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मिथ्यादृष्टि
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कर्त्ता भवति । यस्तु सम्यग्दृष्टि से संवरनिर्जरामोक्षपदार्थत्रयस्य कर्त्ता भवति । रागादिविभावरहित परमसामायिके यदा स्थातु समर्थो न भगति तदा विषयाशार्थं सारस्थि विच्छेद कुर्य पुण्यानुवन्धि तीर्थ करनाम प्रकृत्यादिविशिष्टपुष्यपार्थस्य स भवति । अब किस पदार्थका कर्ता कौन है, इस बातका कथन करते है । वह बहिरात्मा (प्रधानत ) आसव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थोंका कर्ता है। किसी समय जब मिथ्यात्व व कषायका मन्द उदय होता है तब आगामी भोगोंकी इच्छा आदि रूप निदान से पापानुबन्धी पुण्य पदार्थका भी होता है। (परन्तु इसको संवर नही होता- दे० अगला सन्दर्भ ) । जो समयदृष्टि जीव है वह (प्रधानत ) संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों होता है और किसी समय जब रागादि विभावसे रहित परम सामायिक में स्थित रहनेको समर्थ नहीं होता उस समय पानिको रोकने के लिए, ससारको स्थितिका नाश करता हुआ पुण्यानुबन्धी तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थका कर्ता होता है (पं.का./१२८-१३०/११३/१४ ). (स सा/ता.वृ/ १२३/१८०/२१) ।
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द्र.सं./ टी / ३४/६६/१० मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने सवरो नास्ति, सासादनगुणस्थानेषु क्रमेोर्युपरि प्रशसं हातव्य इति निष्या दृष्टि गुणस्थान में तो सबर है ही नही और सासादन आदि गुणस्थानों (प्रकृतिबन्ध म्युच्वित्तिक्रम के अनुसार दे० प्रकृतिबन्ध (०) ऊपर-ऊपरके गुणस्थानोंमें अधिकतासे सवर जानना चाहिए । ० उपयोग 1 (१-३ गुरुस्थान तक अशुभोपयोग प्रधान है और ४०० गुणस्थान तक शुद्धोपयोग साधक शुभोपयोग प्रधान है। इससे भी ऊपर शुद्धोपयोग प्रधान है। )
३. दोनोंके पुण्यमें अन्तर
ससा / ता वृ./२२४-२२०/३०२/१७ कोऽपि जीवोऽभिनव पुण्यकर्मनिमित्त भोगाकाङ्क्षा निदानरूपेण शुभकर्मानुष्ठान करोति पापानुबन्धि पुण्यराजा कालान्तरे भोगान् ददाति । तेऽपि निदानबन्धेन प्राप्ता भोगा रावणादिवन्नारकादिदुखपरम्परा प्रापयन्तीति भावार्थ ... कोऽपि यो निपिसमारभावाद, शाहानेन विषयपानार्थ यद्यपि प्रयशीलदानपूजादिशुभकान करोति तथापि भागाकाहारूपनिदानबन्धेन तत्पुण्यकर्मानुष्ठान न सेवते । तदपि पुण्यानुबन्धिकमं भावान्तरे अभ्युदयरूपेणोदयागतमपि पूर्वभवभाविभेद विज्ञानवासनावलेन. भोगाका निदान रूपा रागादिपरिणामान्न ददाति भरतेश्वरादीनामिम कोई एक
( मिथ्यादृष्टि ) जीव नवीन पुण्य कर्म के निमित्तभूत शुभकर्मानुष्ठानको भोगाकाक्षाके निदान रूपसे करता है। तब वह पापानुबन्धी पुण्यरूप राजा कालान्तर में उसको विषय भोगप्रदान करता है। वे निदानबन्धपूर्वक प्राप्त भोग भी राम आदि की भाँति उसको अगले भग नरक आदि दुखोकी परम्परा प्राप्त कराते है ( अर्थात् निदानबन्ध पूर्वक किये गये पुण्यरूप शुभानुष्ठान तीसरे भव नरकादि गतियों के कारण होनेसे पापानुबन्धीपुष्य कहलाते है। कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प समाधिका अभाव होनेके कारण अशक्यानुष्ठान रूप विषयकषाय वञ्चनार्थ यद्यपि व्रत, शील, दान, पूजादि शुभ कर्मानुष्ठान करता है परन्तु (मिध्यादृष्टिको मीति भोगाकारूप निदानबन्धसे उसका सेवन नहीं करता है । उसका वह कर्म पुण्यानुबन्धी है, भवान्तर मे जिसके अभ्युदयरूपसे उदयमें आनेपर भी वह सम्यग्दृष्टि पूर्वभवमें भावित भेदविज्ञानकी वासना के बलसे भोगोको आकाक्षारूप निदान या रागादि परिणाम नही करता है, जैसे कि भरतेश्वर आदि अर्था निदान बम्धरहित बाँधा गया पुण्य सदा पुण्यरूपसे हो फलता है। पापका कारण कदाचित् भी
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४. मिध्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिमे अन्तर
नही होता। इसलिए पुण्यानुबन्धी कहलाता है । और भी दे० मिध्यादृष्टि/१/२)।
ससा /ता.वृ./१२४-३२०/४९४/१६ कोऽपि जीव पूर्व मनुष्यभवे जिनरूप गृहीत्वा भोगाकादला निदानवन्धेन पापानुमन्धि पुण्यं कृष्णा... अर्ध चक्रवर्ती भवति तस्य विष्णुसंज्ञा न चापरः । =कोई जीव पहले मनुष्य भव में जिनरूपको ग्रहण करके भोगोकी आकांक्षारूप निदानबन्ध से पापानुबन्धी पुण्य को करके स्वर्ग प्राप्त कर अगले मनुष्य
अर्धचक्रवर्ती हुआ, उसीकी विष्णु संज्ञा है। उससे अतिरिक्त अन्य कोई विष्णु नही है । ( इसी प्रकार महेश्वरकी उत्पत्तिके सम्बन्धने भी कहा है
दे० पुण्य / ५ /१२ ( सम्यग्दृष्टिका पुण्य निदान रहित होनेसे निर्जरा व मोक्षका कारण है और मिध्यादृष्टिका पुण्य निदान सहित होने से साक्षात् रूपसे स्वर्गका और परम्परा रूपसे कुगतिका कारण है । ) ० पूजा/२/४ सम्यग्दृष्टिकी पूजा भक्ति आदि निर्जराके कारण है।
४. दोनों के धमसेवनके अभिप्राय में अन्तर .का./त.प्र./१३६ हि स्थूललक्ष्या केसमधानस्याज्ञानिनी भवति । उपरितनभूमिकायामलण्यास्पदस्याव स्थानराननिषेधार्थ तीबरागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति । यह ( प्रशस्त राग ) वास्तव में जो स्थूल लक्षवाला होनेसे मात्र भक्तिप्रधान है ऐसे अज्ञानीको होता है। उच्च भूमिका में स्थिति प्राप्त न की हो तब आस्थान अर्थात् विषयोकी ओरका राग रोकनके हेतु अथवा तीव्र रागज्वर मिटानेके हेतु, कदाचित ज्ञानीको भी होता है। इ.स./टी./२४/२९१/१२ प्राथमिकापेक्षया सविश्वावस्थायां विषयकषायवञ्चनार्थं चित्त स्थिरीकरणार्थं पञ्चपरमेष्ठ्यादि परद्रव्यमपि ध्येयं भवति । ध्यान आरम्भ करनेकी अपेक्षासे जो सविकल्प अवस्था है उसमे विषय और कषायोंको दूर करनेके लिए तथा चित्तको स्थिर करनेके लिए पच परमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते है। (पं.का./ता.वृ./१५२/२२०/१) (स.सा./ता.वृ./१६/१५४/१०) ( प. अ./टी./२/११/१५१/३) ।
दे० धर्म /६/- ( मिथ्यादृष्टि व्यवहार धर्मको ही मोक्षका कारण जानकर करता है, पर सम्यरिचय मार्ग स्थित होनेमे समर्थ न होनेके कारण करता है। )
दे० मिथ्यादृष्टि / ४ / २ व ३ ( मिथ्यादृष्टि तो आगामी भोगोकी इच्छासे शुभालुहान करता है और सम्यग्दृष्टि शुद्ध भाषमें स्थित होनेगे समर्थ न होनेके कारण तथा कषायोन दुयनिके वचनार्थ करता है ।)
३० पुग्य/३/४-८ मिध्यादृष्टि पुण्यको उपादेय समझकर करता है और सम्यग्दृष्टि उसे हेय जानता हुआ करता है ।)
द्र. स./टी./३८/१५६/७ सम्यग्दृष्टिर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् । कथं पुण्यं करोतीति । तत्र युक्तिमाह । यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमादापुरुषाणां तदर्थे दानसन्मानादिकं करोति तथा सम्रायरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति चारित्रमोहोदया सत्रासमर्थ सद् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणाम सिद्धान तदाराधकाचार्योपाध्यावसाना परमात्मपदार्थविषयकषायवचनार्थं च नजादिना गुणस्तमनादिना वा परमभक्ति करोति ।
प्रश्न- सम्यग्दृष्टि जीवके तो पुण्य और पाप दोनो हेय है, फिर वह पुण्य कैसे करता है ? उत्तर--जैसे कोई मनुष्य अन्य देशमें विद्य मान किसी मनोहर स्त्री के पास आये हुए मनुष्योका उस स्त्रीकी प्राप्ति के लिए दान-सन्मान आदि करता है, ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी वास्तवमे तो निज शुद्धात्माको ही भाता है । परन्तु जब चारित्रमोहके उदयसे उस निशुद्धात्म भावनामे असमर्थ होता
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