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भोग
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भोगोपभोग
= समस्त भोगान्तराय कर्मके क्षयसे अतिशयवाले क्षायिक अनन्त भोगका प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमबृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तर यके नष्ट हो जानेसे अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती है । (रा. वा./२/४/४-५/१०६/३)। *क्षायिक भोग-उपभोग विषयक शंका-समाधान
-दे० दान/२/३। २. मोग व काममें अन्तर आ./११३८ कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया/११३८/-रस
और स्पर्श तो काम है, और गन्ध, रूप, शब्द भोग है ऐसा कहा है। (स.सा/ता, वृ/४/११/१५)। दे. इन्द्रिय/३/७ दो इन्द्रियोके विषय काम है तीन इन्द्रियोके विषय भोग हैं।
३. मोग व उपभोगमें अन्तर रा.पा./८/१३/१/५८१/२ भोगोपभोगयोर बिशेष । कुत' । सुखानुभवननिमित्तत्वाभेदादिति, तन्न: कि कारणम् ।.. गन्धमाक्यशिरास्नानवस्त्रानपानादिषु भोगव्यवहार १११ शयनासनाङ्गनाहस्त्यश्वरथ्यादिधूपभोगव्यपदेश' । प्रश्न-भोग और उपभोग दोनो सुखानुभवमे निमित्त होने के कारण अभेद है। उत्तर-नही, क्योकि एक बार भोगे जानेवाले गन्ध, माला, स्नान, वस्त्र और पान आदिमे भोग व्यवहार तथा शय्या, आसन, स्त्री, हाथी, रथ, घोडा आदिमें उपभोग व्यवहार होता है।
४ निश्चय व्यवहार भोक्ता-भोग्य भाव निर्देश द्र.सं/मू / बवहारासुहदुक्रव पुग्गलकम्मप्फलं पजे दि । आदा णिच्छयणयदो चेदणभाव खु आदस्स 18!= व्यवहार नयसे आत्मा सुख-दुख रूप पुदगल कर्मोके फलका भोक्ता है और निश्चयनयसे अपने चेतन भावको भोगता है। दे, भोक्ता/१ निश्चयनयसे कर्मोसे सम्पादित मुख व दुख परिणामोका भोक्ता है, व्यवहारसे शुभाशुभ कर्मोंमे उपाजित इष्टानिष्ट विषयोका भोक्ता है।
५. अभेद मोक्ता योग्य भावका मतार्थ पं.का./ता / २७/६१/११ भोक्तवध्यारण्यान कर्ता कर्मफलं न भुक्तं
इति बौद्धमतानुमारि शिष्यप्रतिबोधनार्थ । कर्म के करनेवाला स्वयं उसका फल नही भोगता है ऐसा माननेवाले नौद्ध मतानुयायी शिष्यके प्रतिबोधनार्थ जीवके भोगतापनेका व्याख्यान किया है ।
१. भेदाभेद भोक्ता-मोग्य भावका समन्वय पं.का./त प्र./६८ यथात्रोभयनयाभ्यां कर्मकत', तथै केनापि नयेन न
भोक्तृ । कुतः। चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात् । ततश्चेतनत्वात केवल एब जोव कर्मफलभूताना कथचिदात्मन सुरवदु ख परिणामाना कथचिदिष्टानिष्ट विषयाणा भोक्ता प्रसिद्ध इति । जिस प्रकार यहाँ दोनों नयोसे कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नयसे वह भोक्ता नहीं है। किसलिए-क्यो कि उसे चैतन्य पूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नही है। इसलिए चेतनपने के कारण मात्र जीव ही कर्मफलका-कथ चित आत्माके सुख-दु ख परिणामोका और कथंचित् इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता प्रसिद्ध है।
७. लोकिक व अलौकिक दोनों भोग एका में होते हैं नि सा./मू /१५७ लधुण णिहि एक्को तस्स फल अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहि भंजेइ चइत्त परतत्ति ।१५७१ = जैसे कोई एक
(दरिद्र मनुष्य) निधिको पाकर अपने वतनमें ( गुप्तरूपसे) रहकर उसके फलको भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी परजनो के समूहको छोड
कर ज्ञाननिधिको भोगता है। नि सा./ता वृ./१५७/२६८ अस्मिन् लोके लौकिक कश्चिदेको लब्ध्या
पुण्यात्काञ्चनाना समूहम् । गूढो भूत्वा वत ते त्यक्तसङ्गो, ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षा करोति ।२६८- इस लोकमे कोई एक लौकिक जन पुण्यके कारण धन के समूहको पाकर, सगको छोड गुप्त होकर रहता है, उसीकी भाँति ज्ञानी (परके संगको छोडकर गुप्त रूपसे रहकर) ज्ञानकी रक्षा करता है ।२६८। * अन्य सम्बन्धित विषय * जीव पर पदार्थोंका भोक्ता कब कहलाता है -दे० चेतना/३। * सम्यग्दृष्टिके भोग सम्बन्धी
-दे० राग/६। * लौकिक भोगोका तिरस्कार
-दे० सुख। * ऊपर ऊपरके स्त्रों में भोगोंकी हीनता -दे० देव/IT/२। * चक्रवतीके दशाग भोग
-दे० शलाका पुरुष/२। भोग पत्नी-दे० स्त्री। भोगभूमि-दे० भूमि। भोगमालिनी-मान्यवान् गजदन्तस्थ रजत कूटकी स्वामिनी
देवी-दे० लोक/७। भोगान्तराय कर्म-दे० अन्तराय/१ । भोगावती-१ गन्धमादन पर्वतके लोहिताक्ष कूट की स्वामिनी दिक्कुमारी देवी-दे० लोक/91 २. माल्यवान् गजदन्तस्थ सागर कूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/७ ! भोगोपभोग
मोगोपमोग परिमाण व्रत र. क. श्रा/८२, ८४ अक्षार्थाना परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणं ।
अर्थवतामप्यवधौ रागरतीना तनू कृतये ।।२।राग रति आदि भावों को घटानेके लिए परिग्रह परिमाण व्रतकी की हुई मर्यादामे भी प्रयोजनभूत इन्द्रियके विषयोका प्रतिदिन परिमाण कर लेना सो भोगोपभोपपरिमाण नामा गुणव्रत कहा जाता है ।८२। ( सा ध./
१३)। स सि./७/२१/३६९/६ तयो परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् ।
यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवर्तन कर्तव्य काल नियमेन यावज्जीव वा यथाशक्ति' - इनका (भोग व उपभोगका) परिमाण करना उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत है। यान, वाहन और आभरण आदिमे हमारे लिए इतना ही इष्ट है, शेष सब अनिष्ट है इस प्रकारका विचार करके कुछ काल के लिए या जीवन भर के लिए शक्त्यनुसार जो अपने लिये अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए। (रा. बा./७/२१/१०/५४८/१४, २७/५५०/६), (चा. सा.) २४/१), (पु. सि. उ/१६५); (और भी दे० आगे रा. वा )। रा.वा./७/२१/२७/५५०/७ न हि असत्यभिसन्धिनियमे वतमिति । इष्टानामपि चित्रबस्त्रविकृतवेषाभरणादीनामनुपसेव्याना परित्यागः कार्य यावज्जीवम् । अथ न शक्तिरस्ति कालपरिच्छेदेन वस्तु परिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्यम् । जो विचित्र प्रकार के वस्त्र विकृतवेष आभरण आदि शिष्ट जनोके उपसव्य-धारण करने लायक नहीं है वे अपनेको अच्छे भी लगते हो तब भी उनका यावत् जीवन परित्याग कर देना चाहिए। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समयकी मर्यादासे अमुक वस्तुओका परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिए। (चा सा /२१/१)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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