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मरण
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१. भेद व लक्षण
व्यवहार निपुणो व्यवहारपण्डित , अथवानेकशास्त्रज्ञ शुश्रषादिबुद्धिगुणमन्वित व्यवहारपण्डित क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनौपमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणत दर्शनपण्डित । मत्यादिपञ्चप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु परिणत ज्ञानपण्डित । सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहार विशुद्धिसूक्ष्मसाम्परायययाख्यातचारित्रेषु कस्मिश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपण्डित'।
अज्ञानी जीवके मरणका बालमरण कहते है। वह पाँच प्रकारका है-अव्यक्त, व्यवहार, ज्ञान, दर्शन व चारित्रमालमरण । धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थीको जानता नहीं तथा उनका आचरण करने में जिसका शरीर असमर्थ है वह अव्यक्तबाल है । लोकव्यवहार, वेदका ज्ञान, शास्त्रज्ञान, जिसको नहीं है वह व्यवहारबाल है। तत्त्वार्थ श्रद्धान रहित मिथ्यादृष्टि जोव दर्शनबाल है। जीवादि पदार्थीका यथार्थ ज्ञान जिनको नहीं है वे ज्ञानबाल है। चारित्रहीन प्राणीको चारित्रबाल कहते है। दर्शनबालमरण दो प्रकारका है-- इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त । अग्नि, धूम, विष, पानी, गिरिप्रपात, विरुवाहारसेवन इत्यादि द्वारा इच्छापूर्वक जीवन का त्याग इच्छा प्रवृत्त दर्शनबाल मरण है। और योग्य कालमें या अकालमे ही मरनेके अभिप्रायसे रहित या जीने की इच्छासहित दर्शनबालोका जो मरण होता है वह अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण है। पण्डितमरण चार प्रकारका है-व्यवहार, सम्यक्त्व, ज्ञान व चारित्रपण्डित मरण । लोक, वेद, समय इनके व्यवहारमे जो निपुण है वे व्यवहारपण्डित है, अथवा जो अनेक शास्त्रोके जानकार तथा शुश्रूषा, श्रवण, धारणादि बुद्धिके गुणोसे युक्त है, उनको व्यवहारपण्डित कहते है। क्षायिक, क्षापोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनसे जीव दर्शनपण्डित होता है । मति आदि पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञानसे जो परिणत हे उनको ज्ञानपण्डित कहते है। सामायिक छेदोपस्थापना आदि पाँच प्रकार चारित्रके धारक चारित्रपण्डित है। (भा पा./टी./३२/ १४७/२०)।
५. अन्य भेदोंके लक्षण भ. आ/वि./२५/८७/१३ यो यादृश मरणं साप्रतमुपैति ताडगेब मरण
यदि भविष्यति तदवधिभरणम् । तद्विविध देशावधिमरणं सर्वावधिमरगम् इति । यदायुर्यथाभूतमुदेति सप्रित प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैस्तथानुभूतमेवायु प्रकृत्यादिविशिष्ट पुनर्बध्नाति उदेष्यति च यदि तत्सविधिमरणम् । यत्साप्रतमुदेत्यायुर्यथाभूत तथाभूतमेत्र बध्नाति देशतो यदि तइदेशावधिमरणम् । • साप्रतेन भरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यन्तमरण उच्यते, आदिशब्देन साप्रतं प्राथमिक मरणमुच्यते तस्य अन्तो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरण तदेतदाद्यन्तमरणम् अभिधीयते । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूत साप्रतमुपैति मृति यथाभूर्ता यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यन्तमरणम् । भ आ/वि /२५/०८/१२ निर्वाणमार्गप्रस्थितात्सयतसार्थान्द्यो हीन प्रच्युत सोऽभिधीयते ओसण्ण इति । तस्य मरणमासण्णमरण मिति । ओसणप्रणेन पार्श्वस्था, स्वच्छन्दा, कुशीलाः, ससक्ताश्च गृह्यन्ते। सशल्यमरण द्विविधं यतो द्विविध शक्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति। द्रव्यशल्येन सह मरणं पञ्चानां स्थावराणां भवति असंज्ञिना प्रसानां च । • भावशल्यविनिर्मुत द्रव्यशल्यमपेक्षते। एतच्च संयते, सयतासयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति । • बिन यवैयावृयादाबकृतादर ध्याननमस्कारादे पलायते अनुपयुक्ततया, एतस्य मरण बलायमरण । सम्यक्त्वपण्डिते, ज्ञानपपण्डिते, चरणपपण्डिते च बलायमरणमपि स भवति । ओमण्ण मरण ससल्लमरण 'च पद भिहित तत्र नियमेन बलायमरणम् । तद्वयतिरिक्तमपि बलायमरण भवति । बसट्टमरण नाम-आर्ते रौद्रे च प्रवर्तमानस्य मरण । तत्पुनर्चतुर्विधइदियवसट्टमरण, यदेणावसट्टमरण, कसायवसट्टमरण, नोकसायवसट्टमरणम् इति । इदियवसट्टमरण यत्पञ्चविध इन्द्रियविषयापेक्षया
मनोज्ञेषु रक्तोऽमनोज्ञषु द्विष्ठो मृनमेति ।. इति इन्द्रियानिन्द्रियवशातभरणविकल्पा । वेदणावसट्टमरण विभेदं समासत' । सातवेदनावशात मरणं असातवेतनावशार्तमरण । शारीरे मानसे वा दुखे उपयुक्तस्य मरण दुखवशार्तमरण मुच्यते तथा शारीरे मानसे व मुखे उपयुक्तस्य मरण सातवशार्तमरणम् । कषायभेदात्कषायवशात मरणं चतुर्विध भवति । अनुबन्धरोषो स आत्मनि परत्र उभयत्र वा मरणबशोऽपि मरणवठा भवति । तस्य क्रोधवशात मरण भवति ।... हास्यरत्यरति...मूढमतेमरणं नोकषायवशात मरणं। मिथ्यादृष्टेरेत
बालमरणं भवति । दर्शनपण्डितोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टि' संयतासंयतोऽपि वशात मरणमुपेति तस्य तद्बालपण्डितं भवति दर्शनपण्डित का । अप्रतिषिः अननुज्ञाते च हें मरणे । विपाणस गिद्धपुट्ठमितिसंज्ञिते । दुर्भिक्षे, कान्तारे.. दुष्टनृपभये...तिर्य गुपसर्गे एकाकिनः सोमशक्ये ब्रह्मवतनाशादिचारित्रदूषणे च जाते संविग्न' पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोद्रुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासत्युपाये.. न वेदनामसक्लिष्ट सोढ उत्सहेच ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिम मेति निश्चितमतिनिर्मायश्चरणदर्शन विशुद्ध · ज्ञानसहायोऽनिदान' अर्हदन्तिके, आलोचनामासाद्य कृतशुद्धि , सुलेश्यः प्राणापाननिरोध करोति यत्तद्विप्पाणसं मरणमुच्यते । शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तदगिद्धपुट्ठमिति । जो प्राणी जिस तरहका मरण वर्तमानकालमे प्राप्त करता है, वैसा ही मरण यदि आगे भी उसको प्राप्त होगा तो ऐसे मरणको अवधिमरण कहते है। यह दो प्रकारका है- सर्वावधि व देशावधि । प्रकृति स्थिति अनुभव व प्रदेशोसहित जो आयु वर्तमान समयमें जेसी उदयमें आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बॅधकर उदयमें आवेगी तो उसको सर्वावधिमरण कहते है। यदि वही आयु आशिकरूपसे सदृश होकर बंधे व उदयमें आवेगी तो उसको देशावधि मरण कहते है । यदि वर्तमानकालके मरण या प्रकृत्यादिके सदृश उदय पुन' आगामी कालमे नही आवेगा, तो उसे आद्यन्तमरण कहते है। मोक्षमार्गमे स्थित मुनियोका सघ जिसने छोड दिया है ऐसे पार्श्वस्थ. स्वच्छन्द, कुशील बस सक्त साधु अवसन्न कहलाते है। उनका मरण अवसन्नमरण है। सशल्य मरणके दो भेद है-द्रव्यशल्य व भावशल्य । तहाँ माया मिथ्या आदि भावोको भाषशल्य और उनके कारणभूत कर्मोको द्रव्यशल्य कहते है। भावशल्यकी जिनमे सम्भावना नहीं है, ऐसे पाँचो स्थावरोव असज्ञी त्रसोके मरणको द्रव्यशल्यमरण कहते है। भावशल्यमरण संयत, संयतासयत व अविरत सम्यग्दृष्टिको होता है। विनय वैयावृत्त्य आदि कार्यों में आदर न रखनेवाले तथा इसी प्रकार सर्व कृतिकर्म, बत, समिति आदि, धर्मध्यान व नमरकारादिसे दूर भागनेवाले मुनिके मरणको पलायमरण या बलाकामरण कहते है। सम्यवत्वपण्डित, ज्ञानपण्डित व चारित्रपण्डित ऐसे लोक इस मरणसे मरते है। अन्यके सिवाय अन्य भी इस मरणसे मरते है। आर्त रौद्र भावोयुक्त मरना वशात मरण है। यह चार प्रकार है---इन्द्रियवशात, वेदनावशात, कषायवशात और नोकषायवशात । पाँच इन्द्रियोके पाँच विषयोकी अपेक्षा इन्द्रियवशात पाँच प्रकारका है। मनोहर विषयोमें आसक्त होकर और अमनोहर विषयो में द्विष्ट होकर जो मरण होता है वह श्रोत्र आदि इन्द्रियो व मन सम्बन्धी वशात मरण है। शारीरिक व मानसिक सुखोमे अथवा दु खोमे अनुरक्त होकर मरनेसे वेदनावशात सात व अमातके भेदसे दो प्रकारका है। कषायोके क्रोधादि भेदोंकी अपेक्षा कषायवशात चार प्रकारका है। स्वत मे दूसरे में अथवा दोनों में उत्पन्न हुए क्रोधके वश मरना क्रोधकषायवशात है। (इसी प्रकार आठ मदोके वश मरना मानवशार्त है, पाँच प्रकारकी मायासे मरना मायावशात और पर पदार्थोमे ममत्वके वश मरना लोभवशात है)। हास्य रति अरति आदिसे जिसकी बुद्धि मूढ हो गयी है ऐसे व्यक्ति का मरण नोकषायवशात मरण है। इस मरणको बालमरणमें अन्तर्भूत कर सकते है। दर्शनपण्डित, अविरतसम्यग्दृष्टि और
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-३६
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