहो । अक्खीणलद्धिजुत्तो अक्षयसोक्वं च पावेइ ।४८४! कुसुमेहि कुसेसयवयणु तरुणीजणजयण कुसुमवरमाला । बलएणच्चियदेहो जयइ कुसुमाउहो चेव ।४८५। जायइ णिविजदाणेण सत्तिगो कंति-तेय सपण्णो। लावण्णजल हिवेलातर गसंपावियसरीरो १४८६। दीवहिं दीवियासेसजीवदव्वाइतञ्चसम्भावो। सम्भावजणियकेवलपईवतेएण होइ णरो ४८७। धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधवलियजयत्तओ पुरिसो। जायइ फलेहि संपत्तपरमणिव्वाणसोक्खफलो ४८ घंटाहि घंटसदाउलेसु पवरच्छराणमझम्मि । सकीडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु ।४८६। छत्तेहिं एयछत्तं भुजइ पुहवी सवत्तपरिहीणो। चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहि ४६०। अहिसेयफलेण णरो अहि सिचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि खीरोयजलेण सुरिदप्पसहदेवेहि भत्तीए ४६११ विजयपडाएहि णरो सगाममुहेसु विजइओ होइ । छक्लंडविजयणाहो णिप्पडिवखो जसस्सी य ४९ -पूजनके समय नियमसे जिन भगवान्के आगे जलधाराके छोडनेसे पापरूपी मैलका संशोधन होता है। चन्दन रसके लेपसे मनुष्य सौभाग्यसे सम्पन्न होता है।४८३। अक्षतोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ और रोग शोक रहित निर्मय रहता है, अक्षीण लब्धिले सम्पन्न होता है, और अन्तमें अक्षय मोक्ष सुखको पाता है ।४८४ पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनोके नयनोसे और पुष्पोंकी उत्तम मालाओके समूहसे समचित देह वाला कामदेव होता है 1४८५॥ नैवेद्यके चढानेसे मनुष्य शक्तिमान, कान्ति और तेजसे सम्पन्न, और सौन्दर्य रूपी समुद्रकी वेलावर्ती तर गोसे सप्लावित शरीरवाला अर्थात अति सुन्दर होता है।४८६। दीपोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावोके योगसे उत्पन्न हुए केवल ज्ञानरूपी प्रदीपके तेजसे समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वोके रहस्यको प्रकाशित करनेवाला अर्थात केवलज्ञानी होता है। १४८७१ धूपसे पूजा करनेवाला मनुष्य चन्द्रमाके समान त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाणका सुखरूप फल पानेवाला होता है।४८८/--जिन मन्दिरमें घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घटाओके शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ विमानोमें सुर समूहसे सेवित होकर अप्सराओंके मध्य क्रीडा करता है ।४८ छत्र प्रदान करनेसे मनुष्य, शत्रु रहित होकर पृथ्वीको एक-छत्र भोगता है । तथा
४. पूजायोग्य द्रव्य विचार
1. अष्टद्रव्यसे पूजा करनेका विधान ति, प./३/२२३-२२६ भिगार कलसदप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदम्वेहि । पूर्जति फलिहद डोवमाणवरवारिधारेहि ।२२३। गोसोरमलयचंदणकुकुमपकेहि परिमलिल्ले हि । मृत्ताल पूजे हि स लोए तंदुले हि सयलेहि १२२४। वरविविहकुसुममालासएहि धूवंगरंगगंधेहि । अमयादो मुहुरेहि णाणाविहदिव्यभवखेहि (२२५॥ धूवेहि सुगधेहि रयणपईवेहि दित्तकरणेहि। पक्केहि फणसकदलीदाडिमदरवादियफलेहिं ।२२६ - वे देव झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्योंसे, स्फटिक मणिमय दण्डके तुल्य उत्तम जलधाराओसे, सुगन्धित गोशीर, मलय, चन्दन, और कुंकुमके पंकोसे, मोतियोके पुजरूप शालिधान्यके अखण्डित तन्द्रलोंसे, जिनका रंग और गन्ध फैल रहा है ऐसी उत्तमोत्तम विविध प्रकारकी सैकड़ों मालाओसे; अमृतसे भी मधुर नाना प्रकारके दिव्य नैवेद्योंसे, मुगन्धित धूपोसे,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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