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मिश्र
२. मिश्रगुणस्थान सम्बन्धी शंका-समाधान
पगम्यमाने एकान्तवादः प्रसजतीति चेन्न, अनेकान्तगर्भेकान्तस्य देशघाती स्पर्ध कोके उदयसे और उसीके सर्वघाती स्पर्धको के उपशम सत्त्वाविरोधात प्रश्न-यह कैसे (अर्थात सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुण- संज्ञावाले उदयाभावसे सम्यग्मिथ्यात्यकी उत्पत्ति होती है, इसलिए स्थानमें देव पर्याप्त ही होते है, सो कैसे )। उत्तर-क्योकि, तीसरे वह तदुभयप्रत्ययिक अर्थात उदयोपशमिक कहा जा सकता है, पर गुणस्थानके साथ मरण नहीं होता है (दे.मरण/३), तथा अपर्याप्तकाल- क्षायोपशमिक नहीं। में भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न
७. मिश्रगुणस्थानकी शायोपशमिकतामें उपरोक्त लक्षण 'तृतीय गुणस्थानमें पर्याप्त ही होते हैं' इस प्रकार नियमके स्वीकार कर लेने पर तो एकान्तवाद प्राप्त होता है । उत्तर-नहीं, क्योकि
घटित नहीं होते अनेकान्त गर्भित एकान्तवादके मानने में कोई विरोध नहीं आता।
ध.४१,७,४,/१९६/४ मिच्छत्तस्स सम्बधा दिफद्दयाणमुदयक्रवएण तेसिं
चेव संतोसमेण. त्ति सम्मामिच्छत्तस्स खोबसमियत्त केई परूव६. इस गुणस्थानमें क्षायोपशमिकपना कैसे है
यति, तण्ण घडदे, मिच्छत्तभावस्स वि खओवसमियत्तप्पसगा। ध. १/१,१,११/१६८/१ कथं मिथ्यादृष्टे सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपद्य- कुदो। सम्मामिच्छत्तस्स सयघादिफयाणमुदयवरखएण तेसि चैव मानस्य तावदुच्यते। तद्यथा, मिथ्यात्वकर्मणः सर्वघातिस्पर्धकाना- संतोवसमेण सम्मत्तदेसघादिफयाणमुदयवखएण तेसिं चेव सतीवमुदयक्षयात्तस्यैव सत उदयाभावलक्षणोपशमात्सम्यग्मिथ्यात्वकर्मणः समेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तस्स सव्यधादिफयाणमुदएण सर्वधातिस्पर्धकोदयाचोत्पद्यत इति सभ्यग्मिथ्यात्वगुणः क्षायोप- मिच्छत्तभावुप्पत्तीए उबलं भा। कितने ही आचार्य ऐसा कहते है शमिकः ।
कि मिथ्यात्व या सम्यक्प्रकृतिके उदयाभावी क्षय व सदवस्थारूप घ.१/१,१,१९/१६६/२ अथवा, सम्यक्त्वकर्मणो देशघातिस्पर्धकाना- उपशम तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे यह गुणस्थान क्षायोपमुदयक्षयेण तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमेन च सम्यग्मि- शमिक है-(दे. मिश्र२/६/१,२),किन्तु उनका यह कहना घटित नही ध्यात्वकर्मणः सर्वघातिस्पर्धकोदयेन च सम्यग्मिध्यात्वगुण होता है, क्योंकि, ऐसा माननेपर तो मिथ्यात्व भावके भी क्षायोपउत्पद्यत इति क्षायोपशमिकः । सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपश- शमिकताका प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके सर्वधाती मिकत्वमेवमुच्यते बालजनव्युत्पादनार्थम् । वस्तुतस्तु सम्यग्मिध्या- स्पर्धकोके उदयक्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे और सम्यक्त्व स्वकर्मणो निरन्वयेनाप्तागमपदार्थविषयरुचिहननं प्रत्यसमर्थ- प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोके उदय क्षयसे, उन्हीं के सदवस्थारूप स्योदयात्सदसद्विषयश्रद्धोत्पद्यत इति क्षायोपशमिक. सम्यग्मिथ्या- उपशमसे अथवा अनुदयरूप उपशमसे तथा मिथ्यात्वके सर्वघाती त्वंगुण। अन्यथोपशमसम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यात्वगुणं प्रतिपन्ने
स्पर्धकोंके उदयसे मिथ्यात्वभाव की उत्पत्ति पायी जाती है। [ अतः सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य क्षायोपशमिकत्वमनुपपन्नं तत्र. सम्यक्त्व
पूर्वोक्त शीर्षक नं. ६ से कहा गया लक्षण नं.३ ही युक्त है ] (ध. मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनामुदयक्षयाभावात । -प्रश्न-मिथ्यादृष्टि
१/१,१,११/१७०/१); (और भी दे. शीर्षक नं. ११) गुणस्थानसे सम्यग्मिध्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके
6. सर्वघाती प्रकृति के उदयसे होनेके कारण इसे क्षायोपक्षायोपशमिक भाव कैसे सम्भव है। उत्तर-१. वह इस प्रकार है, कि वर्तमान समयमें मिथ्यात्वकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंका शमिक कैसे कह सकते हो उदयाभावीक्षय होनेसे, सत्ता में रहनेवाले उसी मिथ्यात्व कर्मके
घ, ७/२,१,७६/११०/७ सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघ इफदया मुदएण सर्वघाती स्पर्ध कोंका उदयाभाव लक्षण उपशम होनेसे और
सम्मामिच्छादिट्ठी जदो होदि तेण तस्स खओअसमिओ त्ति ण सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय होनेसे सम्यग्मि
जुज्जदे ।...ण सम्मामिच्छत्तफद्दयार्ण सव्वघादित्तमत्थि,...ण च थ्यात्व गुणस्थान पैदा होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक है।
एत्थ सम्मत्तस्स णिमूल विणासं पेच्छामो सम्भूदासब्भूदत्थेसु तुल्ल२. अथवा सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंका उदयक्षय
सद्दहणदंसणादो। तदो जुज्जदे सम्मामिच्छत्तस्स खोवसमिओ होनेसे, सत्तामें स्थित उन्हीं देशघाती स्पर्धकोंका उदयाभाव लक्षण
भावो।प्रश्न-चू कि सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय प्रकृतिउपशम होनेसे और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वधाती स्पर्धकोंके
के सर्वधाती स्पर्धकोके उदयसे सम्यग्मिथ्यावृष्टि होता है (दे मिश्र उदय होनेसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है इसलिए
२/६/१), इसलिए उसके क्षायो पशमिकभाव उपयुक्त नहीं है। वव क्षायोपश मिक है। ३. यहाँ इस तरह जो सम्यग्मिध्यात्व
उत्तर--सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके स्पर्धको में सर्वघातीपना नहीं होता, गुणस्थानको क्षायोपशमिक कहा है वह केवल सिद्धान्तके पाठका
क्योंकि इस गुणस्थानकी उत्पत्तिमे हम सम्यक्त्व का निर्मूल विनाश प्रारम्भ करनेवालोंके परिज्ञान करानेके लिए ही कहा गया है।
नही देखते, क्योकि, यहाँ सद्भुत और असद्भूत पदार्थोंमे समान (परन्तु ऐसा कहना धटित नहीं होता, दे. आगे/शीर्षक नं.७) वास्तव श्रद्धान होना देखा जाता है। और भी दे० अनुभाग४/६)। इसलिए में तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्म निरन्वयरूपसे आप्त आगम और पदार्थ सम्यग्मिथ्यात्वको क्षायोपशमिक भाव मानना उपयुक्त है। विषयक श्रद्धाके नाश करनेके प्रति असमर्थ है, किन्तु उसके उदयसे
ध४१,७,४/१९८/२ पडिबधिकम्मोदए संते वि जो उपलब्भइ जीवसमीचीन और असमीचीन पदार्थको युगपत् विषय करनेवाली गुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ । कुदो । सव्वादणसत्तीए श्रद्धा उत्पन्न होती है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान क्षायोप- अभावो खओ उच्चदि । खको चेव उवसमो ख ओवसमो, तम्हि शमिक कहा जाता है। अन्यथा उपशमसम्यग्दृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व जादो भावो खोवसमिओ। ण च सम्मामिच्छत्तदए संते सम्मत्तगुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसमें क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है, स्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सव्वधादित्तण्णहाणुवक्योकि उस जीवके ऐसी अवस्था में सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्व और बत्तीदो। तदो सम्मामिच्छत्त खओवसमियमिदि ण घडदे । एत्थ अनन्तानुबन्धी इन तीनोंका ही उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता। परिहारो उच्चदे-सम्मामिच्छत्तुदए सते सद्दहणासहहणप्पओ वरघ.१४/५.६,१६/२१/८ सम्मामिच्छत्तदेसघादिफड़याणमुदएण तस्सेव चिओ जीवपरिणामो उप्पज्जइ। तत्थ जो सद्दहणं सो सो सम्मत्तावसव्यधादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमक्षण्णिदेण सम्मामिच्छत्तमुप्प- यवो। तं सम्मामिच्छत्तु दओ ण विणासेदि त्ति सम्मामिच्छत्तं ज्जदि त्ति तदुभयपच्चइयत्तं ।४. [ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्व- खोवसमियं । असहहणभागेण विणा सहहणभागस्सेव सम्मामिच्छघाती नहीं है अन्यथा उसके उदय होनेपर सम्यक्त्वके अंशकी भी त्तववएसोण त्यित्ति ण सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदिचे एवं विहउत्पत्ति नहीं बनसकती-दे.अनुभाग४/६/४]इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वके विवक्रवाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, कितु अवयव्यब
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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