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पूति
पूर्णभद्रकूट
द्वारा आपके नेत्रोकी ज्योति नष्ट हो गयी थी। शान्त्यष्टकके पाठसे वह पुन प्रगट हो गई। आपका असली नाम देवनन्दि है। नन्दिसघ की पट्टावली के अनुसार आप यशोनन्दि के शिष्य है (दे इतिहास ७/३) बुद्धि की प्रखरता से आप जिनेन्द्रबुद्धि और देवों के द्वारा पूजितचरण होने से पूज्यपाद कहलाते थे। आपके द्वारा रचित निम्न कृतियां है -१ जैनेन्द्र व्याकरण, २. मुग्धबोध व्याकरण, ३. शब्दावतार, ४. छन्दशास्त्र, ५ वैद्यसार (वैद्यकशास्त्र), ६ सर्वार्थ सिद्धि, ७ इष्टोपदेश, ८ समाधिशतक, ६. सारसंग्रह, १० जन्माभिषेक, ११ दशभक्ति, १२ शान्त्यष्टक । समय-पट्टावली में श स. २५२-३०८ (वि ३८७-४४३) (दे इतिहास/0/२), कोथवि. ७३५, प्रेमीजी-वि श६, आई.एस पवते-वि. ५२७, मुख्तार साहब-गगराज दुविनीत (वि. ५००-५३५) के गुरु तथा इनके शिष्य वज़नन्दिनन्दि ने वि५२६ में द्रविडसंघ की नीव डाली इसलिये वि श.६, युधिष्ठर मीमासा-जैनेन्द्र व्याकरण में लिखित महेन्द्रराज वि. ४७०-५२२ के गुप्त वशीय चन्द्रगुप्त द्वि० थे इसलिये वि श ५ का अन्त और ६ का पूर्व । प. कैलाशचन्द इससे सहमत है (जै /२/२६२-२६४) डा नेमिचन्द ने इन्हे वि श ६ में स्थापित किया है । (ती./२/२२५)।
पूति-आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४ । पूतिक-वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका ।
-दे० कर्म/११३।
ज्ञा०/२६/४ द्वादशान्तात्समाकृष्य य समीर प्रपूर्यते । स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानको विदै. ४ = द्वादशान्त कहिए तालुवेके छिद्रसे अथवा द्वादशबगुल पर्यन्तसे वैचकर पवनको अपनी इच्छानुसार अपने शरीरमे पूरण क्रै, उसको वायुविज्ञानी पण्डितोने पूरक पवन कहा है।४। * पुरक प्राणायाम सम्बन्धी विषय-दे० प्राणायाम ।
गये। बुद्ध कहते हैं कि वह मरकर अवीचि नरकमें गया। (द, सा./ प्र ३२-३४/प्रेमीजी)।३ द. सा./प्र ५२ पर 4. वामदेव कृत संस्कृतभावसंग्रहका एक निम्नउद्धरण है..... वीरनाथस्थ संसदि ।१८५। जिनेन्द्रस्य ध्वनिग्राहिभाजनाभावतस्तत । शक्रेणात्र समानीतो ब्राह्मणो गोतमाभिध ।१६। सद्य' स दीक्षितस्तत्र सध्वने' पात्रता ययौ। तत देवसभा त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करी मुनि ।१७। सन्त्यस्माददयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिण । तास्त्यक्त्वा सध्वने' पात्रमज्ञानी गोतमोऽभवत १८८० सचिन्त्यैवं क्रुधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम् । मिथ्यात्व कर्मण' पाकादज्ञानत्वं हि देहिनाम् १८४ा हेयोपादेयविज्ञान देहिना नास्ति जातुचित्। तस्मादज्ञानतो मोक्ष इति शास्त्रस्य निश्चय ।११० = वीरनाथ भगवान्के समवशरणमें जब योग्य पात्रके अभावमें दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इन्द्र गोतम नामक ब्राह्मणको ले आये। वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिव्य ध्वनिको धारण करनेकी उसी समय उसमें पात्रता आ गयी, इससे मस्करि-पूरण मुनि सभाको छोडकर बाहर चला आया। यहाँ मेरे जैसे अनेक भूतधारी मुनि है, उन्हे छोडकर दिव्यध्वनिका पात्र अज्ञानी गोतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आ गया। मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीवधारियो को अज्ञान होता है। उसने कहा देहियोको हैयोपादेयका विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता। अतएव शास्त्रका निश्चय है कि अज्ञानसे मोक्ष होता है। पूरणकश्यपका मतउसके मतसे समस्त प्राणी बिना कारण अच्छे-बुरे होते है। संसारमें शक्ति सामर्थ्य आदि पदार्थ नहीं है। जीव अपने अदृष्टके प्रभावसे यहाँ-वहाँ संचार करते है। उन्हे जो सुख-दुख भोगने पडते है, वे सब उनके अदृष्टपर निर्भर है। १४ लाख प्रधान जन्म, ५०० प्रकारके सम्पूर्ण और असम्पूर्ण कर्म, ६२ प्रकारके जीवनपथ, ८ प्रकारकी जन्मकी तहे. ४६०० प्रकारके कर्म, ४६०० भ्रमण करनेवाले संन्यासी, ३००० नरक, और ८४ लाख काल है। इन कालोके भीतर पण्डित और मूर्ख सबके कष्टोंका अन्त हो जाता है। ज्ञानी और पण्डित कर्मके हाथ से छुटकारा नही पा सकते। जन्मकी गतिसे सुख और दुखका परिवर्तन होता है। उनमें ह्रास और वृद्धि होती है । पूरिमद्रव्य निक्षेप-दे० निक्षेप/५/६ । पूर्ण-१. क्षौद्रवर समुद्रका रक्षक व्यन्तरदेव (ति प.)-दे० व्यंतर/४, २ इक्षुवर द्वीपका रक्षक व्यन्तरदेव ( ह. पु.)-दे० व्यंतर/४ । पूर्णधन-प. पु/५श्लोक विजयार्धकी दक्षिण श्रेणी में चक्रवाल
नगरका विद्याधर राजा था। राजा सुलोचनके द्वारा अपनी पुत्री इसको न देकर सगर चक्रवर्तीको दिये जानेपर, इसने राजा सुलोचनको मार दिया। (७७-८०) और स्वयं उसके पुत्र द्वारा मारा गया (८६)। इसीके पुत्र मेघवाहनको राक्षसोके इन्द्र द्वारा राक्षस द्वीपकी प्राप्ति हुई थी, जिसकी सन्तानपरम्परासे राक्षसवंशकी उत्पत्ति हुई-(दे० इतिहास/७/१२)।। पूर्णप्रभ-उत्तर क्षौद्रवर समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव (ति प )-दे०
व्यंतर/४; २. इक्षुवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव (ह. पू.)-दे० व्यंतर/४। पूर्णभद्र-यक्ष जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० यक्ष; २. इन यक्ष जातिके देवोंने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय रावणकी रक्षा की थी। ३ ह.प/४३/१४६-१५८ अयोध्या नगरीके समुद्रदत्त सेठका पुत्र था। अणुव्रत धारण कर सौधर्मस्वर्ग में उत्पन्न हुआ। यह
कृष्णके पुत्र प्रद्युम्नकुमारका पूर्वका पाँचवाँ भव है।-दे० प्रद्य म्न । पूर्णभद्रकूट-१. विजयाध पर्वतस्थ एक कूट - दे० लोक/१/४ ।
२ माल्यवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/४।
पूरण अन्तर पूरणकरण-दे० अन्तरकरण/२। पूरणकाल-दे० काल/१६/२। पूरनकश्यप-पूरन कश्यपका परिचय-१. बौद्धग्रन्थ महापरिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग, औदिव्यावाहन आदिके अनुसार यह महात्मा बुद्धके समकालीन ६ तीर्थ करोमेसे एक थे। एक म्लेच्छ स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कश्यप इनका नाम था। इससे पहले ६६ जन्म धारण करके अब इनका सौवा जन्म हुआ था इसीलिए इनका नाम पूरन कश्यप पड़ गया था। गुरुप्रदत्त नाम द्वारपाल था। वह नाम पसन्द न आया । तब गुरुसे पृथक होकर अकेला वनमे नग्न रहने लगे और अपनेको सर्वज्ञ व अहंत आदि कहने लगे। ५०० व्यक्ति उनके शिष्य हो गये। बौद्धोके अनुसार वह अवीचि नामक नरकके निवासी माने जाते है। सुत्तपिटकके दोघनिकाय (बौद्धग्रन्थ ) के अनुसार वह असम में पाप और सत्कर्म मे पुण्य नहीं मानते थे। कृत कर्मोका फल भविष्यत्में मिलना प्रामाणिक नहीं। बौद्ध मतवाले इसे मखलि गोशाल कहते है। २. श्वेताम्बरीसूत्र 'उवासकदसाग के अनुसार वह श्रावस्तीके अन्तर्गत शरवणके समीप उत्पन्न हुआ था। पिताका नाम 'मखलि' था। एक दिन वर्षामे इसके माता-पिता दोनों एक गोशालमें ठहर गये। उनके पुत्रका नाम उन्होंने गोशाल रखा। अपने स्वामीसे झगडकर वह भागा। स्वामीने वस्त्र खेंचे जिससे वह नग्न हो गया। फिर वह साधु हो गया। उसके हजारो शिष्य हो
पर्णभद्र मान बहुरूपिण
अमन उत्पन्न प्रदान ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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