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मरण
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३. गुणस्थानों आदिमें मरण सम्बन्धी नियम
ध.१/१,६,३४/३१/२ जो जीवो सम्मादिठी होदूण आउअ बंधिय
सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जदि, सो सम्मत्तेणेब णिप्फददि। अह मिच्छादिट्ठी होदूण आउअ बधिय सम्मामिच्छत्तं पडिवजदि, सो मिच्छतेणेव णिप्फददि। जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आयुको बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, वह सम्यवन्व के साथ ही उस गतिसे निकलता है। अथवा जो मिथ्यावृष्टि होकर और आयुको बाँधकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्वके साथ ही निकलता है। (गो. जी/मू /२३-२४/४८), (गो क./जी प्र./४५६/६०५/३)। घ.८/३,८४/१४५/२ सम्मामिच्छत्तगुणेण जीवा किरण मरंति । तत्था. उस्स बंधाभावादो। - सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें क्योकि आयुका बन्ध नहीं होता है, इसलिए वहाँ मरण भी नहीं होता है। (और
भी दे० मरण/३/१)। गो. जी /जी. प्र /२४/४६/१३ अन्येषामाचार्याणामभिप्रायेण नियमो नास्ति। - अन्य किन्ही आचार्यों के अभिप्रायसे यह नियम नहीं है, कि वह जीव आयुबन्धके समयवाले गुणस्थानमें ही आकर मरे। अर्थात् सम्यक्त्व व मिथ्यात्व किसी भी गूणस्थानको प्राप्त होकर मर सकता है।
दोनो प्रकृतियों का बन्ध व्युच्छिन्न नहीं हो जाता है (अर्थात अपूर्वकरणके प्रथम भागमें ) तबतक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयतोका मरण नहीं होता है। (और भी दे०/मरण/३/२); (गो. जी./जी.प्र। ५११४८/१३)। ध. १३/५,४.३१/१३०/८ उवसमसेडीदो ओदिण्णस्स उवसमसम्माइट्ठस्स भरणे सते वि उवसमसमत्तेण अंतोमुहत्तमच्छिद्रण चेव वेदगसम्मत्सस्स गमणुवलं भादो। - उपशम श्रेणीसे उतरे हुए उपशम सम्यग्दृष्टिका यद्यपि मरण होता है, तो भी यह जीव उपशम सम्यक्रवके साथ अन्तर्मुहर्तकाल तक रहकर ही वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होता है । (दे० सभ्यग्दर्शन/IV/३/४)। गो. जी./मू.व जी प्र./७३१/१३२५ विदियुवसमसम्म सेढीदोदिण्णि
अविरदादिसु सगसगलेस्सामरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे १७३९। बद्धदेवायुष्कादन्यस्य उपशमश्रेण्या मरणाभावात् । - उपशमश्रेणीसे नीचे उतरकर असं यतादिक गुणस्थानों में अपनी-अपनी लेश्या सहित मरें तो अपर्याप्त असयत देव ही होता है, क्योंकि, देवायुके बन्धसे अन्य किसी भी ऐसे जीवका उपशमश्रेणीमें मरण नही होता है।
५. प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मरणके अभाव सम्बन्धी क. पा. सुत्त/१०/गा, ६७/६३१ उवसामगो च सव्वो णिव्याघादो।
-दर्शनमोहके उपशामक सर्व ही जीव नियोधात होते है, अर्थात् उपसर्गादिके आनेपर भी विच्छेद या मरणसे रहित होते है। (ध.६/१६-८,६/गा. ४/२३९); (ल सा / /१६/१३६), (दे. मरण/३/२) घ.१/१,१.१७१/४०७/८ मिथ्यादृष्टय उपात्तीपशमिकसम्यग्दर्शना .. सन्त... तेषां तेन सह मरणाभावात् । --मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शनको ग्रहण करके (वहाँ देवगतिमें उत्पन्न नहीं होते) क्योंकि उनका उस सम्यग्दर्शन सहित मरण नहीं होता। (ध २/१,१/४३०/७), (गो. जी./जी.प्र/६९५/११३१/१५) ।
६. अनन्तानुबन्धी विसंयोजनके मरणाभाव सम्बन्धी पं सं/प्रा./४/१०३ आवलियमेत कालं अणं तबधीण होइ णो उदओ। अंतोमुत्तमरण मिच्छत्त दसणापत्ते ११०३। जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है, उसको एक आवलीमात्र काल तक अनन्तानुबन्धी कषायोका उदय नहीं होता है । ऐसा मिथ्यादृष्टिका अर्थात् सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवका
अन्तर्मुहूर्त काल तक मरण नही होता है। क. पा २-२२/६ ११६/१०१/६ अंतोमुहुत्तेण विणा संजुत्त विदियसमए
चेव मरणाभावादो। अनन्तानुबन्धीका पुनः सयोजन होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना दूसरे समयमे हो मरण नहीं होता है। (क. पा. २/२-२२/११२५/१०८/३), (गो. क./म् /५६१/७६३) ।
७. उपशम श्रेणी में मरण सम्बन्धी रा. वा/१०/१/३/६४०/७ सर्वमोहप्रकृत्युपशमात् उपशान्तवायव्यपदेशभाग्भवति। आयुष' क्षयात म्रियते। -मोहकी सई प्रकृतियोका उपशम हो जानेपर उपशान्तकषाय सज्ञावाला होता है। आयुका
क्षय होनेपर वह मरणको भी प्राप्त हो जाता है। ध. २/१,१/४३०/८ चारित्तमोहउक्सामगा मदा देवेसु उववज्जति । am चारित्रमोहका उपशम करनेवाले जीव मरते है तो देवो में उत्पन्न
होते है। (ल. सा./मू./३०८/३६०)। ध ४/१.५,२२/३५२/७ अपुवकरणमढमसमयादो जाव णिहापयलाणं बंधो ण वोच्छिज्जदि ताव अपुबकरणार्ण मरणाभावा। -अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समयसे लेकर जबतक निद्रा और प्रचला, इन
6. कृतकृत्यवेदकमें मरण सम्बन्धी ध६/१,६-८,१२/२६३/१ कदकरणिज्जकालभंतरे तस्स मरणपि होज्ज । ___ कृतकृत्यवेदककालके भीतर उसका मरण भी होता है। क.पा, २/२-२२/६२४२/२१५/६ जइ वसहाइरियस्स वे उवएसा । तत्थ
कदकरणिज्जो ण मरदि त्ति उवदेसमस्सिद्रण एवं सुत्त कदं।.. 'पढ़मसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमा देवेसु उववज्जदि। जदि णेरइएमु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा अंतोमुत्तकदकरणिज्जो' त्ति जइवसहाइरियपरूविदपुण्णिसुत्तादो। णवरि, उच्चारणाइरियउवएसेण पुण कदकरणिज्जो ण मरइ चेवेति णियमो णत्थि । क.पा./पु. २/२-२२/३२४४/२१७/८ मिच्छतं ख विय सम्मामिच्छत्तं खवेता ण मरदि त्ति कुदो णव्वदे। एदम्हादो चेव मुत्तादो।
यतिवृषभाचार्यके दो उपदेश है। उनमें से कृतकृत्य बेदक जीव मरण नहीं करता है इस सूत्रका आश्रय लेकर यह सुत्र प्रवृत्त हुआ है। कृतकृत्य वेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवोमें उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी, तिथंच और मनुष्यो में उत्पन्न होता है, वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है।' यतिवृषभके इस सूत्रसे जाना जाता है कि कृतकृत्यवेदक जीव मरता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नही ही मरता है, ऐसा कोई नियम नही है। प्रश्न--'मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करनेवाला जीव नही मरता यह कैसे जाना जाता है , उत्तर--इसी
सूत्रसे जाना जाता है। दे० मरण/३/२ (दर्शनमोहका क्षय करनेवाला यावत् कृतकृत्यवेदक रहता है तावत् मरण नही करता।)
१. नरकगतिमें मरण समयके लेश्या व गुणस्थान ति प./२/२६४ किण्हाय णीलकाऊणुदयादो बंधिऊण गिरयाऊ । मरिऊण ताहि जुत्तो पावइणिरयं महाघोरं २६४-कृष्ण नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओका उदय होनेसे नरकायुको बाँधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओसे युक्त होकर महा भयानक नरकको प्राप्त करता है। गो. क /मू./५३६/६४८ तत्थतणविरदसम्मो मिस्सो मणुवदुगमुच्चयं 'णियमा । बंधदि गुणपडिवण्णा मरंति मिच्छेव तत्थ भवा । - तत्रतन अर्थात् सातवीं नरक पृथिवीमें सासादन, मिश्र व असंयतगुणरथान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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