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मोक्ष
नहीं, क्योंकि, संसारावस्थामे जो उसकी षटोपक्रम गति देखी जाती है, वह कर्म निमित्तक होनेसे विभाव है स्वभाव नहीं । परन्तु यह स्वभाव ज्ञानस्वभावकी भाँति कोई त्रिकाली स्वभाव नहीं है, जो कि सिद्धशिला से आगे उसका गमन रुक जानेपर जीवके अभाव की आशका की जाये । त.सू./१०/६-७ पूर्व प्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥ ६ ॥ भकुलालचक्रमयतले पालादेर भीजयदशम
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पूर्व प्रयोग सगवा अभाव होनेसे धन के टूटनेसे और वैसा गमन करना स्वभाव होनेसे मुक्तजीव ऊर्ध्व गमन करता है | ६ | जैसे कि घुमाया हुआ कुम्हारका चक्र, लेपसे मुक्त हुई तुमडी, एरण्डका बीज और अग्निकी शिखा (७)
ध. २/१.१.१/४०/२ आयुष्य वेदनीयोदययोर्ध्वगमनप्रतिबन्ध कयो' सत्वात् । - ऊर्ध्वगमन स्वभावका प्रतिबन्धक आयुकर्मका उदय अरिहन्तोके पाया जाता है।
४. मुक्तजीव सर्वलोकमै नहीं व्याप जाता
स.सि /१०/४/४६१/२ स्यान्मतं यदि शरीरानुविधायी जीव भावात्स्वाभाविक लोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्तावद्विसर्पण प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुत'। कारणाभावात् । नामकर्मसंबन्धो हि संहरण विसर्पणकारणम् । सदभावान संहरण विसर्पणाभाव
= प्रश्न -- यह जीत्र शरीर के आकारका अनुकरण करता है ( दे० जीव / ३ / १ ) तो शरीरका अभाव होनेसे उसके स्वाभाविक लोकाकाशक प्रदेशो के बराबर होनेके कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जीवके तत्प्रमाण होनेका कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्मका सम्बन्ध जीवके संकोच और विस्तारका कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जानेसे जीव के प्रदेशोंका संकोच और विस्तार नहीं होता [रा वा./१०/२/१२१३/६४३/२७ ) ।
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प्र. स.टी./१४/१४/४ फरिदाह-यथा प्रदीपस्य भाजनाथावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह-प्रदीपसंबन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तार पूर्व स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं । जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेश स्वभावो भवति यस्तु प्रदेशानां सबन्धी विस्तार स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत् पूर्वलोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति पश्चात् प्रदोपवदावरण जातमेव । तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादितानरूपेण शरीरेणावृत्तस्तिष्ठन्ति तस कारणात् देशानां संहारो न भवति विस्तारस्य शरीरनामक मघोन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरण दीयते यथा हस्तपतुश्यप्रमाणवस्त्र] परुषेण मुष्टौ बद्ध तिष्ठति पुरुषाभावे संकोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले सार्द्धं मृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानी जलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसकोची न करोति । - प्रश्न - जैसे दीपकको ढँकनेवाले पात्र आदिके हटा लेनेपर उस दीपक प्रकाशका विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देहका अभाव हो जानेपर सिद्धोका आत्मा भी फेलकर लोक प्रमाण होना चाहिए । उत्तर - दीपक के प्रकाशका विस्तार तो पहले ही स्वभावसे दीपकमें रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण संकुचित होता है। किन्तु जीवका लोकप्रमाण असख्यात प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशोंका लोकप्रमाण विस्तार स्वभाव नही है । प्रश्न - जीवके प्रदेश पहले लोकके बराबर फैले हुए, आमरण रहित रहते है, फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशो के भी आवरण हुआ है ' उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योकि जीवके प्रदेश तो पहले अनादिकालसे सन्तानरूप चले आये हुए शरीरके आवरणसहित ही रहते । इस कारण जीवके प्रदेशोंका सहार तथा विस्तार शरीर नामक
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६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ
नामकर्मके अधीन है, जीवका स्वभाव नही है। इस कारण जीव के यारीरका अभाव होनेपर प्रदेशका विस्तार नहीं होता। इस विषय मे और भी उदाहरण देते है कि, जैसे कि मनुष्यको मुट्ठीके भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र भिचा हुआ है। अब वह वस्त्र मुट्ठी खोल देनेपर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता। जैसा उस पुरुषने छोडा वैसा ही रहता है । अथवा गोली मिट्टोका बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तारको प्राप्त होता जाता है, किन्तु जब वह सूख जाता है, तत्र जलका अभाव होने से संकोच व विस्तारको प्राप्त नही होता। इसी तरह मुक्त जीव भी पुरुषके स्थान अपना जलके स्थानभूत शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता । ( प. प्र /टी./५४ /५२/६ ) ।
५. मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं।
ति . प / १ / १६ जावद्धम्मं दव्वं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेट्ठति
सिद्धा पुह ह गय सित्थमृसगम्भणिहा । जहाँतक धर्मद्रव्य है वहाँतक जाकर लोकशिखर पर सब सिद्ध पृथक्-पृथक् मोमसे रहित मुचकके अभ्यन्तर आकाशके या स्थित हो जाते है |१| (शा./ ४०/२५)।
द्र. स./मू./ टी / ५१/२१७ / २ पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिह
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त्यो । ५१ । गत सिक्थमूषागर्भा कारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः - पुरुषके आकारमाने और सोक शिखर पर स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठो है। अर्थात् मोम रहित मूसके आकारको तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्बके समान पुरुषके आकारको धारण करनेवाला है । ६. मुक्तजीवोंका आकार चरमदेहसे किंचितून है स.सि./१०/४/४६८/१३ अनाकारत्वान्मुक्तानामभाव इति चेन्न, अतीतानन्तरशरीराकारत्वात् । प्रश्न- अनाकार होनेसे मुक्त जीवोका अभाव प्राप्त होता है । उत्तर- नहीं। क्योकि उनके अतीत अनन्तर शरीरका आकार उपलब्ध होता है। ( रा.वा./१०/४/१२/६४३/२४ ); ( प. प्र. / / १/५४ )
ति प./१/१० दस माह चरिमभये जस्स जारि ठाणं सो तिभागहीण ओगाहण सव्वसिद्धाण । अन्तिम भवमें जिसका पोसा आकार दीर्घता और बाहय हो उससे तृतीय भागसे कम सम सिद्धोको अवगाहना होती है ।
द्र. स. मू व. टी./१४/४४/२ किंचूणा चरम देहदो सिद्धा । | १४| तत् किडिचयूनश्व दारापाशजनितनासिकादिविद्वाणामपूर्ण
सति । वे सिद्ध परम शरीरसे विचिडून होते है, और वह किचित् ऊनता शरीर व अंगोपांग नामकर्मसे उत्पन्न नासिका आदि छिद्रोकी पोल हटके कारण से है ।
७. सिद्धलोक में मुक्तात्मानोका अवस्थान
ति. प./६/१५ माणुसलोयपमाणे संठिय तणुवाद उवरिमे भागे । सरिसा सिरा सव्त्राण हैट्ठिमभागम्मि बिसरिसा केई = मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुबाट उपरिमभागमें सब सिद्धों के सिर सहश होते है। अथस्तन भागने कोई निसरश होते है।
६. मोक्षके अस्तित्व सम्बन्धी शंकाएँ
१. मोक्षाभावके निराकरणमें हेतु
सिद्धि भक्ति / २ नाभावः सिद्धिरिटा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तेस्यारमानादिवन्धः स्वकृत फल रायान्महाता
द्रष्टा स्वदेप्रनिटिरूपसमाहारविस्तारधर्मा प्रोव्योपसव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धि 121 प्रश्न- १. मोक्षका अभाव है, क्योंकि कर्मोके क्षयसे आत्माका दीपकवत् नाश हो जाता
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