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मोक्ष
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६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएं
है ( बौद्ध ) अथवा सुख दुख इच्छा प्रयत्न आदि आत्माके गुणोका अभाव ही मोक्ष है (वैशेषिक ) + उत्तर-नही, क्योकि, कौन बुद्धिमान् ऐसा होगा जो कि स्वय अपने नाशके लिए तप आदि कठिन अनुष्ठान करेगा। प्रश्न--२. आत्मा नामकी कोई वस्तु ही नही है ( चार्वाक ) १ उत्तर-नहीं, आत्माका अस्तित्व अवश्य है। (विशेष दे० जीव/२/४ ) । प्रश्न-३ आत्मा या पुरुष सदा शुद्ध है। वह न कुछ करता है न भोगता है। (साख्य)1 उत्तर- नहीं, वह स्वयं कर्म करता है और उसके फलोको भी भोगता है। उन कर्मों के क्षयसे ही वह मो का भागी होता है। वह स्वय ज्ञाता द्रष्टा है, संकोच विस्तार शक्तिके कारण संसारावस्था में स्वदेह प्रमाण रहता है (दे०जीव/३/७ ) वह कूटस्थ नहीं है, बल्कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त है (दे० उत्पाद/३) । वह निर्गुण नहीं है बल्कि अपने गुणोसे युक्त है। क्योकि, अन्यथा साध्यकी सिद्धि ही नही हो सकती। (स सि /१/१ की उत्थानिका प/२/२/3 ( रा वा/१/१ की उत्थानिका/८/२/३
स्व, स्तो/टी./२/१३) रा. वा/१०/४/१७/६४४/१३ सर्वथाभावो मोक्ष प्रदीपवदिति चेत्, न, साध्यत्वात् ।१७। साध्यमेतत-प्रदीपो निरन्वयनाशमुपयातीति । प्रदीपा एव हि पुद्गला, पुद्गलजातिमजहत' परिणामवशान्मषीभावमापन्ना इति नात्यन्त विनाश ।-दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताद्यवस्थानवत् ।१८। यत्रैव कर्मविप्रमोक्षस्तत्रैवावस्थानमिति चेत् न, साध्यत्वात् ।१९। साध्यमेतत्तत्रवावस्थातव्य मिति, बन्धनाभावादनाश्रितत्वाच्च स्याद्गमन मिति प्रश्न-जिस प्रकार बुझ जानेपर दीपक अत्यन्त बिनाशको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्मो के क्षय हो जानेपर जीवका भी नाश हो जाता है, अतः मोक्ष का अभाव है। उत्तर-४. नही, क्योकि, 'प्रदीपका नाश हो जाता है' यह बात ही असिद्ध है । दीपकरूपसे परिणत पुद्गलद्रव्यका विनाश नही होता है। उनकी पुद्गल जाति बनी रहती है। इसी प्रकार कर्मोके विनाशसे जीवका नाश नहीं होता। उसकी जाति अर्थात चैतन्य स्वभाव बना रहता है। (ध ६/१,६-१/२३६/गा.२-३/४१७), ५ दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार बेडियोसे मुक्त होनेपर भी देवदत्तका अवस्थान देखा जाता है, उसी प्रकार क्मोंसे मुक्त होनेपर भी आत्माका स्वरूपावस्थान होता है। प्रश्न-६. जहाँ र्म बन्धनका अभाव हुआ है वहाँ ही मुक्त जीवको ठहर जाना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि, यह बात भी अभी विचारणीय है कि उसे वहीं ठहर जाना चाहिए या बन्धाभाव और अनाश्रित होनेसे उसे गमन करना चाहिए। दे. गति/१/४ प्रश्न-७. उष्णताके अभावसे अग्निके अभावकी भॉति, सिद्धलोकमे जाने से मुक्तजीवोके ऊर्ध्वगमनका अभाव हो जानेसे वहाँ उस जीवका भी अभाव हो जाना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि ऊध्र्व ही गमन करना उसका स्वभात्र माना गया है, न कि ऊर्व गमन करते ही रहना।) दे. मोक्ष/५/६८. मोक्षके अभावमें अनाकारताका हेतु भी युक्त नहीं है, क्योकि, हम उसको पुरुषाकार रूप मानते हैं।)
२. मोक्ष अमावात्मक नही है बल्कि आरमलामरूप है पं.का./मू /३५ जेसि जीवसहावो णरिय अभावो य सम्बहा तस्स । ते होति भिष्णदेहा सिद्धा बचिगोयरमदीदा ।३।-जिनके जीव स्वभाव नहीं है । दे० मोक्ष/३/५) और सर्वथा उसका अभाव भी नही है।
वे देहरहित व वचनगोचरातीत सिद्ध है। सि वि./म् /७/११/४८५ आत्मलाभ विदुर्मोक्ष जीवस्यान्तर्मलक्षयात् । नाभाव नाप्यचैतन्य न चेतन्यमनर्थकम् ।१६।-आत्मस्वरूपके लाभका नाम मोक्ष है जो कि जीवको अन्तर्मलका क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है। मोक्षमे न तो बौद्धोकी भॉति आस्माका अभाव होता है और न ही वह ज्ञानशून्य अचेतन हो जाता है। मोक्षमे भी उसका
चैतन्य अर्थात् ज्ञान दर्शन निरर्थक नही होता है, क्योकि वहाँ भी वह त्रिजगत्को साक्षीभावसे जानता तथा देखता रहता है। [ जैसे बादलोके हट जानेपर सूर्य अपने स्वपरप्रकाशकपनेको नहीं छोड देता, उसी प्रकार कर्ममलका क्षय हो जानेपर आत्मा अपने स्वपर प्रकाशकपनेको नहीं छोड देता-दे० ( इस श्लोककी वृत्ति )। प६/१,६-६,२१६/४६०/४ केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति
कपिलो ब्रूते । तन्न, तन्निराकरणा) बुद्धयन्त इत्युच्यते । मोक्षो हि नाम बन्धपूर्वक', बन्धश्च न जीवस्यास्ति, अमूर्तत्वान्नित्यत्वाच्चेति । तस्माज्जीवस्य न मोक्ष इति नैयायिक-वैशेषिक-साख्य-मीमांसकमतम् । एतन्निराकरणार्थ मुच्चन्तीति प्रतिपादितम् । परिनिर्वाणयन्ति -अशेषबन्धमोक्षे सत्यपि न परिनिर्वान्ति, सुखदु खहेतुशुभाशुभकर्मणा तत्रासत्त्वादिति तार्किकयोर्मतं । तन्निराकरणार्थ परिनिििन्त अनन्तसुखा भवन्तीत्युच्यते। यत्र सुखं तत्र निश्चयेन दुखमध्यस्ति दु खाविनाभावित्वात्सुखस्येति तार्किकयोरेव मत, तन्निराकरणार्थ सर्वदुःखानमन्त परिविजाणन्तीति उच्यते । सर्वदु,खाननन्त पर्यवसान परिविजानन्ति गच्छन्तीत्यर्थ । कुतः। दुखहेतुकर्मणा विनष्टत्वात् स्वास्थ्यलक्षणस्य सुखस्य जीवस्य स्वाभाविकत्वादिति ।-प्रश्न-केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी सबको नही जानते है ( कपिल या साख्य ) 1 उत्तर-नहीं, वे सबको जानते है। प्रश्न -अमूर्त व नित्य होनेसे जीवको न अन्ध सम्भव है, और न बन्धपूर्वक मोक्ष (नैयायिक, वैशेषिक, साख्य व मीमासक ). उत्तर-नहीं, वे मुक्त होते है । प्रश्न -अशेष बन्धका मोक्ष हो जानेपर भी जीव परिनिर्वाण अर्थात अनन्त सुख नहीं प्राप्त करता है; क्योकि, वहाँ सुख-दु.खके हेतुभूत शुभाशुभ कर्मोका अस्तित्व नहीं है। ( तार्किक मत )1 उत्तर-नहीं, वे अनन्तसुख भोगी होते है । प्रश्न-जहाँ सुख है वहाँ निश्चयसे दुख भी है, क्योकि सुख दुखका अविनाभावी है ( तार्किक ): उत्तर-नही, वे सर्व दुखों के अन्त का अनुभव करते है। इसका अर्थ यह है कि वे जीव समस्त दुखोके अन्त अर्थात् अवसानको पहुँच जाते है, क्योकि, उनके दुखके हेतुभूत कर्मोका विनाश हो जाता है और स्वास्थ्य लक्षण सुख जो कि जीवका स्वाभाविक गुण है, वह प्रगट हो जाता है।
३ बन्ध व उदयकी अटूट शृंखलाका भंग कैसे सम्भव है द्र सं./टो ३०/१५४/१० अत्राह शिष्य - ससारिणां निरन्तर कर्म
बन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति । तत्र प्रत्युत्तरं। यथा शत्रो. क्षीणावस्था दृष्ट्वा काऽपि धीमान् पर्यालोचयत्यय मम हनने प्रस्तावस्तत पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया लब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तोति। यत्पुनरन्त'कोटाकोटीप्रमितकर्म स्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जातेऽपि सत्यय जीव...कर्महननबुद्धि कापि काले न करिष्यतीति तदभव्यरवगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । प्रश्न-ससारी जीवोके निरन्तर कर्मोका बन्ध होता है और इसी प्रकार क्ौंका उदय भी सदा होता रहता है, इस कारण उनके शुद्धात्माके ध्यानका प्रसग ही नही है, तब मोक्ष कैसे होती है 1 उत्तर- जैसे कोई बुद्धिमान अपने शत्रुकी निर्मल अवस्था देखकर, अपने ननमे विचार करता है, 'कि यह मेरे मारनेका अवसर है ऐसा विचारकर उद्यम करके, वह बुद्धिमान् अपने शत्रुको मारता है। इसी प्रकार कर्मो की भी सदा एकरूप अवस्था नही रहती, इस कारण स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धकी न्यूनता होनेपर जब कर्म हलके होते है तब बुद्धिमान् भव्य जीव आगमभाषामै पाँच लब्धियोसे और अध्यात्मभाषामें निज शुद्ध आत्माके सम्मुख
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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