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परिग्रह
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४ बाह्य परिग्रहकी कथंचित मुख्यता व गौणता
नि सा //७५ चागो वैरग विणा एद दो बारिया भणिया ७॥
- वैराग्यके बिना त्याग विडम्बना मात्र है ।। ६. बाह्य त्यागमें अन्तरगकी ही प्रधानता है स सा/मू /२०७ को णाम भणिज्ज बुहो परदव्य मम इम हवदि दव्य ।
अध्याणमप्पणो परिगह तु णियद वियाणतो।२०७१ अपने आत्माको ही नियमसे पर द्रव्य जानता हुआ कौन सा ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है ।२०७१ ( स.सा./न./३४)। स.सा/आ./२०७-२१३ कुतो ज्ञान: परद्रव्य न गृह.णातोति चेत् । ।
आत्मानमात्मन परिग्रह नियमेन विजानाति, ततो न ममेद स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्य न परिगृह्णाति १२०७। इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भाव', अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म ( अधर्म, अशनं. पानम् २-११-२१३ ) नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्म (आदि) परिग्रहो नास्ति। स.सा /आ.२८५-२८६ यदैव निमित्तभूत द्रव्य प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदेव ने मित्तिकभूत भावं प्रतिकामति च यदा तु भाव प्रतिकामति प्रत्या चष्टे च तदा साक्षादकर्तव स्यात् ।२८३ समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्त। स सा आ /२६५ किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेध । अध्यवसानप्रतिषेधार्थ । भाव प्रत्याचष्टे ।२०६।-प्रश्न-ज्ञानी परको क्यो ग्रहण नहीं करता । उत्तर-आत्माको हो नियमसे आत्माका परिग्रह जानता है, इसलिए 'यह मेरा' 'स्व' नहीं है. मै इसका स्वामी नही हूँ' ऐसा जानता हुआ परद्रव्यका परिग्रह नहीं करता।२०७१ २. इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है जिसके इच्छा नही है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है, और अज्ञानमयभाव ज्ञानीके नही होता है। इसलिए अज्ञानमय भावरूप इच्छाके अभाव होनेसे ज्ञानी धर्मको, (अधर्मको, अशनको, पानको) नही चाहता, इसलिए ज्ञानीके धर्मादिका परिग्रह नही है ।२१०-२१३। ३. जब निमित्तरूप परद्रव्यका प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करता है, तब उसके नै मित्तिक रागादि भावोका भी प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान हो जाता है, तब वह साक्षात अकर्ता ही है ।२८। समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान करता है ।२८६१ ४. अध्यवसान के प्रतिषेधार्थ ही बाह्यवस्तुका प्रतिषेध है। प्र. सा/त प्र/२२० उपविधीयमान प्रतिषेधोऽन्तरगच्छेदप्रतिषेध एव
स्यात् ।-किया जानेवाला उपधिका निषेध अन्तरंग छेदका ही निषेध है। का अ 'मू /३८७ बाहिरगविहीणा दलिद्द मावा सहावदो होति ।
अब्भतर-गथ पुण ण सक्कदेको विछ डेदु ।३८७१- बाह्य परिग्रहसे रहित दरिद्रो मनुष्य तो स्वभावसे ही होते है, किन्तु अन्तर ग परिग्रहको छाडनेमे कोई भी समर्थ नहीं होता।३८७।
२. बाह्य त्यागके बिना अन्तरग त्याग अशक्य है भ आ मू./११२० जह कुडओ ण सक्को सोधेदं तंदुलस्स सतुसस्स । तह
जीवत्स ण सका मोहमल सगसत्तस्स।११२०/- ऊपरका छिलका निकाले बिना चावलका अन्तर गमल नष्ट नहीं होता। वैसे बाह्य परिग्रह रूप मल जिसके आत्मामें उत्पन्न हुआ है, ऐसे जात्माका कर्ममल नष्ट होना अशक्य है ।११२०। (प्र.सा/त.प्र /२२०) (अन.ध/४/१०५)। प्र.सा.मू /२२० णहि हिरवेक्खो चागो ण हव दि भिवरखुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कह णु कम्मरवओ बिहिओ।२२०॥ -यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षुके भावकी विशुद्धि नहीं होती;
और जो भावमे अविशुद्ध है उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ।२२०॥ भा पा.मू /३ भावविमुद्धि णिमित्तं बाहिरगथस्स कीरए चाओ । बाह्य
परिग्रहका त्याग भाव विशुद्धिके अर्थ किया जाता है। क पा./१/१,१/शा ५०/१०४ सक्क परिहरियव्व असक्कगिजम्मि णिम्ममा समणा । तम्हा हिसायदणे अपरिहरं ते कथमहिसा ।५०-साधुजन जो त्याग करनेके लिए शक्य होता है उसके त्याग करनेका प्रयत्न करते है. और जो त्याग करनेके लिए अशक्य होता है उससे निर्मम होकर रहते है, इसलिए त्याग करनेके लिए शक्य भी हिसायतनके परिहार नहीं करनेपर अहिसा कैसे हो सकती है, अर्थात नहीं हो सक्ती ॥५०॥ स.सा/आ /२८४-२८७ यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्राति न प्रत्याचष्टे च तावन्नै मित्तिकभूत भाव न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिकामति न प्रत्याचष्टे तावरकर्तव स्यात् ।२८४-२८५ समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्यचक्षाणस्तन्निमित्तक भाव न प्रत्याचष्टे १२८६-२८७१%१. जब तक उसके (आत्माके ) निमित्तभूत परद्रव्यके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है तब तक उसके रागादि भावोका अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, और जब तक रागादि भावोका अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, तब तक रागादि भावोका कर्ता ही है ।२८४-२८५४ समस्त पर द्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा
उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नही त्यागता २०६-२८७१ ज्ञा /१६/२६-२७/१८० अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्व वा सुराचल । न पुन सगसंकीर्णो मुनिस्यात्संवृतेन्द्रियः ।२६। बाह्यानपि च य' सङ्गान्परित्यक्तुमनीश्वर' । स क्लीन कर्मणा सैन्य क्थमग्रे हनिष्यति ।२७१ - कदाचित् सूर्य अपना स्थान छोड दे और सुमेरु पर्वत स्थिरता छोड़ दे तो सम्भव है, परन्तु परिग्रह सहित मुनि कदापि जितेन्द्रिय नही हो सकता ।२६। जो पुरुष बाह्यके भी परिग्रहको छोडनेमें असमर्थ है वह नपुंसक आगे कर्मोकी सेनाको कैसे हनेगा ।।२७। रा.वा /हि /8/४६/७६६ बाह्य परिग्रहका सद्भाव होय तो अम्यन्तरके ग्रन्थका अभाव होय नहो। जात विषयका ग्रहण तो कार्य है और मुर्छा ताका कारण है। जो बाह्य परिग्रह ग्रहण कर है सो मूर्धा तो कर है। सो जाका मूर्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रहका ग्रहण कदाचित् नही होयगा।
३. बाह्य पदार्थोंका आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न
४ बाह्य परिग्रहकी कथचित् मुख्यता व गौणता
१. बाह्य परिग्रहको ग्रन्थ कहना उपचार है ध.१/४,१,६७/३२३/६ वध खेत्तादोणं भावगथसण्णा। कारणे कज्जोक्यारादो। व्यवहारणय पड़च्च खेत्तादी गथो, अन्भ तरगथकारणत्तादो एदस्स परिहरण णिग थत्त । -प्रश्न-क्षेत्रादिको भावग्रन्थ स ज्ञा कैसे हो सकती है। उत्तर-कारण मे कार्य का उपचार करनेसे क्षेत्रादिकोकी भावग्रन्थ सज्ञा बन जाता है। व्यवहारनयकी अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्य है, क्योकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण है, और इनका त्याग करनेसे नियन्यता है।
स.सा /मू /२६५ वत्थु पडुच्च ज पुण अज्झवसाण तु होइ जीवाण । ण य वत्युदो दु बधो अज्झवसाणेण बधोत्थि ।२६।-जीवो के जो अध्यवसान होता है वह वस्तुको अवलम्बन कर होता है तथापि वस्तुसे बन्ध नही होता, अध्यवसानसे ही बन्ध होता है ।२६। ( क.पा १,/
गा ५१।१०५) ( दे राग./५/३)। प्रसा/मू/२२१ किध तम्हि णस्थि मुच्छा आर भो वा असजमो तस्स । तध परदवम्मि रदो कधमप्पाण पसाधयदि । उपधिके सद्भावमें उस भिक्षुके मूर्छा, आरम्भ या असयम न हो, यह कैसे हो सक्ता
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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