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परिग्रह संज्ञा
२३जसने सर्वयोको समेट लिया है अपने होन कर लिया है ) ऐसे पूर्ण आत्माका आत्मामें धारण करना सोही सब छोड़ने योग्य सब छोड़ा है, और ग्रहण करने योग्य ग्रहण किया है ।२३६०
७. परिग्रह त्याग व्रतका प्रयोजन रा.वा./१/२६/१०/६२५/१४ निःसङ्गत्वं निर्भयत्वं जीविताशाव्युदास दोषोच्छेदो मोक्षमार्ग भावनापरत्वमित्येवमाद्यय व्युत्सर्गोऽभिधीयते द्विविध' । =नि स गत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग दोषोच्छेद और मोक्षमार्ग भावनातत्परत्व आदिके लिए दोनो प्रकारका व्युत्सर्ग करना अत्यावश्यक है ।
८. निश्चय व्यवहार परिग्रहका नयार्थ
घ. ६/४,१.३०/३२३/७ महारणय पद्म सेवादी गयी. उन्मदरगंधकारणत्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथन्त । णिच्छयणयं पडुच मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसि परिचागो णिग्ग थत्त । इगमगरण तिरयणाणुवजोगी बज्झन्भतरपरिग्गहपरिचाओ णिग्गथन्त | = व्यवहार नयकी अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ है, क्योंकि, वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण हैं, और इनका व्याग करना निर्ग्रन्थता है । निश्चयrयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ है, क्योकि वे कर्म के कारण है और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । नैगमनयकी अपेक्षा तो रत्नत्रयमें उपयोगी पडने वाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग है, उसे निर्मन्यता समझना चाहिए।
परिग्रह संज्ञा - दे० संज्ञा ।
परिग्रहानंदी रौद्रध्यान दे० रौद्रध्यान । परिग्राहकी क्रिया दे०किया/३/२ परिचारक
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भ.आ./मू./६४७,६४८,६०९ पिययम्मा दिवसमा सामभीरुणो धीरा । छंदहू पचया पच्चक्खाणम्मिय विदण्डू | ६४७॥ कप्पाप्पे कृसत्ता समाधिमुजरा सुदरहस्सा गौवा भया अड दालीस तू जिया ४८ जो जारिओ कालो भरदेरायदे होइ वासेसु । ते तारिसया तदिया चोद्दालीसं पि णिज्जवया । ६७९ । - जिनका धर्मपर गाढ प्रेम है और जो स्वयं धर्ममे स्थिर है। संसारसे और पापी जो हमेशा भक्त है। धैर्यमा और पकने अभिप्रायको जाननेवाले है, प्रत्याख्यानके ज्ञाता ऐसे परिचारक क्षपककी शुश्रूषा करने योग्य माने गये है । ६४७॥ ये आहारपानादिक पदार्थ योग्य है, इनका ज्ञान परिचारकोको होना आवश्यक है। क्षपकका चित्त समाधान करनेवाले, प्रायश्चित्त ग्रन्थको जाननेवाले, आगमज्ञ, स्वयं और परका उद्धार करनेमें कुशल, तथा जिनकी जगमें कीर्ति है ऐसे परिचायक यति है । ६४८। भरक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्रमें समस्त देशोमे जो जैसा काल वर्तता है, उसके अनुसार नियपक समझना चाहिए।६०१
* सहलेखनागत क्षपककी सेवामें परिचारकों की संख्याका नियम - दे० सल्लेखना / ५ ।
परिचित द्रव्य निक्षेप - दे० निक्षेप /५/८ । परिणमन - १. ज्ञेयार्थ परिणमनका लक्षण
प्र. सारा ५२ उदयगतेषु पुद्गलकर्माशेषु सरसु संयमानो मोहरागद्वेषपरिणतलाव या परिणममलक्षणया क्रिपया युज्यमान क्रियाफलभूतं बन्धमनुभवति, न तु ज्ञानादिति । उदयगत पुद्गल कर्मायो अति चेतित होनेपर जाननेपर अनुभव करनेपर
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परिणाम
मोह राग द्वेष परिणत होनेसे ज्ञेयार्थ परिणमन स्वरूप क्रिया के साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रिया फलरूप बन्धका अनुभव करता है । किन्तु ज्ञानसे नही' ( इस प्रकार प्रथम ही अर्थ परिणमन क्रियाके फलभूत बन्धका समर्थन किया गया है। )
स. सा/ता वृ/१५/१५२/१० धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि विकल्प या ज्ञेयत विचारकाले करोति जीव तदा शुद्धात्मस्वरूप विस्मरति तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोऽहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थ । = ' यह धर्मास्तिकाय है' ऐसा विकल्प जब जीव, ज्ञेयतत्व के विचार काल में करता है, उस समय वह शुद्धात्माका स्वरूप भूल जाता है ( क्योकि उपयोग में एक समय एक ही विकल्प रह सकता है) इसलिए उस विकल्प किये जानेपर मे धर्मास्तिकाय हूँ ऐसा उपचारसे अटित होता है। यह भावार्थ है।
प्रसा / प जयचन्द / ५२ ज्ञेय पदार्थरूपसे परिणमन करना अर्थात्
यह हरा है, यह पीता है' इत्यादि विकल्प रूपसे शेयरूप पदार्थों मे परिणमन करना यह कर्मका भोगना है, ज्ञानका नहीं ।...ज्ञेय पदार्थोंमें रुकना- उनके सन्मुख वृत्ति होना, वह ज्ञानका स्वरूप नही है । * अन्य सम्बन्धित विषय
१. परिणमन सामान्यका लक्षण । २. एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमन नहीं कर सकता ।
- दे० विपरिणमन |
३. गुण भी द्रव्यवत् परिणमन करता है । ४. अखिल द्रव्य परिणमन करता है, द्रव्यांश नहीं ।
- दे० उत्पाद / ३ |
५. एक द्रव्य दूसरेको परिणमन नहीं करा सकता । - दे० कर्ता व कारण / III | ६. शुद्ध अन्यको अपरिणामी कहनेकी विवक्षा । दे० द्रव्य / २ । परिणम्य परिणामक शक्ति
ससा / आ / परि. / शक्ति न० १५ परात्मनिमित्तज्ञे यज्ञानाकार ग्रहणग्राहणस्वभावरूपा परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति । = पर और आप जिनका निमित्त है ऐसे ज्ञेयाकार ज्ञानाकार उनका ग्रहण करना और ग्रहण कराना ऐसा स्वभाव जिसका रूप है, ऐसी परिणम्य परिणामara नाम पन्द्रहवीं शक्ति है । परिणाम - Result (घ, ४/प्र.२७ ) परिणाम-जीवके परिणाम हो संसारके या मोक्षके कारण है । वस्तुके भाजको परिणाम कहते हैं, और वह दो प्रकारका ग पर्याय । गुण अप्रवर्तमान या अक्रमवर्ती है और पर्याय प्रवर्तमान व क्रमवर्ती पर्यायरूप परिणाम तीन प्रकारके है शुभ, अशुभ और शुद्ध । तहाँ शुद्धपरिणाम ही मोक्षका कारण है ।
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१. परिणाम सामान्यका लक्षण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
- दे० द्रव्य / ५१
— दे० गुण / २ ।
१. समान अर्थ
प्र. सा. / / ६६ सदट्ठिदं सहावे दव्यं दम्बस्स जो हि परिणामो अत्ये सो सहायभवानी ॥११॥
प्र. सा / रा. प्र. / १०१ स्वभावस्तु द्रव्यपरिणामोऽभिहित । इम्यवृत्तेहि त्रिकोटिसमयस्पर्शिन्या प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमनाइ द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणाम-स्वभाव मे अवस्थित ( होने से ) द्रव्य सत है; द्रव्यका जो उत्पादव्यय धौव्य सहित परिणाम है; वह पदार्थों का स्वभाव है | ( प्र. सा./मू./ १०६) द्रव्यका स्वभाव परि णाम कहा गया है।'' द्रव्यकी वृत्ति तीन प्रकारके समयको ( भूत. भविष्यद' वर्तमान कालको) स्पर्शित करती है. इसलिए यह वृति
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