________________
पूजा
पूजा निर्देश व मूर्ति पूजा
4.वि./१०/४२ नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापस क्षय.।४२।
परमात्माके नाममात्रको कथासे हो अनेक जन्मोके संचित किये पापोका नाश होता है। पं. वि./६/१४ प्रपश्यन्ति जिन भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ।१४। -जो भव्य प्राणी भक्तिसे जिन भगवानका पूजन, दर्शन और स्तुति करते है वे तीनो लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुतिके योग्य हो जाते है अर्थात स्वयं भी परमात्मा बन जाते है। सा. ध./२/३२ दृक्पूतमपि यष्टारमह तोऽभ्युदयश्रियः। श्रयन्त्यहम्पूर्वि
कया, कि पुनर्ब तभूषितम् ॥३२॥ अहंन्त भगवान्की पूजाके माहात्म्यसे सम्यग्दर्शनसे पवित्र भी पूजकको पूजा, माज्ञा, आदि उत्कर्षकारक सम्पत्तियाँ 'मै पहले, मै पहले', इस प्रकार ईर्ष्यासे प्राप्त होती है, फिर व्रत सहित व्यक्तिका तो कहना ही क्या है ।३२॥ दे० धर्म/5/8 ( दान, पूजा आदि सम्पक व्यवहारधर्म कर्मोंकी निर्जरा तथा परम्परा मोक्षका कारण है।)
सर्व पूजाकी पुस्तकों में अष्टाह्निकपूजा "सवौषडाहूय निवेश्य ठाभ्या सानिध्यमनीय वषड्पदेन । श्रीपञ्चमेरुस्थजिनालयानां यजाम्यशीतिप्रतिमाः समस्ता आहूय सवौषडिति प्रणीत्य ताभ्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान् । वषड् पदेनैव च संनिधाय नन्दीश्वरद्वीपजिनान्समर्च ।। ='सवौषट्' पदके द्वारा बुलाकर, 'ठ' 8' पदके द्वारा ठहराकर, तथा 'वषट्' पदके द्वारा अपने निकट करके पाँचो मेरुपर्वतोपर स्थित अस्सी चैत्यालयों की समस्त प्रतिमाओकी मै पूजा करता हूँ।१। इसी प्रकार 'सवौषट्' पदके द्वारा बुलाकर, 'ठ'ठ.' पदके द्वारा ठहराकर, तथा 'वषट् के द्वारा अपने निकट करके हम नन्दीश्वरद्वीपके जिनेन्द्रोंकी पूजा करते है।
३. पूजामें अन्तरंग मावोंकी प्रधानता ध.१/४,१,१/८/७ ण ताव जिणो सगवदणाए परिणयाण चेव जीवाणं पावस्स पणासओ, वीयरायत्तस्साभावप्पसगादो। " परिसेसत्तणेण जिणपरिणयभावी च पावपणासओ त्ति इच्छियव्यो, अण्णहा कम्मक्खयाणुववत्तीदो। -जिन देव वन्दन जीवोंके पापके बिनाशक नही है, क्योकि ऐसा होनेपर वीतरागताके अभावका प्रसंग आवेगा। ""तब पारिशेष रूपसे जिन परिणत भाव और जिनगुण परिणामको पापका विनाशक स्वीकार करना चाहिए।
४. जिनपूजाका फल निर्जरा व मोक्ष भ. आ./भू./७४६,७५० एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गई णिवारेण । पुण्णाणि य पूरेदु आसिद्धि पर परसुहाण ७४६। बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमभएण विणा। आराधणमिच्छन्तो आराधणभत्तिमरतो।७५० - अकेली जिनभक्ति ही दुर्गतिका नाश करनेमें समर्थ है, इससे विपुल पुण्यकी प्राप्ति होती है और मोक्षप्राप्ति होने तक इससे इन्द्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिन्द्रपद और तीर्थकरपदके सुखोकी प्राप्ति होती है १७४६ आराधना रूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धि रूप फल चाहता है वह प्ररुष बीजके बिना धान्य प्राप्तिकी इच्छा रखता है, अथवा मेघके बिना जलवृष्टिकी इच्छा करता है ।७५०1 (भ.आ./मू./७५३), (र.सा/१२-१४); (भा.पा./ टी./८/१३२ पर उदधृत), (वसु.श्रा /४८६-४६३)। भा पा./मू /१५३ जिणवरचरण बुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते
जम्मवेलिमूलं खणं ति वरभावसत्येण ।१५३। =जे पुरुष परम भक्तिसे जिनवरके चरणकू नमें है ते श्रेष्ठ भावरूप शस्त्रकरि संसाररूप वेलि
का जो मूल मिथ्यात्व आदिकर्म ताहि सणे है । म् आ /५०६ अरहतणमोकारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्वं पावदि अचिरेण कालेण १५०६। -जो विवेकी जीव भावपूर्वक अहरन्तको नमस्कार करता है वह अति शीघ समस्त दु खोसे मुक्त हो जाता है।५०६ (क.पा.१/१/गा.२/8), (प्र.सा/
ता.व./७६/९०० पर उद्धृत)। क. पा.१/9/8/२ अरहतणमोकारो संपयिबंधादो असंखेनगुणकम्मक्ख
यकारओ त्ति । -अरहन्त नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म निर्जराका कारण है। (ध. १०/४,२,४,६६/२८६/४)। घ.६/१,६-६,२२/गा.१/४२८ दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकजरम।
शतधा भेदमायाति गिरिर्वबहतो यथा। ध. ६/१.६-६,२२/४२७/६ जिणविबदसणेण णिवत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। -जिनेन्द्रों के दर्शनसे पाप सघात रूपी कुजरके सौ टुकडे हो जाते है, जिस प्रकार कि बज्रके आघातसे पर्वतके सौ टुकड़े हो जाते है ।। जिन बिम्बके दर्शनसे निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलापका क्षय देखा जाता है।
१. एक जिन या जिनालयकी वन्दनासे सबकी वन्दना
हो जाती है क. पा १/१,१/१८७/११२/५ अणं तेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो।"एगजिणवदणाफलेण समाणफलत्तादो सेसजिणवदणा फलवता तदो सेसजिणवंदणासु अहियफलाणुवलेभादो एक्कस्स चेव वंदणा कायव्वा, अणं तेसु जिणेसु अक्रमेण छदुमत्थुपजोगपडतीए विसेसरूवाए असंभवादो वा एकस्सेव जिणस्स बंदणा कायब्वा त्ति ण एसो वि एयंतग्गहो कायव्वी; एयंतावहारणस्स सव्वहा दुग्णयत्तप्पसंगादो। एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे सभी जिन या जिनालयकी वन्दना हो जाती है। प्रश्नएक जिनकी वन्दनाका जितना फल है शेष जिनोकी बन्दनाका भी उतना ही फल होनेसे शेष ज़िनोकी वन्दना करना सफल नहीं है। अत: शेष जिनोकी वन्दनामें फल अधिक नहीं होनेके कारण एक ही जिनकी वन्दना करनी चाहिए । अथवा अनन्त जिनोमें छद्मस्थके उपयोगकी एक साथ विशेषरूप प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिए भी एक जिनकी वन्दना करनी चाहिए। उत्तर-इस प्रकारका एकान्ताग्रह भी नही करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकारका निश्चय करना दुर्नय है। २. एककी वन्दनासे सबकी वन्दना कैसे होती है क.पा/१/१,१/८६-८७/१११-११२/५ एक्कजिण-जिणालय-बदणा ण
कम्मवयं कुणइ, सेसजिण-जिणालय-चासण. 18८६ ण ताव परखवाओ अत्थि; एक्कं चैव जिणं जिणालयं वा वंदामि त्ति णियमाभावादो। ण च सेसजिणजिणालयाणं णियमेण वदणा ण कया चेवः अणतणाण-दसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्त मावण्णेसु अणतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो । ८७
प्रश्न-एक जिन या जिनालयकी वन्दना कर्मोका क्षय नहीं कर सकती है, क्योकि इससे शेष जिन और जिनालयोकी आसादना होती है ! उत्तर-एक जिन या जिनालयकी वन्दना करनेसे पक्षपात तो होता नहीं है, क्योकि वन्दना करनेवालेके 'मै एक जिन या जिनालयकी वन्दना करूगा अन्यकी नही' ऐसा प्रतिज्ञा रूप नियम नहीं पाया जाता है। तथा वन्दना करनेवालेने शेष जिन
और जिनालयोकी वन्दना नहीं की ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योकि अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदिके द्वारा अनन्त जिन एकत्वको प्राप्त है। इसलिए उनमें गुणों की अपेक्षा कोई भेद नहीं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org