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पूजा
चोदा। पुज्ज विस्था रुपय-सुवण्या
चावलोकने रखे हुए
५. पूजा-विधि ३. भक्ष्य नैवेद्यसे पूजन
५. पूजा-विधि ति प./ १०८ बहुविहरसवंतेहिं वरभक्खेहिं विचित्तरूवेहि । अमय- १. पजाके पाँच अंग होते हैं
सरिच्छेहि सुरा जिणिदपडिमाओ मयंति ।१०८। - ये देवगण बहुत प्रकारके रसोसे संयुक्त, विचित्र रूप वाले और अमृतके सदृश उत्तम र, क.श्रा /पं सदासुख दास/११६/१७३/१५ व्यवहारमें पूजनके पाँच भोज्य पदार्थोंसे (नैवेद्यसे) जिनेन्द्र प्रतिमाओंकी पूजा करते है ।१०८
अंगनिकी प्रवृत्ति देखिये है-आह्वानन १; स्थापना २, संनिधिकरण (ज.प./५/११६)।
३; पूजन ४, विसर्जन । वसु श्रा./४३४-४३५ दहि-दुद्धसप्पिमिस्सेहि कलमभत्ते हि बहुप्पया- २. पजा दिनमें तीन बार करनी चाहिए रेहि। तेवद्वि-विजणेहि य बहुविहपक्कण्णभेएहिं ।४३४। रुप्पय-सुवण्ण
सा. ध /२/२५. भक्त्या ग्रामगृहादिशासन विधा दानं त्रिसन्ध्याश्रया कसाइथालि णिहिए हि विविहभक्खेहि। पुज्ज वित्थारिज्जो भत्तीए
सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चन च यमिना, नित्यप्रदानानुगम् ।२५।- शास्त्रोक्त जिणिदपयपुरओ १४३५॥ म चाँदी, सोना, और कांसे आदिकी
विधिसे गाँव, घर, दुकान आदिका दान देना, अपने घरमे भी अरिथालियोमें रखे हुए दही, दूध और घीसे मिले हुए नाना प्रकारके
हन्तकी तीनों सन्ध्याओमें की जानेवाली तथा मुनियोको भी चावलोके भातसे, तिरेसठ प्रकारके व्यंजनोंसे तथा नाना प्रकारकी
आहार दान देना है बादमें जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा कही जातिवाले पकवानोसे और विविध भक्ष्य पदार्थोंसे भक्तिके साथ
गयी है ॥२५॥ जिनेन्द्र चरणो के सामने पूजन करे।४३४-४३५
३. रात्रिको पूजा करनेका निषेध र. क श्रा/प. सदासुख/११६/१६६/१७ कोई अष्ट प्रकार सामग्री बनाय
चढावै, केई सू का जब, गेहूँ, चना, मक्का, बाजरा, उडद, मूंग, मोठ ला.. स /६/१८७ तत्रार्द्ध रात्रके पूजा न कुर्यादईतामपि । हिंसाहेतोरवश्य इत्यादि चढावै, केई रोटी, राबडी, बावडीके पुष्प, नाना प्रकारके स्याद्रात्रौ पूजाविवर्जनम् ॥१८७१ =आधी रातके समय भगवान हरे फल, तथा दाल-भात अनेक प्रकारके व्यंजन चढावें । केई मेवा, अरहन्त देवकी पूजा नही करनी चाहिए क्योंकि आधी रातके समय मोतिनीके पुष्प, दुग्ध, दही, घी. नाना प्रकारके घेवर, लाडू, पेडा, पूजा करनेसे हिंसा अधिक होती है। रात्रिमें जीवोका संचार अधिक बर्फी, पूडी, पूवा इत्यादि चढावै है ।
होता है, तथा यथोचित रीतिसे जीव दिखाई नहीं पडते, इसलिए
रात्रिमें पूजा करनेका निषेध किया है (र. के. श्रा./पं. सदासुख दास/ ५. सचित्त व अचित्त द्रव्य पूजाका समन्वय
११४/१७१/१)। ति.प/३/२२१...। अमयादो मुहुरेहि णाणाविहदिव्यभक्खे हि ।२२५॥ मो.मा.प्र.६२८०/२ पापका अंश बहुत पुण्य समूह विष दोषके अर्थ ___- अमृतसे भी मधुर दिव्य नैवेद्योसे १२२५। ...
नाहीं, इस छलकरि पूजा प्रभावनादि कार्यनिविर्षे रात्रिविर्षे नि. सा./६७५ दिवफलपुष्फहत्था ॥१७॥ - दिव्य फल पुष्पादि पूजन दीपकादिकरि वा अनन्तकायादिकका संग्रह करि बा अयत्नाचार द्रव्य हस्त विर्षे धारे हैं। (अर्थात-देवोंके द्वारा ग्राह्य फल पुष्प प्रवृत्तिकरि हिंसादिक रूप पाप तौ बहुत उपजावे, अर स्तुति भक्ति दिव्य थे।)
आदि शुभ परिणाम निविर्षे प्रवर्ते नाही,वा थोरे प्रवर्ते,सो टोटा घना र. क. श्रा/पं. सदासुख दास/११६/१७०/8 यहाँ जिनपूजन सचित्त- नफा थोरा वा नफा किङ्ग नाहीं। ऐसा कार्य करनेमे तो बुरा ही द्रव्यनित हूँ अर अचित्त द्रव्यनित हूँ.. करिये है। दो प्रकार आगम
दीखना होय। की आज्ञा-प्रमाण सनातन मार्ग है अपने भावनिके अधीन पुण्यबन्ध- ४. चावलोंमें स्थापना करनेका निषेध के कारण है। यहाँ ऐसा विशेष जानना जो इस दुषमकालमें विकलत्रय जीवनिकी उत्पत्ति बहुत है। तातै ज्ञानी धर्मबुद्धि है
वसु. श्रा./३८५ हूंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए ते तो पक्षपात छांडि जिनेन्द्रका प्ररूपण अहिंसा धर्म ग्रहण करि
कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो ।३८५। - हुंडावसर्पिणी काल में जेता कार्य करो तेता यत्नाचार रूप जीव-विराधना टालि करो
दूसरी असद्भाव स्थापना पूजा नहीं करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंगइस कलिकाल में भगवानका प्ररूपण नय विभाग तो समझे नाहीं...
मतियोसे मोहित इस लोकमें संदेह हो सकता है। (र. क. श्रा./ अपनी कल्पना ही ते यथेष्ट प्रवर्ते है।
पं. सदासुख दास/११६/१७३/७)।
र. क. पा./पं सदासुख दास/११६/१७२/२१ स्थापनाके पक्षपाती स्थापना ६. निर्माल्य द्रव्यके ग्रहणका निषेध
बिना प्रतिमाका पूजन नाहीं करें। बहुरि जो पीत तन्दुलनिकी नि. सा./मू./३२ जिणुद्धारपत्तिट्ठा जिणपूजातित्थवंदग विसयं। धणं
अतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो तिन पक्षपातीनिके धातु पाषाणजो भुजई सो भुजइ जिणदिठ्ठ णरयगयदुवं ।३२२ = श्री जिन
का तदाकार प्रतिबिम्ब स्थापन करना व्यर्थ है। तथा अकृत्रिम
चैल्यालयके प्रतिबिम्ब अनादि निधन है तिनमें ह पूज्यपना मन्दिरका जीर्णोद्धार. जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मन्दिर प्रतिष्ठा, जिनेन्द्र भगवान की पूजा, जिन यात्रा, रथोत्सव और जिन शासनके आय
नाहीं रहा। तनोकी रक्षाके लिए प्रदान किये हुए दानको जो मनुष्य लोभवश ५. स्थापनाके विधि निषेधका समन्वय ग्रहण करे, उससे भविष्यवमें होनेवाले कार्यका विध्वस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करे तो वह मनुष्य नरकगामी महापापी है।
र. क. पा./प.सदासुख/११६/१७३/२४ भावनिके जोडके अर्थि आह्वान
नादिकमें पुष्प क्षेपण करिये है, पुष्पनि ॥ प्रतिमा नहीं जाने । ए तो रा वा /६/२२/४/५२८/२३ चेत्यप्रदेशगन्धमाल्यधूपादिमोषण...अशुभस्य
आह्वाननादिकनिका संकल्प पुष्पांजलि क्षेपण करिये है। पूजनमें नाम्न आस्रव ।
पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले नहीं होय तो नाहीं करें। रा.वा /६/२७/१/५३१/३३ देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण ( अन्तरायस्यास्रवः)। अनेकांतिनिकै सर्वथा पक्ष नाहीं। =१. मन्दिरके गन्ध मान्य धूपादिका चुराना, अशुभ नामकर्मके
१. पूजाके साथ अभिषेक व नृत्य शान आदिका विधान आसवका कारण है। २ देवताके लिए निवेदित किये या अनिवेदित किये गये द्रव्यका ग्रहण अन्तराय कर्मके आस्लवका कारण है। ति. प./८/५८४-५८७ खीरद्धिसलिलपूरिदकंचणकलसेहि अह सह(त सा./४/५६)।
स्से हिं। देवा जिणाभिसेयं महाविभूदीए कुर्वति ॥५८४१ बज्जतेस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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