________________
पृथिवी
पृथिवी
पृथिवीजीव इत्यादि 1-प्रश्न-आर्ष में पृथिवी आदिक अलग-अलग चार प्रकारके कहे हैं. सो ये चार-चार भेद किस प्रकार प्राप्त होते है। उत्तर-पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव ये प्रथिवीके चार भेद है। (रा, वा./२/१३/१/६२७/२२), (गो. जी./ जी.प्र/१८२/४६६/8)।
२. मिट्टी आदि अनेक भेद म. आ./२०६-२०७ पुढवी य बालुगा सक्करा य उबले सिला य लोणे य ।
अय तंव तउ य सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ।२०६। हरिदाले हिगुलए मणोसिला सस्सगजण पवाले या अभपडलग्भवालु य वादरकाया मणिविधीया ।२०७१ गोमझगे य रुजगे अंके फलहे य लोहिदके या चदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकंते य १२०८० गेरुय चदण वव्वग वगमोए तह मसारगल्लो या ते जाण पुढविजीवा जाणित्ता परिहरेदब्बा ।२०।। -१. मिट्टी आदि पृथिवी, २. बालू, ३. तिकोन चौकोन रूप शर्करा, ४. गोल पत्थर, ५ बडा पत्थर, ६. समुद्रादिका लवण (नमक), ७. लोहा, ताँबा, ६. जस्ता, १०. सीसा, ११, चॉदी, १२ सोना. १३. हीरा, १४ हरिताल, १५. इंगुल, १६. मैनसिल, १७ हरार गवाला सस्यक, १८. सुरमा, १६. मूंगा, २०. भोडल (अबरख), २१ चमकतो रेत, २२, गोरोचन वाली कर्केतनमणि, २३. अलसी पुष्पवर्ण राजवर्तकमणि, २४. पुलकवर्णमणि, २५, स्फटिक मणि, २६ पद्मरागमणि, २७. चन्द्रकातमणि, २८ वैडूर्य (नील) मणि, २६. जलकांतमणि, ३०. सूर्यकांत मणि, ३१. गेरूवर्ण रुधिराक्षमणि, ३२ चन्दनगन्धमणि, ३३. विलावके नेत्रसमान मरकतमणि, ३४ पुरवराज, ३५ नीलमणि, तथा ३६. विद्रुमवर्णवाली मणि इस प्रकार पृथिवीके छत्तीस भेद है। इनमें जीवों को जानकर सजीवका त्याग करे ।२०६-२०६। (प.स./प्रा./२/७७), (ध.१/१,१,४२/गा. १४६/ २७२), (त.सा /२/५८-६२): (पं.स./सं./२/१५५); (और भी दे० चित्रा)
भाव', भाविनि भूतवदुपचारतस्तेषामपि तदव्यपदेशोपपत्ते । अथवा पृथिवीकायिकनामकर्मोदयवशीकृताः पृथिवीकायिकाः । - पृथिवी रूप शरीरको पृथिवीकाय कहते है, वह जिनके पाया जाता है उन जीवोको पृथिवीकायिक कहते है। प्रश्न--पृथिवीकायिकका इस प्रकार लक्षण करनेपर कार्मणकाययोगमें स्थित जीवोके पृथिवीकाय पना नही हो सकता। उत्तर-१. यह बात नहीं है, क्यो कि, जिस प्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमे यह हो चुका है इस प्रकार उपचार किया जाता है, उसी प्रकार कार्मणकाय योगमैं स्थित पृथिवीकायिक जीवोके भी पृथिवीकायिक यह संज्ञा बन जाती है। २ अथवा जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयके वशवर्ती है उन्हें पृथिवीकायिक कहते है। ४. प्राणायाम सम्बन्धी पृथिवी मण्डलका लक्षण ज्ञा./२/१९ क्षितिबीजसमाकान्त दूतहेमसमप्रभम् । स्याद्वज्रलाब्छनोपेत चतुरस्र धरापुरम् ॥१६॥ - क्षितिबीज जो पृथ्वी बीजाक्षर सहित गाले हुए सुवर्ण के समान पीतरक्त प्रभा जिसकी और वज्रके चिन्ह संयुक्त चौकोर धरापुर अर्थात पृथिवीमण्डल है। ज्ञा./२६/२४ धोणाविवरमापूर्य किचिदुष्ण पुरंदर.। वहत्यष्टाछुल. स्वस्थ' पीतवर्णः शनै. शनै १२४ - नासिकाके छिद्रको भले प्रकार भरके कुछ उष्णता लिये आठ अंगुल बाहर निकलता, स्वस्थ, चपलता रहित, मन्द-मन्द बहता, ऐसा इन्द्र जिसका स्वामी है ऐसे पृथिवीमण्डलके पवनको जानना ।२४॥ ज्ञर./सा./५७ । चतुष्कोणं अपि पृथिवी श्वेत जल शुद्ध चन्द्राभं ।५७।
- श्वेत जलवत शुद्ध चन्द्रमाके सदृश तथा चतुष्कोण पृथिवी है ।
२. पृथिवीकायिकादि भेदोंके लक्षण स, सि./२/१३/१७२/४ तत्र अचेतना वैश्रसिकपरिणामनिवृत्तिा काठिन्य
गुणात्मिका पृथिवी। अचेतनत्वादसत्यपि पृथिवीनामकर्मोदये प्रथन क्रियोपलक्षित वेयम् । अथवा पृथिवीति सामान्यम्, उत्तरत्रयेऽपि सदभावात् । काय' शरीरम् । पृथिवीकायिकजीवपरित्यक्त' पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकायवत् । पृथिवीकायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिक । तत्कायसंबन्धवशीकृत आत्मा। समवाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदय कार्मण काययोगस्थो यो न तावत्पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति स पृथिवीजीव । अचेतन होनेसे यद्यपि इसमें पृथिवी नामकर्मका उदय नही है तो भी प्रथम कियासे उपलक्षित होनेके कारण अर्थात विस्तार आदि गुणवाली होनेके कारण यह पृथिवी कहलाती है। अथवा पृथिवी यह सामान्य भेद है, क्योकि आगेके तीन भेदोंमें यह पाया जाता है। कायका अर्थ शरीर है, अत. पृथिवीकायिक जीवके द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है। यथा मरे हुए मनुष्य आदिकका शरीर । जिस जीवके पृथिवी रूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते है। तात्पर्य यह है कि यह जीष पृथिवीरूप शरीरके सम्बन्धसे युक्त है। कार्मण योगमें स्थित जिस जीवने जबतक पृथिवीको काय रूपसे ग्रहण नही किया है तबतक वह पृथिवीजीव कहलाता है। (रा. वा./२/१३/१/१२७/ २३); (गो. जी (जी प्र./१८२/४१६/६) । ३. पृथिवीकायिकादिके लक्षणों सम्बन्धी शंकासमाधान ध. १/१,१,३६/२६५/१ पृथिव्येब काय पृथिवीकाय' स एषामस्तीति पृथिवीकायिका । न कामणशरीरमात्रस्थितजीवानां पृथिवीकायत्वा
५. पार्थिवीधारणाका कक्षण ज्ञा./३७/४-६ तिर्यग्लोकसमं योगी स्मरति क्षीरसागरम् । निशब्द
शान्तकल्लोल हारनीहारसंनिभम् ।४। तस्य मध्ये सुनिर्माणं सहस्रदलमम्बुजम् । स्मरत्यमितभादीप्तं द्रुतहेमसमप्रभम् ।। अब्जरागसमुद्भूतकेसरालिविराजितम् । जम्बूद्वीपप्रमाणं च चित्तभ्रमररब्जकम ६। स्वर्णाचलमयी दिव्या तन्न स्मरति कर्णिकाम् । स्फुरत्पिङ्गप्रभाजालपिशगितदिगन्तराम् ।७। शरच्चन्द्रनिभं तस्यामुन्नतं हरिविष्टरम् । तत्रात्मानं सुखासीनं प्रशान्तमिति चिन्तयेत् ।। रागद्वेषादिनि शेषकलङ्कक्षपणक्षमम्। उ क्तं च भवोद्भूतं कर्मसंतानशासने ।।। प्रथम ही योगी तिर्यग्लोकके समान नि.शब्द, कल्लोल रहित, तथा भरफके सदृश सफेद क्षीर समुद्र का ध्यान करे।४। फिर उसके मध्य भागमें सुन्दर है निर्माण जिसका और अमित फैलती हुई दीप्तिसे शोभायमान, पिघले हुए सुवर्ण की आभावाले सहस्र दल कमलका चिन्तवन करे 1५. उस कमलको केसरोकी पंक्तिसे शोभायमान चित्तरूपी भ्रमरको रंजायमान करनेवाले जम्बूद्वीपके बराबर लाख योजनका चितवन करै । तत्पश्चात उस कमलके मध्य स्फुरायमान पीत रंगकी प्रभासे युक्त सुवर्णाचलके समान एक कणिकाका ध्यान करे ।७। उस कर्णिकामें शरद चन्द्र के समान श्वेतवर्ण एक ऊँचा सिहासन चितवन । उसमें अपने आत्मको सुख रूप, शान्त स्वरूप, क्षोभ रहित ८ तथा समस्त कर्मोंका क्षय करने में समर्थ है ऐसा चिन्तवन करै ।हा
६. अन्य सम्बन्धित विषय
१. पृथिवीमें पुद्गलके सर्वगुणोंका अस्तित्व। -दे० पुद्गल/२ । २. अष्टपृथिवी निर्देश।
-दे० भूमि/१॥ ३. मोक्षभूमि वा अष्टम पृथिवी
-~दे० मोक्ष/१। ४. नरक पृथिवी।
-दे० नरक।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org