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पूर्णभद्रदेव
पूर्णभद्रदेव -
विजयार्ध पर्वतस्थ पूर्णभद्र कूटका स्वामी देव ० लोक२/४६२. वनस्य पूर्णभटका रक्षक एक देव - दे० लोक / ५/४ ।
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पूर्णांक - Integar (प. ५/प्र.२८ ) ।
पूर्णिमा - चन्द्रमाके भ्रमण से पूर्णिमा प्रकट होनेका क्रम - ३० ज्योतिषी/२/८ ।
पूर्व कालका प्रमाणविशेष - दे० गणित //१/४ |
पूर्वकृष्टि - दे० कृष्टि
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पूर्वगत -- १. दृष्टि प्रवाद अगका चौथा भेद - दे० श्रुतज्ञान /III/१ ।
२. घ. १/१,१,२/११४/७ पुव्वाण गयं पत्त-पुत्र सरुव वा पुव्वगयमिदि । =जो पूर्वोको प्राप्त हो, अथवा जिसने पूर्वोके स्वरूपको प्राप्त कर लिया हो उसे पूर्वगत कहते है।
पूर्वज्ञान - दे० श्रुतज्ञान / 111/ पूर्वचरहेतु- -दे० हेतु ।
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पूर्वदिशा — पूर्व दिशाकी प्रधानता - दे० दिशा ।
पूर्व मीमांसा - ० दर्शन ।
पूर्ववत् अनुमान दे० अनुमान/१
पूर्वविद् - स. सि./६/२७/४५३ /४ पूर्व विद... श्रुतकेत्र लिन इत्यर्थं । "पूर्व अर्थावली (रा.वा./६/२०/२/६३२/३०) | रा. बा. हि. /६/२७/०४ प्रमत्त अप्रमत्त मुनि भी पूर्व येशा है। पूर्वविदेह - १ सुमेरु पर्वतकी दिशामें स्थित कच्छादि १६ क्षेत्रोको पूर्व विदेश कहते हैं। २. निषेध व नील पर्वतस्थ एक कूट व उसका स्वामी देव - दे० लोक / ७ २ सौमनस गजदन्तस्थ एक कूट व उसका रक्षक देव - दे० लोक / ७ । पूर्व समसज्ञान०/II/ १ पूर्वं स्तुति -
- वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका आहारका एक दोष -- दे० आहार / I 1 /४/४
पूर्व स्पर्धक ० स्क पूर्वांग - -कालका एक प्रमाण विशेष - दे० गणित / I / १/४ पूर्वानुपूर्वी – दे० आनुपूर्वी ।
पूर्वापर संबंध - दे० संबंध
पूर्वाभाद्रपद - एक नक्षत्र - दे० नक्षत्र ।
पूर्वाषाढ एक न० नक्षत्र
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पूषमांडो - भगवान्नेमिनाथकी शासक पक्षी० यक्ष पृच्छनास. सि./६/२५/४४३/४ सशयच्छेदाय निश्चितता धानाय वा परानुयोग पृच्छना । • संशयका उच्छेद करनेके लिए अथवा निश्चित बलको पुष्ट करनेके लिए प्रश्न करना पृच्छना है । (रा. वा / १/२३/२/६२४/१९) (सा./७/१०); ( अन.ध. /०/०४ ); (घ१४/२६.१३/६/३) ।
रा. बा./६/२७/२/६२४/१९ बारमोन्नतिपरातिसंधानीपासर्षप्रहस नादिविवर्जित' संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा ग्रन्थस्या
स्य तदुभयस्य वा परं प्रत्यनुयोग पृच्छनमिति भाव्यते । - आरमो प्रति परातिसम्धान परोपहास संघर्ष और प्रहसन आदि दोषो रहित हो सायद या निर्णयको पृष्टिके लिए ग्रन्थ अर्थ या उभयका दूसरेसे पूछना पृच्छना है। (चासा / १२२ / १)।
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पृथिवी
ध. १/४.१.५५/२६२/८ तत्व आगने अमुरिया वा उपजोगो - आगममे नही जाने हुए अर्थ के विषय पूछना भी उपयोग है। पुच्छनी भाषा ३० भाषा पृच्छाविधि
।
१०/१२/२०/२८५/६ द्रव्य-गुण-पर्यय-विधि
=
निषेधविषयप्रश्न पृच्छा, तस्या. क्रम अक्रमश्च अक्रमप्रायश्चित च विधीयते अस्मिन्निति पृच्यानिधि श्रुतम्। अथमा पृष्टो साविधीयते यतेऽस्मिन्निति पृच्दानिधि एवं पृ विभित्ति गई। विधानं विधि या विधि पृष्ाविधि स विशिष्यतेऽनेनेति विधिविशेष अदाचार्योपाध्यायसाधवोऽनेन प्रकारेण प्रष्टव्या प्रश्नभङ्गाश्च इयन्त एवेति यत सिद्धान्ते निरूप्यन्ते ततस्तस्य पृच्छाविधिविशेष इति संज्ञेत्युक्त भवति । १ द्रव्य गुण और पर्यायके विधि निषेध विषयक प्रश्नका नाम पृच्छा है। उसके क्रम और अक्रमका तथा प्रायश्चित्तका जिसमें fair faया जाता है वह पृच्छा विधि अर्थात् श्रुत है २ अथवा पूछा गया अर्थ पृथ्छा है, वह जिसमे निहित की जाती है अर्थात् कही जाती है वह पृथ्याविधि है। इस प्रकार पृथ्याविधिका क्थन किया। विधान करना विधि है पृच्छाकी विधि विधि है। वह जिसके द्वारा विशेषित की जाती है यह पृथाविधि विशेष है। अरिहन्त आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकारसे पूछे जाने योग्य है तथा श्नोके भेद इतने ही है. ये सब चूँ कि सिद्धान्तमें निरूपित किये जाते है अत उसकी पृच्छा - विधिविशेष यह संज्ञा है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
पृतना - सेनाका एक अंग - दे० सेना ।
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पृथक्त्व
१ अन्याय के अर्थ ।
प्र. सा./त.प्र / १०६ प्रविभक्तप्रदेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । ( भिन्न) प्रदेशत्व पृथक्त्वका लक्षण है । इ.सी./४८/२०३/६ द्रव्यगुणपर्यायाणाभि
पृथक् = द्रव्य, गुण और पर्यायके भिन्नपनेको पृथक्त्व कहते है । २. एकसे नौकेबीचकी गणना
स. सि / २ / ८ / ३४ /४ पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा तिसृणा कोटीनामुपरिनवानामध' । = पृथक्त्व यह आगमिक संज्ञा है। इससे तीन से ऊपर और नौ के नीचे मध्यकी किसी सख्याका बोध होता है ।
• विभक्त
भग्यते ।
शुक्लध्यान ।
पृथक्त्व विक्रिया - दे० विक्रिया । पृथक्त्व वितर्क विचार दे० पृथिवी च पर्वतनिवासिनी कुमारी देवी०३/१३ पृथिवी - यद्यपि लोक में पृथिवीको तत्त्व समझा जाता है, परन्तु जैन दर्शनकारोने इसे भी एकेन्द्रिय स्थावरकी कोटि में गिना है । इसी अवस्था भेदसे उसके कई भेद हो जाते है इसके अतिरिक्त यौगिक अनुष्ठानोमे भी विशेष प्रकारसे पृथिवी मण्डल या पार्थवेयी धारणाकी कल्पना की जाती है। सात नरकोकी सात पृथिवियोके साथ निगोद मिला देनेसे आठ पृथिवियों कही जाती है ( ६०भूमि) सिद्धलोकको भी अष्टम भूमि कहा जाता है ।ता है।
★ पृथिवी सामान्यका लक्षण दे० भूमि / १ ।
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१. पृथिवीके भेद
१. कायिकादि चार भेद ।
ससि /२/११/१०२/३ पृथिव्यादीनामार्षे चातुर्विध्यमुक्त प्रत्येकम् । तत्कथमिति चेत् उच्यते पृथिवीपृथिवीकाय पृथिवीकायिक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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