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पूजा
चमरोंके दानसे चमरोके समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है। जिन भगवान्के अभिषेक करने से मनुष्य सुदर्शन मेरुके ऊपर सीरसागर के जलसे सुरेन्द्र प्रमुख देवोके द्वारा अभिषिक्त किया जाता है । |४६१ | जिन मन्दिर में विजय पताकाओंके देनेसे संग्रामके मध्य विजयी होता है तथा षट्खण्डका निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है |४६२
सा. घ. / २ / ३०-३१ बारा रजस' शमाय पदयो, सम्यक्प्रयुक्ताई' सद्गन्धस्तनुसौरभाय विभवा-च्छेदाय सन्त्यक्षता । यष्टुः खरिदविजखजे चरुरुमा स्वाम्याय दीपस्त्विषे । धूपो विश्वदृगुत्सवा मिटा पासा (३० नीरा श्वाव्यपुर ग्रामरज्यन्यनोभिग्यो विशुद्ध यया कल्पते ताप दाय |३१| = अरहन्त भगवान्के चरण कमलो में विधि पूर्वक चढाई गयी जलकी धारा पूजक के पापोके नाश करनेके लिए, उत्तम चन्दन शरीरमें सुगन्धिके लिए अक्षत व स्थिरता के लिए, पुष्पमाता मन्दरमाताकी प्राधिके लिए, नैवेद्य लक्ष्मीपतित्व के लिए, दीप कान्ति के लिए धूप परम सौभाग्यके लिए फल इच्छित वस्तुकी प्राधिके लिए और वह अर्ध अन पदको प्राप्तिके लिए होता है |१०| • सुन्दर गद्य पद्यात्मक काव्यों द्वारा आश्चर्यान्वित करनेवाले बहुतसे गुणोके समूह से मनको प्रसन्न करनेवाले जल चन्दनादिक द्रव्यों द्वारा जिनेन्द्रदेवको पूजनेवाला भव्य सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिको पुष्ट करे है, जिस दर्शनशुद्धिके द्वारा तीर्थंकरपदकी प्राप्तिके लिए समर्थ होता है |२१|
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३. पंचामृत अभिषेक निर्देश व विधि
सा./६/२२ आश्य स्नपन विशोध्य तदितां पीठ चतुष्कुम्भयुक कोणाया सकुशश्रियां जिनपति न्यस्तान्तमाप्येष्टदिक्-नीराज्याम्बुरसाज्य दुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं सिक्तं कुम्भजलैश्च गन्धसलिलै संप्रज्य वा स्मरेत् ॥ २२१ = अभिषेककी प्रतिज्ञा कर अभिषेक स्थानको शुद्ध करके चारों कोनोमें चार कलशसहित सिहासनपर जिनेन्द्र भगवादको स्थापित करके आरती उतारकर इष्ट दिशामें स्थित होता हुआ जल, इक्षुरस, घी. और दही के दुग्ध, द्वारा अभिषित करके पदानुशेन युक्त तथा पूर्व स्थापित कलशके जलसे तथा सुगन्ध युक्त जलसे अभिषिक्त जिनराजकी अष्टद्रव्य से पूजा करके स्तुति करके जाप करे | २२| ( बो. पा/टी./१७/०५/११) (दे० सावध / ७)
४. सचित यों आदिसे पूजाका निर्देश द्रव्यों १. विलेपन व सजावट आदिका निर्देश
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ति प./५/१०५ कुंकुमप्पूरेहिं चदणकालागरुहि अण्णेहि । ताणं विलेवणाईं ते कुव्र्वते सुगंधेहि । १०५१ = वे इन्द्र कंकुम, कर्पूर. चन्दन, कालागुरु और अन्य सुगन्धित क्योंसे उन प्रतिमाओका विलेपन करते है | १०३ | (वसु० श्रा०/४२०); (अ. ५/२/१९५) (३० सावध / ७) ।
घ. श्रा / २९०० ४०० परिचीणपट्टाइएहि महिमहुविहितहा उन्लो उपरि चंदनयममिमहानेहि २६२ सपिंद चंदवराय साईहि मुचादामेहि वहा किंकिमिह विविदेहि |२| रोहि चामरेहि यदप्यभिगार तालमटेहि कलसेहि पुडिशिय-पदीनमिरहेहि [२००१] - प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करते समय मंडप में चबूतरा बनाकर वहाँ पर ) चीनपट्ट (चाइना सिल्क ) कोशा आदि नाना प्रकारके नेत्राकर्षक वस्त्रोसे निर्मित चन्द्रकान्त मणि तुल्य चतुष्कोण चंदोवेको तानकर, चन्द्र, अर्धचन्द्र, मुमुद, वराटक ( कौडी) आदिसे तथा मोतियोंकी मालाओं से, नाना प्रकार की छोटी घंटियोंके समूहसे छात्रोंसे पमरोसे, दर्पणोसे,
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४. पूजायोग्य द्रव्य विचार
भृङ्गारसे, तालवृन्तोसे से पुष्पपटलोंसे सुप्रतिष्शक ( स्वस्तिक) और दीप समूहों आषित करे 11८-४००
२. हरे पुष्प व फोंसे पूजन
पि. ५/१००, १११ सयमा य चंपयमाला पुणावादीह अच्चति ताओ देवा तुरहीहिं कुतुममालाहि ॥१००१ दवखादाडिमकदलीणारं यमाहुलिगचूदेहि । अण्णेहि वि पक्केहि फलेहि पूजति जिणणाहं |१११ | = वे देव सेवन्ती, चम्पकमाला, पुंनाग और नाग प्रभृति सुगन्धित पुष्पमालाओं से उन प्रतिमाओकी पूजा करते
१०० (प./५/११५); (मो.पा./टी./६/७८/पर उधृत (दे० सावद्य / ७) | दाख, अनार, केला, नारगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलोसे वे जिननाथकी पूजा करते है | १११ | (ति.प./३/२२६) ।
प./११/२४२ जिनेन्द्र प्राप्ति पूजाममरे कनकाम्बुजे
द्रुमपुष्पा
दिभि कि न पूज्यतेऽस्मद्विधैर्जनैः ॥ ३४५॥ देवोंने जिनेन्द्र भगवान् - की सुवर्ण कमलसे पूजा की थी, तो क्या हमारे जैसे लोग उनकी साधारण वृक्षोंके फूलोंसे पूजा नहीं करते है 1 अर्थात् अवश्य करते
२४५ |
म.पू./१०/२५२ परिणतफलभेद राम्ररूपित्थैः पनससकुचमोचेरुचिर नतिरे श्रम्यैः गुरुचरण
सपर्यामातनोदाततश्री १२५२१
म.पु. ७८/४०१ राद्विलोक्य समुत्तभक्ति स्नानविबुद्धिभाक् । तत्सरीसंभूतप्रसवैर्षहुभिर्जिनात् । ४६६ | ( अभ्यर्च्य ) जिनकी लक्ष्मी बहुत विस्तृत है ऐसे राजा भरतने पके हुए मनोहर आम, जामुन, कैथा, कटहल, बडहल, केला, अनार, बिजौरा, सुपारियोंके सुन्दर गुच्छे और नारियलोके चरणोंकी पूजा की २१
( जिन मन्दिर के स्वयमेव वाटल गये) यह अतिशय देख जीवन्धर कुमारकी भक्ति और भी बढ गयी, उन्होंने उसी सरोवर में स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवरमें उत्पन्न हुए बहुत से फूल ले जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की | ४०६ | वसु. श्री. / ४३१-४४१ मालइ कर्यन - कणयारि-चं पयासोय वउल-तिल एहि । मंदारणायचंय मुध्यत सिवारेहिं 1४३१ कणवीर-महियाहि कन्यगारमचकुंद किंकराएहिं सुरबज जुहिया पारिजात-जाव गरेहिं १४३२ सोम कृष्पि मे हिम- मुन्तादामे हि बहुवियहि जिणपय-पंकयजुयलं पुज्जिज्ज सुरिदसममहिये ।४३३ | जंबीर- मोचदाडिम-कवि-स-गालिएरेहि । हिताल-ताल- खज्जूर-लिंबूनार-चारेहिं |४४०| पूईफल- हिंदु- आमलय- जंबु - विल्लाइसुरहिमिट्ठेहि । जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा पक्के ह | ४४१ | - मासती कदम्ब, कर्मकार ( कनेर), चंपक, अशोक, मकुल, तिलक, मन्दार, नागचम्पक, पद्म ( लाल कमल ) उत्पल (नील कमल ) सिंदुवार ( वृक्ष विशेष या निर्गुण्डी ) कर्णवीर (कर्नेर ), मल्लिका, कचनार, मचकुन्द, किंकरात ( अशोक वृक्ष ) देवोंके नन्दन वनमें उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही, पारिजातक, जपाकुसुम और तगर (आदि उत्तम वृक्षोंसे उत्पन्न ) पुष्पोंसे, तथा सुवर्ण चाँदीसे निर्मित फुलोसे और नाना प्रकारके मुलाफोकी माताओंके द्वारा, सौ जासिके इन्होंने पूजित जिनेन्द्रके पद-पकज गुगलको पूजे । ४३१-४३३॥ जंबीर ( नीबू विशेष ) मोच (केला), अनार, केचित्य (कमी या कैंथ) पनस, नारियल हिवाल, साल, खजूर निम्बू, नारंगी, अचार (चिरौंजी ), पूगीफल (सुपारी), तेन्दु, आँवला, जामुन, विवफल आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित मिष्ट और सुमन फलोंसे जिन चरणोंकी पूजा करे ।४४०-४४११ (र... /पं. सदासुख दास / १११ / १७० / १) ।
सा. प./२/२०/११६ पर फुटनोट
है। इससे मन्दिर में नाटिकाएँ होनी चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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के लिए पुष्पोंकी आवश्यकता पड़ती
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