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पूजा
मद्दल जय टापडहकाहलादीसुं दिव्वेसुं तुरेसु ते तिणपूज पकुति १८ भिंगार कलसप्पणछत्तत्तयचमरपहुदिदव्वेहि । पूज काढूण तदो गधीहि अच्चति ॥ ३८६ तो हरिण राणावियाई दिव्वाई | बहुरसभावजुदाइ णच्चति विचित्त भगीहि १५८७ | उक्त (वैमानिक) देव क्षीरसागर के जलसे पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशोके द्वारा महाविभूतिके साथ जिनाभिषेक करते है ।५८४१ मईल, जयघंटा, पटह और काहल आदिक दिव्य वादित्रो के बजते रहते वे निजको करते हैं । उक्त देव शृंगार कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्योंसे पूजा करके पश्चात् जल, गन्धादिकसे अर्चन करते है |५८६ | तत्पश्चात् हर्ष से देव विचित्र शैलियोसे बहुत रस व भावोसे युक्त दिव्य नाना प्रकारके नाटकोको करते है । उत्तम रहनोसे विभूषित दिव्य कन्याएँ विविध प्रकारके स्वीको करती है । अन्तमें जिनेन्द्र भगवान् के चरितोंका अभिनय करती है । (५/११४), ( ति प / ३ / २१८-२२७), ( ति प /५/१०४-११६); (और भी दे ० पूजा/४/३) ।
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७. द्रव्य व भाव दोनों पूजा करनी योग्य हैं।
अगा / १२ / १५ कुर्वत पूजा जिनाना जिन्ना न विद्यइये लोके दुर्लभ वस्तु पूजितम्॥१२॥ जीता है ससार जिनने ऐसे जिन देवनिक द्रव्य भावकरि दोऊ ही प्रकार पूजा को करता जो पुरुष को इसोक परलोकवि उत्तम वस्तु दुर्लभ नाहीं । ९५० ८. पूजा विधान में विशेष प्रकारका क्रियाकाण्ड
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म पू. ३८ / ०१-०५ रात्रार्चनादिधी पत्र पत्रमान्वित। जिना मभित स्थाप्य समं पुण्याग्निभिस्त्रिभि. 1७१| त्रयोऽग्नयोऽर्ह दुगणवो मे हुतास्ते प्रणेता सिद्वाविध पाया 15. आहुतिर्मन्त्रपूर्वका विधेया विभि ईष्यैः पुंस्त्रोपतिकाम्यया 19 सम्मन्यास्तु यथान्नाम वक्ष्यीऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविभागतः ॥७४॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषा मतो जिने । अव्यामोहादतस्तज्ज्ञै. प्रयोज्यास्त उपासकै ७५ = इस आधान ( गर्भाधान ) क्रियाकी पूजा जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमा दाहिनी ओर तीन चक, बॉयों और तीन छत्र और सामने तीन पवित्र अग्नि स्थापित करें 1991 अर्हन्त भगवान् (तीर्थंकर) निर्वाणके समय, गणधर देवोके निर्वाणके समय और सामान्य केवलियोंके निर्वाणके समय जिन अग्नियो में होम किया गया था ऐसी तीन प्रकारकी पवित्र अग्नियाँ सिद्ध प्रतिमाकी देवीके समीप तैयार करनी चाहिए 1०२ प्रथम ही अर्हत देवकी पूजा कर चुकने के बाद शेष बचे हुए द्रव्यसे पुत्र उत्पन्न होनेकी इच्छाकर मन्त्रपूर्वक उन तीन अग्नियो आवृति करनी चाहिए |७३। उन आहुतियो के मन्त्र पीठिका मन्त्र, जातिमन्त्र आदिके भेद से सात प्रकार के है | ७४| श्री जिनेन्द्र देवने इन्हीं मन्त्रोंका प्रयोग समस्त कियाओं (पूजा विधानादिने माया है। इसलिए उस विषय जानकार श्रावकोको व्यामोह (प्रमाद) छोड़कर उन मन्त्रोका प्रयोग करना चाहिए 1७५ | ( और भी देखो यज्ञमें आर्ष यज्ञ); (म. पु / ४७ / ३४७-३५४) ।
म. ५ / ४०/८०-८१ सियापसिंनिधौ मन्त्रान् जपेदप्टोसरं शतम् । गन्धपुष्पाक्षतार्घादि निवेदनपुर सरम् 1501 सिद्ध विद्यस्ततो मन्त्रैरेभिः कर्म समाचरेत् । शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः ॥८१॥ - सिद्ध भगवान्की प्रतिमाके सामने पहले गन्ध, पुष्प, अक्षत और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार उक्त मन्त्रोंका जप करना चाहिए |०| तदनन्तर जिसे विद्याएँ सिद्ध हो गयी हैं, जो सफेद वस्त्र पहने है, पवित्र है, यज्ञोपवीत धारण किये हुए है, जिसका चित्त आकुलतासे रहित है ऐसा द्विज इन मन्त्रोंसे समस्त क्रियाएँ करे । ८१)
भा० ३-११
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पूज्यपाद ३० अग्नि गार्हपत्य आदि तीन अग्नियका निर्देश व उनका उपयोग ।
९. गृहस्थोंको पूजासे पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए तिलक चम्पू ३२८ स्नानं विधाय विधिवत्कृतदेवकार्य विवेकी पुरुषको स्नान करनेके पश्चात शास्त्रोक्त विधि से ईश्वर भक्ति (पूजाअभिषेकादि) करनी चाहिए। (रा. पं. सदासुख दास / १९६/ १६८/१४) ।
चर्चा समाधानकानं
केवलज्ञानकी साक्षात्पूजा विन्होन नाही. प्रतिमा पूजापूर्वक ही कही है (और भी दे० स्नाम)। पूजाकल्प - दे० पूजापाठ ।
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पूजापाठ जैन आम्नायमें पूजा विधानादि सम्बन्धी कई रचनाएँ प्रसिद्ध है--१० आचार्य पूज्यपाद (१००५) कुछ जैनाभिषेक २. अभयनन्दि ( ई० श० १०-१९) कृत श्रेयोविधान । ३ आ० अभयनन्दि ( ई० श० १०-१९) कृत पूजाकल्प । ४ आ० इन्द्रनन्दि (ई० श० १०-११) कृत अकुरारोपण . ० इन्द्रनन्दि (ई० ० १०-११) कृत प्रतिमासंस्कारारोपण । ६. आ० इन्द्रनन्दि ( ई० श० १०-११ ) कृत मातृका यन्त्र पूजा 1७. आ० इन्द्रनन्दि ( ई० श० १०-११) कृत शान्तिचक्रपूजा । ८ ० नयनन्दि ( ई० ६१३-१०४३) कृत सकल विधि विधान आ० श्रुतसागर (ई० १४४७-१९२३) कृ विक्राक पूजा १० आ० सागर (१० १४८० १५२३) कृत
तस्कन्धा । (eft./8/201 ११. आ० मग्लिषेण ( ई० ११२८ ) द्वारा विरचित ज्वालिनी करप | १२. आ० मक्लिषेण (ई० ११२८) द्वारा विरचित पद्मावती कल्प । १३. आ० मक्लिषेण ( ई० ११२८) द्वारा विरचित वज्रपंजर विधान । १४. प. आशाधर ( ई० ११७३-१२४३) द्वारा रचित जिनयज्ञ कल्प । १५ पं. आशाघर (ई० ११७३ - १२४३) द्वारा रचित नित्यमहोद्योत । १६. आ० पद्मनन्दि ( ई० १२८० - १३३०) कृत कलिकुण्डपार्श्वनाथ विधान । १७. आ० पद्मनन्दि ( ई० १२८०- १३३० ) कृत देवपूजादि । १८. पं. आशाधरके निरयमहोद्योतपर आ० सागर (ई० १४०३१५३३) कृत महाभिषेक टीका । १६. कवि देवी दयाल ( ई० १७५५१७६७) द्वारा भाषामें रचित चौबीसी पाठ । २० कवि वृन्दावन (ई० १७११-१८४८) द्वारा भाषामें रचित चौबीसी पाठ । २१. कवि वृन्दावन ( ई० १७११-१८४८) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित समवसरण पूजापाठ " २२. पं सतलाल ( ई० श० १७-१८) द्वारा भाषा छन्दोमें रचित सिद्धचक्र विधान, जो श्री जिनसेनाचार्य द्वारा महापुराण में रचित जिन सहस्रनामके आधारपर लिखा गया है । २३. प. संतलाल ( ई० श० १०-१० दशलक्षण जग २४. पं. सदासुख (३० २०१३ - १८६३) कृत नित्य पूजा । २५. पं. पन्नालाल ( ई० १७१३-१८६३) कृत हिन्दी भाषामें रचित सरस्वती पूजा २६ प मनरंग लाल (३० १०००) द्वारा रचित भाषा छन्द बद्ध चौबीसी पाठ पूजा । २७ प मनर ग लाल ( ई० १७६३ - १८४३ ) द्वारा रचित सप्तऋद्धिपूजा । पूज्यपाद आप कर्णाटक देशस्थ 'कोले' नामक ग्राम माधय भट्ट नामक एक ब्राह्मणके पुत्र थे । माताका नाम श्रीदेवी था। सर्पके मुँहमें फँसे हुए मेढकको देखकर आपको वैराग्य आया था। आपके सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक इन्तुकथाएँ प्रचलित है। अग्रोक्त शिलालेख के अनुसार आप पाँवमें गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे । श्रवणबेलगोलके निम्न शिलालेख नं० १०८ ( श. सं. ११३५ ) से पता चलता है कि आपके चरण प्रक्षालनके जल के स्पर्शसे लोहा भी सोना बन जाता था जैसे श्रीज्यपादमुनिरप्रतिमोषधिया देहवर्शमात्रः । त्पादस्पर्शर्शप्रभावात्कालायसं किल तदा कनकीचकार । घोर तपश्चरण आदि के
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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