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मिश्र
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२. मिश्र गुणस्थान सम्बन्धी शंका-समाधान
पृधत्ते सेसे चेव तदपाओग्गा होदि । जिसने एकेन्द्रियोमे सम्यग्मिपात्यके रिथतिसत्त्वकी उद्वेलना की है उसके हो पल्योपमके असंख्यातवे भागसे हीन एक सागरोपम मात्र स्थिति सत्त्व के रहनेपर सम्पग्मिध्यात्बके ग्रहण की योग्यता पायी जाती है। परन्तु जो त्रस जीवोमे र केन्द्रिपके स्थितिमात्बके बराबर सम्यग्मिध्यात्वके स्थितिसत्त्वको वरता है, यह पहले ही सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थितिके
शेष रहनेपर ही उसके ग्रहण के अयोग्य हो जाता है। दे. सत् - ( इस गुणस्थानमे एक संज्ञी पर्याप्तक ही जीव समास सम्भव है, एकेन्द्रियादि अस ज्ञो पर्यंत के जीव तथा सर्व ही प्रकारके अपर्याप्तक जीव इसको प्राप्त नहीं कर सकते)।
* अन्य सम्बन्धित विषय १. जीव समास, मार्गणास्थान आदिके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ
-दे० सत। २. सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
-दे० वह-वह नाम । ३. इम गुणस्थानमें आय व व्ययका सन्तुलन -दे० मार्गणा ४ इसमें कर्मोंका बन्ध उदय सत्व
-दे० वह-वह नाम ५ राग व विरागताका मिश्रित भाव -दे० उपयोग/11/३ । ६ इस गुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है -दे० भाव/२ ।
५. ज्ञान भी सम्यक् व मिथ्या उमयरूप होता है। रा. वा./8/१/१४/५८६/२५ अत एवास्य त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानमिश्राणि इत्युच्यन्ते । - इसके तीनो ज्ञान अज्ञानसे मिश्रित होते है (गो.जी। मू /३०२/६५३ ) (दे० सत्) ।
परिणामोका ही उत्पादक है। अत उसके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोसे युक्त ज्ञान 'ज्ञान' इस सज्ञाको प्राप्त हो नहीं सकता है, क्योकि, उस ज्ञानमें यथार्थ श्रद्धाका अन्वय नहीं पाया जाता है।
और उसे अज्ञान भी नही कह सक्ते हैं, क्योकि, वह अयथार्थ श्रद्धाके साथ सम्पर्क नहीं रखता है। इसलिए वह ज्ञान सम्यग्मिध्यात्व परिणामकी तरह जात्यन्तर रूप अवस्थाको प्राप्त है। अत' एक होते हुए भी मिश्र कहा जाता है ।
२. जात्यन्तर ज्ञानका तात्पर्य ध.१/१,१,११६/३६४/५ यथायथं प्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमो ज्ञानम् । यथायथमप्रतिभासितार्थप्रत्ययानुविद्धावगमोऽज्ञानम् । जात्यन्तरीभूतप्रत्ययानुविद्धावगमो जात्यन्तरं ज्ञानम, तदेव मिश्रज्ञानमिति राद्धान्तविदो व्याचक्षते । = यथावस्थित प्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्तसे उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोधको ज्ञान कहते हैं। न्यूनता आदि दोषोसे युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्तसे उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोधको अज्ञान कहते हैं। और जात्यन्तररूप कारणसे उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी ज्ञानको जात्यन्तर ज्ञान कहते है। इसीका नाम मिश्रगुणस्थान है, ऐसा सिद्धान्तको जाननेवाले विद्वान् पुरुष व्याख्यान करते है।
..मिश्रगुणस्थानमें अज्ञान क्यों नहीं कहते ध.११७,४५/२२४/७ तिसु अण्णाणेसु णिरुव सु सम्मामिच्छादिहि
भावो किण्ण परूविदो। ण, तस्स सद्दहणासद्दहणेहि दोहिं मि अक्कमेण अणुविद्धस्स संजदासजदो ब पत्तजच्चतरस्स गाणेसु अण्णाणेस बा अस्थित्तविरोहा। प्रश्न- तीनों अज्ञानोको निरुद्ध अर्थात आश्रय करके उनकी भाव प्ररूपणा करते हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका भाव क्यों नहीं बतलाया। उत्तर-नहीं, क्योंकि, श्रद्धान और अश्रद्धान, इन दोनोंसे एक साथ अनुविद्ध होनेके कारण संयतासंयतके समान भिन्न जातीयताको प्राप्त सम्यग्मिथ्यात्वका पाँचों ज्ञानोंमें, अथवा तीनो अज्ञानोंमें अस्तित्व होनेका विरोध है। * युगपत् दो रुचि कैसे सम्भव है-दे० अनेकान्त/१/१.२ १. संशय व विनय मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वमें
क्या अन्तर है द्र सं./टी./१३/३३/४ अथ मतं-येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजन
तथा सर्वे देवा बन्दनीया न च निन्दनीया इत्यादि वैनयिकमिथ्यादृष्टि' संशयमिथ्यादृष्टिा तथा मन्यते, तेन मह सभ्यग्मिथ्यादृष्टे' को विशेष इति, अत्र परिहार'-स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा सशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति । मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेष -प्रश्न-चाहे जिससे हो, मुझे तो एक देवसे मतलब है, अथवा सभी देव वन्दनीय हैं, निन्दा किसी भी देवकी नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार वैनयिक और सशय मिथ्यादृष्टि मानता है। तब उसमें तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें क्या अन्तर है। उत्तर-वैनयिक तथा संशय मिध्यादृष्टि तो सभी देवोंमें तथा सब शास्त्रोमें से किसी एककी भी भक्तिके परिणामसे मुझे पुण्य होगा, ऐसा मानकर संशयरूपसे भक्ति करता है. उसको किसी एक देवमें निश्चय नहीं है। और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवके दोनोमें निश्चय है । बस यही अन्तर है।
५. पर्याप्तक ही होनेका नियम क्यों घ.१/१,१,६५/३३/३ कथं । तेन गुणेन सह तेषां मरणाभावात् ।
अपर्याप्तकालेऽपि सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्योत्पत्तेरभावाच । नियमेऽभ्यु
२. मिश्र गुणस्थान सम्बन्धी शंका समाधान
१. ज्ञान व अज्ञानका मिश्रण कैसे सम्भव है ध १/१,१,११६/३६३/१० यथार्थश्रद्धानुविद्धावगमो ज्ञानम्, अयथार्थश्रद्धानुविद्वावगमोऽज्ञानम् । एव च सति ज्ञानाज्ञानयोभिन्नजीवाधिकरणयोर्न मिश्रण घटत इति चेत्सत्यमेतदिष्टत्वात्। किन्तवत्र सम्यग्मिध्यादृष्टावेवं मा ग्रही' यतः सम्यग्मिथ्यात्वं नाम कर्म न तन्मिथ्यात्वं तस्मादनन्तगुणहोनशक्तेस्तस्य विपरीताभिनिवेशोत्पादसामाभावात् । नापि सम्यक्त्वं तस्मादनन्तगुणशक्तेस्तस्य यथार्थ श्रद्धया साहचर्याविरोधात । ततो जात्यन्तरत्वात् सम्यग्मिथ्यात्वं जात्यन्तरीभूतपरिणामस्योत्पादकम् । ततस्तदुदयजनितपरिणामसमवेतबोधो न ज्ञानं यथार्थश्रद्वयाननुविद्धत्वात् । नाप्यज्ञानमयथार्थश्रद्वयासंगत्वात्। ततस्तज्ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्वपरिणामवज्जात्यन्तरापन्न मित्येकमपि मिश्रमित्युच्यते । प्रश्न-यथार्थ श्रद्धासे अनु विद्ध अवगमको ज्ञान कहते है और अयथार्थ श्रद्धासे अनुविद्ध अवगमको अज्ञान कहते है। ऐसी हालतमें भिन्न-भिन्न जीवोंके आधारसे रहनेवाले ज्ञान और अज्ञानका मिश्रण नहीं बन सकता है। उत्तर-यह कहना सत्य है, क्योकि, हमें यही इष्ट है। किन्तु यहाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योकि, सम्यग्मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व तो हो नहीं सकता, क्योंकि, उससे अनन्तगुणी हीन शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्व में विपरीताभिनिवेशको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्य नहीं पायी जाती है। और न वह सम्यक्प्रकृतिरूप ही है, क्योंकि, उससे अनन्तगुणी अधिक शक्तिवाले सम्यग्मिथ्यात्वका यथार्थ श्रद्धानके साथ साहचर्य सम्बन्धका विरोध है। इसलिए जात्यन्तर होनेसे सम्यग्मिथ्यात्व (कर्म) जात्यन्तररूप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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