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मिथ्या नय
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मिष गुणस्थान निर्देश
है, तब दोष रहित ऐसे परमात्मस्वरूप अर्हन्त सिद्धोकी तथा उनके आराधक आचार्य उपाध्याय और साधुकी, परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए, (मुक्तिश्रीको वश करनेके लिए-पं. का), और विषयकषायोंको दूर करनेके लिए, पूजा, दान आदिसे अथवा गुणोंको स्तुति आदिसे परमभक्ति करता है । (पं.का./ता.वृ./१७०/२४३/११), (प.प्र./टी./२/६१/१८३/२) ।
५. दोनोंकी कर्मक्षपणामें अन्तर भ.आ./मू/१०८/२५५ ज अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तंणाणी तिहि गुत्तो खवेदि अतोमुहत्तेण ।१०८) -जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवोमें खपाता है, वह ज्ञानी त्रिगुप्तिके द्वारा अन्तर्मुहुर्तमात्रमें खपा देता है। (भ आ./म./२३४/४५४); (प्र. सा/मू./२३८ }; (मो. प्रा./मू./५३ ); (ध. १३/१३५१५०/गा.२३/२८१); (ए वि./१/३०)। भ. आ./मू./७१७/८१ ज बदमसखेजाहि रयं भवसदसहस्सकोडीहिं। सम्मत्तप्पत्तीए खवेइ तं एयसमरण १७१७। -करोडो भवोंके संचित कोको, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर, साधुजन एक समयमें निर्जीर्ण कर देते है। 1. मिथ्याष्टि जीव सम्यग्दृष्टिके भाशयको नहीं समझ
सकता स. सा./आ./२२७/क. १५३ ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति
जानाति क. १९५३। - ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है। (ज्ञानीको बात ज्ञानी ही जानता है। ज्ञानीके परिणामौंको
जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीमें नहीं है-पं. जयचन्द)। मिथ्या नय-दे० नय/II । मिथ्या शल्य-दे० मिथ्यादर्शन। मिनट-कालका एक प्रमाण-दे० गणित/1/१/४। मिश्र-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४२ वसतिका
का एक दोष-दे० वसतिका। ३ एक ही उपयोगमें शुद्ध व अशुद्ध दो अंश-दे० उपयोग/II/३॥ ४. मिश्र चारित्र अर्थात एक ही चारित्रमें दो अंश-दे० चारित्र/७/७ । ५. व्रत, समिति, गुप्ति आदिमें युगपत् दो अंश-प्रवृत्ति व निवृत्ति -दे० संवर/२। ६. सयम व असंयमकका मिश्रपना-दे० सयतासंयत/२। ७. एक ही संयममें दो अंश-प्रमत्तता व संयम-दे० स यत/२। ८. एक ही श्रद्धान व ज्ञानमें दो अंश-सम्यक व मिथ्या-दे० आगे 'मिश्र' गुणस्थान ।
६. मिश्र प्रकृति-दे० मोहनीय। मिथकेशारुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी-दे० लोक/५/१३ । मिध गुणस्थान-दही व गुडके मिश्रित स्वादयत् सम्यक्
बमिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धान व ज्ञानको धारण करनेकी अवस्था विशेष सम्यग्मिध्यात्व या मिश्रगुणस्थान कहलाता है। सम्यक्त्वसे गिरते समय अथवा मिथ्यात्वसे चढ़ते समय क्षणभरके लिए इस
अवस्थाका वेदन होना सम्भव है। १. मिश्रगुणस्थान निर्देश
१. सम्यग्मिथ्याव गुणस्थानका लक्षण पं.सं./१/१०.१६ इहिगुडमिव वामिस्सं पिहभावं णैव कारिदं सक्कं । एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्यो ।१०। सद्दहणासदहणं जस्स य जीवेसु होइ तच्चेसु । बिरयाविरएण समो समामिच्छो त्ति णायब्बो ।१६६।०१. जिस प्रकार अच्छी तरह मिला हुआ दही और गुड पृथक् पृथक नहीं किया जा सकता इसी प्रकार सम्यक्त्व व
मिथ्यात्वसे मिश्रित भावको सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।१०। (ध. १/१,१२/गा.१०६/१७०); (गो. जी./मू./२२/४७)।२.जिसके उदयसे जीवोंके तत्त्वों में श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत् प्रगट हो है, उसे विरताविरतके समान सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए १६६ (गो. जी मू./६५/११०२)। रा बा./६/११४/५८६/२३ सम्यड् मिथ्यात्वसंज्ञिकाया प्रकृतेरुदयाव
आत्मा क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रवोपयोगापादितेषत्कलुषपरिणामवत तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धानरूप' सम्यग्मिध्यादृष्टिरित्युच्यते-क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदोके उपभोगसे जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है, उसी तरह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे तत्त्वार्थका श्रद्धान व अश्रद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है। यही तीसरा सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। ४.१/१,१,११/१६६/७ दृष्टि' श्रद्धा रुचि प्रत्यय इति यावत् । समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः । = दृष्टि, श्रद्धा, रुचि
और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम है। जिस जीवके समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकारकी दृष्टि होती है उसको सभ्यग्मिथ्यावृष्टि कहते हैं। गो. जो /मू./२१/४६ सम्मामिच्छुदयेण य जत्तंतरसव्वधादिकज्जेण । णय सम्म मिच्छ पिय सम्मिस्सो होदि परिणामो २४ - जात्यन्तररूप सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है, उसको तीसरा मिश्र गुणस्थान कहते है। ल, सा./मू /१०७/१४५ मिस्सुदये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्स व तच्चमियरेण सदहदि एक्कसमये. १९०७ सम्यग्मिथ्यात्व नामा मिश्र प्रकृतिके उदयसे यह जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती होता है। दही और गुड़के मिले हुए स्वादकी तरह वह जीव एक ही समयमें तत्त्व व अतत्त्व दोनोकी मिश्ररूप श्रद्धा करता है । (द्र. सं./टी./१३/३३/२) ।
२. प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है घ. ४/५,५,६/३४३/८ तस्स मिच्छत्तसम्मत्तसहिदासंजदगुणे मोत्तण
गुण तरगमणाभावा । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका मिथ्यात्वसहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको अथवा सम्यक्त्वसहित असंयत गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानोमें गमनका अभाव है।
३. संयम धारनेको योग्यता नहीं है ध. ४/१५.१७/गा. ३३/३४६ ण य मरइ णैव संजममुवेइतह देसस जर्म वावि। सम्मामिच्छादिट्ठी . १३३-सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न संयमको प्राप्त होता है और न देश संयमको। (गो, जी././२३/ ४८)। * मिश्र गुणस्थानमें मृत्यु सम्भव नहीं-दे. मरण/३ ।
४.मिश्र गुणस्थानका स्वामित्व ध.१/१,८,१२/२६०/७ सम्मामिच्छत्तगुणं पुण वेदगुवसमसम्मादिछिणो अठ्ठावीससतकम्मिमिच्छादिठिणो य पडिवज्जति ।- सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और मोहकर्मको २८ प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यावृष्टि जीव भी प्राप्त होते है। ( अर्थात अनादि मिथ्यादृष्टि या जिन्होने सम्यक्त्व व सम्य'मिथ्यात्व प्रकृतियोकी उद्वेलना कर दी है ऐसे मिथ्यादृष्टि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि' गुणस्थानको प्राप्त नहीं होते)। ध. १५/११/८ एइंदिएसु उव्वेल्लिदसम्माभिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मस्सेव पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणसागरोवममेत्तट्टिदिसंतकम्मै सेसे सम्मामिच्छत्तग्गहणपाओग्गस्सुबलं भादो। जो पुण तसेच एइंदियट्ठिदिसंतसमं सम्मामिच्छर कुणइ सो पुव्वमेव सागरोवम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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