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मरन
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संयतासंयत जीव भी वशात मरणको प्राप्त हो सकते है। उनका यह मरण बालपण्डित मरण अथवा दर्शनपण्डित मरण समझना चाहिए। विप्राणस व गृद्धपृष्ठ नामके दोनों मरणोका न तो आगम में निषेध है और न अनुज्ञा । दुष्काल में अथवा दुल्लंघ्य जंगल में, दुष्ट राजा के भयसे, तिपादिके उपसर्ग में एकाकी स्वयं सहन करनेको समर्थन होनेसे मानतके नाशसे चारित्रमें दोष लगनेका प्रसंग आया हो तो ससारभीरु व्यक्ति कर्मोंका उदय उपस्थित हुआ जानकर जब उसको सहन करनेमें अपनेको समर्थ नहीं पाता है, और न ही उसको पार करनेका कोई उपाय सोच पाता है, तब 'वेदनाको सहने से परिणामों में क्लेश होगा और उसके कारण रत्नप्रयकी आराधनासे निश्चय ही मैं च्युत हो जाऊँगा ऐसी निश्चल मतिको धारते हुए, निष्कपट होकर चारित्र और दर्शन में निष्कपटता धारण कर धैर्य युक्त होता हुआ, ज्ञानका सहाय लेकर निदान रहित होता हुआ अन्त भगवादके समीप आलोचना करके विशुद्ध होता है । निर्मल लेश्याधारी वह व्यक्ति अपने श्वासोच्छवासका निरोध करता हुआ प्राण त्याग करता है। ऐसे मरणको विप्राणसमरण कहते हैं। उपर्युक्त कारण उपस्थित होनेपर शस्त्र ग्रहण करके जो प्राण त्याग किया जाता है वह गृद्धपृष्ठमरण है (भा.पा./टी./३२/१४०/११)।
२. मरण निर्देश
1. आयुका क्षय ही वास्तविक मरण है
घ. १/१.१.२६/२६२/१० न सावज्जीवशरीरयोवियोगमरणम् ।-आगम
जीव और शरीर वियोगको मरण नहीं कहा गया है। ( अथवापूर्णरूपेण वियोग ही मरण है एकदेश वियोग नहीं और इस प्रकार समुद्रात आदिको मरण नहीं कह सकते। - दे० आहारक १३/५१ अथवा नारकियोंके शरीरका भस्मीभूत हो जाना मात्र उनका मरण नहीं है, बल्कि उनके आयु कर्मका क्षय हो वास्तव में मरण है- दे० मरण /४/३)।
२. चारों गतियों में मरणके लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग घ. ६/१,१-१००६-२४३/४००/२२ विशेषार्थ सूत्रकार तमल आचार्यने भिन्न-भिन्न गतियोंसे छूटने के अर्थ में सम्भवत गतियोंकी होनता म उत्तमता के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया है । दे० सूल सूत्र - ७३-२४३) नरकगति व भवनप्रियदेवगति हीन है. अतएव उनसे निकलनेके लिए उन अर्थात् उद्धार होना कहा है। तियंच और मनुष्य गतियाँ सामान्य है, अतएव उनसे निकलनेके लिए काल करना शब्दका प्रयोग किया है। और सौधर्मादिक विमानवासियों की गति उत्तम है, अतएव बहाँसे निकलनेके लिए च्युत होना शब्दका प्रयोग किया गया है। जहाँ देवगति सामान्य से लिमेका उल्लेख किया गया है वहाँ भवनत्रिक व सौधर्मादिक दोनोंकी अपेक्षा करके 'उर्तित और च्युत' इन दोनों शब्दोंका प्रयोग किया गया है ।
३. पण्डित व बाळ आदि मरणोंकी इश्ता अनिष्टता भ.आ./मू./२८/११२ पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चैव ।
दाणि तिणि मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसंति 125 पण्डितपण्डित पण्डित व बालपण्डित इन तीन मरणोकी जिनेन्द्रदेव प्रशंसा करते हैं।
सू. आ. १६९ मरणे निराधिदं देवदुग्गई दुलहा व फिर वोही संसारो य अतो होइ पुणो आगमे काले । ६१ । मरण समय सम्यक्त्व बादि गुणोकी विराधना करनेवाले दुर्गतियोंको प्राप्त होते हुए अनन्त संसारमें भ्रमण करते हैं, क्योंकि रत्नत्रयकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । ३० मरण /१/४ (विप्राणस व गृद्धमरणका आगममें न निषेध है और न अनुज्ञा । )
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३. गुणस्थानों आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
१. आयुषन्ध व भरणमें परस्पर गुण स्थान सम्बन्धी घ. ८/३.०४/१४५ / ४ जैन गुगेणाउबंधी संभनदितेणेव गुणेण मरविण अण्णगुणेणेति परमगुरूवदेसादो। ण उवसामगेहि अणेयंतो, सम्मत्तगुणेण आउघाविरोहिणा णिस्सरणे विरोहाभावांदो -१. जिस गुणस्थानके साथ आयुमन्ध संभव है उसी गुणस्थानके साथ जीन मरता है ( . ४/९.५.४६/३६३/३) २ अन्य गुणस्थानके साथ नहीं (अर्थात जिस गतिमें जिस गुणस्थान में आयुकर्मका बन्ध नहीं होता, उस गुणस्थान सहित उस गतिले निर्गमन भी नहीं होता(ध. ६/४६३/-) इस नियम में उपशामकोंके साथ अनैकान्तिक दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, आयु बन्धके अविरोधी सम्यक्त्व गुणडे साथ निकनेमें कोई विरोध नहीं है। (ध. ६/१.११.११०/४६२/८ ) । २. निम्न स्थानों में मरण सम्भव नहीं गो.क./मू./२६०-२६१/०६२ मिस्साहारस्समा लगना चयमापढमपुमा व परमया तमतमगुडपडणा य ण मरति । जोजिदमिच्छेत्ततं तु गरिथ मरणं तु क
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जादु सव्वपरट्ठाण अट्ठपदा | ५६१| - आहारक मिश्र काययोगी, चारित्रमोह क्षपक, उपशमश्रेणी आरोहण में अपूर्वकरणके प्रथम भागवाले प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि, सप्तमपृथिवीका नारकी सम्यग्दृष्टि, अनन्तानुबन्धी विसंयोजन के अन्त मुहूर्त कालपर्यन्त तथा कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि इन जीवोंका मरण नहीं होता है।
२. सासादन गुणस्थानमें मरण सम्बन्धी
ध. १/११/०३/२२४/२ नापि मद्धनरकायुक्त, सासादनं प्रतिपद्य नार केषुत्पद्यते तस्य तस्मिन्गुणे मरणाभावाच । नरक आयुका जिसने पहले बन्ध कर लिया है, ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होता ( विशेष दे० जन्म / ४ / ९ ) क्योंकि ऐसे जीवकासासादन सहित मरण ही नहीं होता।
घ. ६/१४/३३१/२ बासानं पुक गदो जदि मरचि ण सक्को णिरयगदि तिरिखखगदि मणुसर्गादि वा गंतुं, णियमा देवगर्दि गच्छदि ।... हंदि तिसु आउएस एक्केण वि बधेण ण सक्को कसाए उवसामैर्दु, तेण कारणेण णिरयतिरिक्ख मणुसगदीओ पण गच्छदि । - द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव) सासादनको प्राप्त होकर यदि मरता है तो नरक तिथंच व मनुष्य इन तीन गतियोंको प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं होता है । नियमसे देवगतिको ही प्राप्त करता है । क्योंकि इन तीन आयुओंमेंसे एक भी आयुका बन्ध हो जानेके पश्चात जीव कायोंको उपमानेके लिए समर्थ नहीं होता है। इ कारण वह इन तीनों गतियोंको प्राप्त नहीं करता है । ( दूसरी मान्यता के अनुसार ऐसे जीव सासादन गुणस्थानको ही प्राप्त नहीं होते दे० सासादन) । (ल. सा /मू./३४१-३५०/४३९ ) । गो.४८०१८/१८ सासादना भूत्वा प्राग्बद्धदेवायुष्का मृत्या अनदानुष्का' केचिदेवायुर्मध्वा च देवनियमिसासावना' स्यु' (पूर्वोक्त द्वितीयोपशम सम्ययमसे सासादनको प्राप्त होनेमाता जीव) सासादनको प्राप्त होकर यदि पहले ही देवायुका बन्ध कर चुका है तो मरकर अन्यथा कोई-कोई जिन्होंने पहले कोई आयु नहीं बाँधी है, जब देवायुको साँधकर देवगतिमें उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार निवृत देवोंमें सासादन गुणस्थान होता है। ४. मिश्र गुणस्थान में मरणके अभाव सम्बन्धी
३. गुणस्थानों आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
ध. ४/१,५,१७/गा. ३३/३४९ णय मरह णेव संजमुवेह तह देससंजमं बाधि । सम्मामिच्यादिट्ठी मरणं समुग्धादो ॥१३॥ सम्य मिध्यादृष्टि जीवन तो मरता है और न मारणान्तिक समुदात ही करता है (गो. जी./मू./२४/४१)। 1
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