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________________ परिग्रह ५. बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय है। (कदापि नही हो सकता) तथा जो पर द्रव्यमे रत हो वह आत्माको कैसे साध सकता है । ४. बाय परिग्रह सर्वदा बन्धका कारण है प्र सा /मू ।२१६ हपदि व ण हव दि बन्दो मम्हि जीवेऽध काय चेटम्हि । बधो धुबमुबंधोदो इदिसमणा छढिया सव्व ।२१। -(साधुके ) काय चेष्टा पूर्वक जीवके मरनेपर बन्ध होता है अथवा नही हाता, (किन्तु) उपधिसे-परिग्रहसे निश्चय ही बन्ध होता है। इसलिए श्रमणोने ( सर्व ज्ञदेवने ) सर्व परिग्रहको छोडा है ।२१६॥ ५. बाह्याभ्यन्तर परिग्रह समन्वय १. दोनोंमे परस्पर अविनाभावीपना भ.आ./मू /१६१५-१६१६ अब्भतरसोधीए गथे णियमेग बाहिरे च यदि । अब्भतरमइलो चेव बाहिरे गेण्हदि हू गथे ।१६१५॥ अभतर सोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण । अब्भतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे ११६१६। अन्तर गशुद्धिसे बाह्यपरिग्रहका नियमसे त्याग होता है। अभ्यन्तर अशुद्ध परिणामोसे ही वचन और शरीरसे दोषोकी उत्पत्ति होती है। अन्तर गशुद्धि हानेसे बहिर गशुद्धि भी नियमपूर्वक होती है। यदि अन्तर गपरिणाम मलिन होगे तो मनुष्य शरीर और वचनोसे अवश्य दोष उत्पन्न करेगा ।१६१५-- प्र सा./त प्र./२१६ उपधे, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्ध्य देकान्तिकाशुद्रोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमै कान्तिकमेव अतएव चापरैरप्यन्तरगच्छेदवत्तदनन्तरीयकत्वान्प्रागेव सर्व एवोपाधि प्रतिषेध्य ।२।= परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोगके बिना नही होता, ऐसा जो परिग्रहका सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होनेवाले एकान्तिक अशुद्धोपयोगके सद्भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बन्ध रूप है, इसलिए उसे छेद ऐकान्तिक ही है। इसलिए दूसरोको भी, अन्तरंगछेद की भॉति प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योकि वह अन्तर ग छेदके बिना नही होता । (प्रसा./त प्र/२२१), (दे० परिग्रह/४/३,४)। २. बाह्य परिग्रहके ग्रहणमे इच्छाका सद्भाव सिद्ध होता है स. सा./आ /२२०-२२३/क. १५१ ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचित किचित्तथाप्युच्यते, मक्षेत न जातु मे यदि पर दुर्भुक्त एवासि भो.। बन्ध. स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते, ज्ञान सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध वम् । =हे ज्ञानी । तुझे कभी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है तथापि यदि तू यह कहे कि "परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मै उसे भोगता हूँ" तो तुझसे कहा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगने वाला है, जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है, यह महा खेदकी बात है । यदि तू कहे कि "सिद्धान्तमे यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बंध नही होता इसलिए भोगता हूँ" तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है तू ज्ञानरूप होकर निवास कर, अन्यथा ( यदि भोगनेकी इच्छा करेगा) तू निश्चयत अपराधसे बन्धको प्राप्त होगा। ३. बाह्यपरिग्रह दुःख व इच्छाका कारण है भ. आ./मू./१६१४ जह पत्थरो पडतो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंक । खोभेइ पसंत पि कसाय जीवस्स तह गंथो ।१६१४। जैसे ह्रदमें पाषाण पडनेसे तलभागमें दबा हुआ भी कीचड क्षुब्ध होकर ऊपर आता है वैसे परिग्रह जीवके प्रशान्त कषायोको भी प्रगट करते है । १६१४। (भ. आ./मू /१६१२-१६१३) । कुरल/३१/१ मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यकिचित परिमुञ्च ति। तदुत्पन्नमहादु खान्निजात्मा तेन रक्षित ११ = मनुष्यने जो वस्तु छोड दी है उमसे पैदा होने वाले दुःखसे उसने अपनेको मुक्त कर लिया है ।। प प्र/मू /१०८ पर जाणतु वि परम मुणि पर-संसग्गु चयति । परसग: परमप्पयह लक्खह जेण चलति ।१०८ परम मनि उत्कृष्ट आत्म द्रव्यको जानते हुए भी परद्रव्यको छोड़ देते है, क्योकि परद्रव्य के ससर्गसे ध्यान करने योग्य जो परमपद उससे चलायमान हो जाते है ।१०। ज्ञा /१६/२० अणुमात्रादपि ग्रन्थान्मोहनन्थि ढीभवेत । विसर्पति ततस्तृष्णा यस्या विश्व न शान्तये ।२० = अणुमात्र परिग्रहके रखनेसे मोहकर्मको ग्रन्थि दृढ होती है और इससे तृष्णाकी ऐसी वृद्धि हो जाती है कि उसकी शान्तिके लिए समस्त लोककी सम्पत्तिसे भी पूरा नही पडता है ।२०॥ ४. इच्छा ही परिग्रह ग्रहणका कारण है भ. आ./मू./११२१ रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवाणि य उदिण्णा । तो तझ्या घेत्तुं जे गथे बुद्धी णरो कुणइ ।११२१। राग, लोभ और मोह जब मनमें उत्पन्न होते है तब इस आत्मामे बाह्यपरिग्रह ग्रहण करनेकी बुद्धि होती है ।११२१॥ (भ आ /मू /१६१२)। ५. भाकिचन्य मावनासे परिग्रहका त्याग होता है स, सा./आ./२८६-२८७ अध कर्मादीन पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आरमकार्यत्वाभावात, ततोऽधकर्मोदेशिकं च पुद्गलद्रव्य न मम कार्य नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात, इति तत्त्वज्ञानपूर्वक पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूत प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बधसाधक भाव प्रत्याचष्टे । = अध कर्म आदि पुद्गलद्रव्यके दोषोको आत्मा वास्तवमे नही करता क्योकि वे परद्रव्यके परिणाम है इसलिए उन्हे आत्माके कार्यत्वका अभाव है, इसीलिए अध'कर्म और औद्देशिक पुद्गलकर्म मेरा कार्य नहीं है क्योकि वह नित्य अचेतन है इसलिए उसको मेरे कार्यत्वका अभाव है," इस प्रकार तत्त्वज्ञान पूर्वक निमित्त भूत पुद्गल द्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा जैसे ने मित्तिक भूत बन्ध साधक भावका प्रत्याख्यान करता है। यो, सा. अ/६/३० स्वरूपमात्मनो भाव्यं परद्रव्यजिहासया। न जहाति परद्रव्यमात्मरूपाभिभावक ३० -विद्वानोंको चाहिए कि परपदार्थोके त्यागकी इच्छासे आत्माके स्वरूपकी भावना क्रै, क्योकि जो पुरुष आत्माके स्वरूपकी पर्वा नहीं करते वे परद्रव्यका त्याग कही कर सकते है ।३० सामायिक पाठ अमितगति/२४ न सन्ति बाह्या मम किचनार्था', भवामि तेषा न कदाचनाहं। इत्थं विनिश्चिन्त्य विमुच्य बाह्य स्वस्थ सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै ।२४। ='किचित् भी बाह्य पदार्थ मेरा नहीं है, और न मै कभी इनका हो सकता हूँ,' ऐसा विचार कर हे भद्र । बाह्यको छोड और मुक्ति के लिए स्वस्थ हो जा ।२४। अन, ध/४/१०६ परिमुच्य करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भ । त्याज्य ग्रन्थमशेष त्यक्त्वापरनिर्मम स्वशर्म भजेत् ।१०६। - इन्द्रिय विषय रूपी मरीचिकाको छोडकर, समस्त आरम्भादिकको छोडकर, समस्त गृहिणी आदि बाह्य परिग्रहको छोडकर तथा शरीरादिक परिग्रहोके विषयमें निर्मम होकर-'ये मेरे है। इस स कल्पको छोड़कर साधुआँको निजात्मस्वरूपसे उत्पन्न सुखका सेवन करना चाहिए।१०६। ६. अभ्यन्तर त्यागमें सर्व बाह्य त्याग अन्तर्भूत है स. सा./आ /४०४/क २३६ उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत, तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मन. संहृतसर्वशक्तेः, पूर्णस्य संधारणमात्मनीह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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