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मोक्ष
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५. मुक्त जीवोका मृत शरीर " ८. मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश ५. मुक्त जीवोंका मृतशरीर आकार ऊवं गमन व रा, वा /१०/६/८/६२७/१० केचित्प्रत्येकबुद्धसिद्धा , परोपदेशमनपेक्ष्य अवस्थान स्वशक्त्यैवाविर्भूतज्ञानातिशया । अपरे बोधितबुद्ध सिद्धा, परोप
१. उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ देशक ज्ञानाकर्षास्कन्दिन ।कुछ प्रत्येक बुद्ध सिद्ध होते है, जो परोपदेश के बिना स्वशक्तिमे ही ज्ञानातिशय प्राप्त करते है। कुछ ह. पु/६५/१२-१३ गन्धपुष्पादिभिर्दिव्यै. पूजितास्तनव. क्षणाद । बोधित बुद्ध होते है जो परोपदेशपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते है। (स, जैनाद्या द्योतयन्त्यो द्या विलीना विद्य तो यथा ।१२। स्वभावोऽयं सि. १०/६/४७२/६ )।
जिनादीनी शरीरपरमाणव । मुच्यति स्कन्धतामन्ते क्षणाक्षण
रुचामिव ।१३। दिव्य गन्ध तथा पुष्प आदिसे पूजित, तीर्थकर ९. मुक्तियोग्य ज्ञान निर्देश
आदि मोक्षगामी जीवोके शरीर, क्षण-भरमें बिजलीकी नाई स सि./१०/६/४७२/१० ज्ञानेन केन । एकेन द्वित्रिचतुर्भिश्च ज्ञान
आकाशको देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ।१२। क्योंकि, विशेषै. सिद्धि । - ज्ञानकी अपेक्षा-प्रत्युत्पन्न नयसे एक ज्ञानसे
यह स्वभाव है कि तीर्थकर आदिके शरीरके परमाणु अन्तिम सिद्धि होता है, और भूतपूर्वगतिसे मति व श्रुत दोसे अथवा मति,
समय बिजलीके समान क्षणभरमें स्कन्धपर्यायको छोड देते है ।१३। श्रुत व अवधि इन तीनसे अथवा मन पर्ययसहित चार ज्ञानोसे
म. पू/४७/३४३-३५० तदागत्य सुरा' सर्वे प्रान्तपूजाचिकीर्षया।... सिद्धि होती है। (विशेष दे०ज्ञान/I/४/११), (रा. वा./१०/१/8/
शुचिनिमल ।३४३. शरीर""शिविकार्पितम् । अग्नीन्द्ररत्नभाभासि६४७/१४)।
प्रोत्तुड्गमुकुटोद्भुवा ।३४४। चन्दनागुरुकर्पूर आदिभि' | "अप्तवृद्धिना हुतभोजिना ।३४५। । तदाकारोपमर्दन पर्यायान्तरमानयन
1३४६। तस्य दक्षिणभागेऽभूद गणभृत्संस्क्रियानल ३४७। तस्या१०. मुक्तियोग्य अवगाहना निर्देश
परस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायग. । । ।३४८॥ ततो भस्म समादाय स. सि./१०/६/४७३/११ आत्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद् द्विविधम, पञ्चकल्याणभागिन' । .. स्वललाटे भुजद्वये ३४६। कण्ठे हृदयदेशो
उत्कृष्टजवन्यभेदात । तत्रोत्कृष्ट पञ्चधनु'शतानि पञ्च विशत्युत्तराणि । च तेन सस्पृश्य भक्तित: 1३५० =भगवान् ऋषभदेवके मोक्ष कषयाजघन्यमर्ध चतुरित्नयो देशाना । मध्ये विकल्पा । एकस्मिन्नव- णकके अवसरपर अग्निकुमार देवोने भगवान के पवित्र शरीरको गाहे सिद्धयति । = आत्मप्रदेशमे व्याप्त करके रहना इसका नाम पालकीमे विराजमान किया। तदनन्तर अपने मुकुटोसे उत्पन्न की अवगाहना है। वह दो प्रकारकी है-जघन्य व उत्कृष्ट । उत्कृष्ट हुई अग्निको अगुरु, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्योंसे बढाकर उसमें अवगाहना १२५ धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम ३३ उस शरीरका वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे अरनि है। बीच के भेद अनेक है। किसी एक अवगाहनामे सिद्धि
दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी।३४३-३४६। उस अग्निकुण्डके दाहिनी होतो है। (रा वा/१०/६/१०/६४७/१५)।।
ओर गणधरोके शरीरका सस्कार करनेवाली तथा उसके बायी ओर रा. वा /१०/६/१०/६४७/१६ एकस्मिन्नवगाहे सिद्धयन्ति पूर्वभावप्रज्ञापन
सामान्य केवलियोके शरीरका संस्कार करनेवाली अग्नि स्थापित नयापेक्षया। प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापने तु एतस्मिन्नेव देशोने। - भूत
की। तदनन्तर इन्द्रने भगवान ऋषभदेवके शरीरकी भस्म उठाकर पूर्व नयसे इन ( उपरोक्त ) अवगाहनाओ में से किसी भी एकमे सिद्धि
अपने मस्तकपर चढायी ।३४७-३५०१ (म. पु/६७/२०४)। होती है और प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा कुछ कम इन्ही अवगाहनाओमे
२. संसारके चरमसमयमें मुक्त होकर ऊपरको जाता है सिद्धि होती है क्योकि मुक्तात्माओं का आकार चरम शरीरसे किचिदून रहता है। (दे० मोक्ष/)।
त. सू /१०/५ तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्ताव ।। तदनन्तर मुक्त
जीव लोकके अन्त तक ऊपर जाता है। ११. मुक्तियोग्य अन्तर निर्देश
त. सा./८/३५ द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीचय.। सम तथैव स. सि./१०/६/४७३/२ किमन्तरम् । सिद्धयता सिद्धानामनन्तर जघन्येन
सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ॥३५॥- जिस प्रकार द्रव्य कर्मों की द्वौ समयौ उत्कर्षणाष्टौ । अन्तर जघन्येनेक समय, उत्कर्षण
उत्पत्ति होनेसे जीवमे अशुद्धता आती है, उसी प्रकार कर्मबन्धन नष्ट षण्मासा' । अन्तरको अपेक्षा--सिद्धिको प्राप्त होनेवाले सिद्धोका
हो जानेपर जीवका ससारवास नष्ट हो जाता है और मोक्षस्थानकी
तरफ गमन शुरू हो जाता है। जघन्य अनन्तर दा समय है और उत्कृष्ट अनन्तर आठ समय है।
ज्ञा./४२/५६ लघुपञ्चाक्षरोच्चारकालं स्थित्वा ततः परम् । स स्वभावाद्गजधन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। (रा.
बजत्यूर्व शुद्धास्मा वीतबन्धन. ॥५६॥ = लघु पाँच अक्षरोका उच्चावा/१०/६/११-१२/६४७/२१)।
रण जितनी देरमें होता है उतने कालतक चौदहवें गुणस्थानमें दे० नोचे शीर्षक न ११ (छह महीनेके अन्तरसे मोक्ष जानेका ठहरकर, फिर कर्मबन्धनसे रहित होनेपर वे शुद्धात्मा स्वभाव हीसे नियम है)।
ऊर्ध्वगमन करते हैं।
पं. का/ता, वृ /७३/१२५/१७ सर्वतो मुक्तोऽपि । स्वाभाविकानन्त१२. सुक्त जीवों की संख्या
ज्ञानादिगुणयुक्त सन्ने कसमयलक्षणाविग्रहगत्योवं गच्छति। -द्रव्य स, सि /१०/६/४७३/३ संख्या जघन्येन एकसमये एक' सिध्यति ।
व भाव दोनो प्रकारके कर्मोंसे सर्वप्रकार मुक्त होकर स्वाभाविक उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतस ख्या। -संख्याकी अपेक्षा-जघन्य रूपसे
ज्ञानादि गुणोसे युक्त होकर एक सामयिक विग्रहगतिके द्वारा ऊपरको एक समयमे एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट रूपसे एक समयमे
चले जाते है। १०८ जीव सिद्ध होते है। (रा. बा./१०/8/१३/६४७/२६)।
द्र. स./टी/३७/१५४/११ अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । ध.१४/४,६,११६/१४३/१० सम्यकालमदोदकालस्स सिद्धा असंखेजदि
- अयोगी गुणस्थानवी जीवके चरम समयमें द्रव्य मोक्ष होता है। भागे चेत्र, छम्मासमतरिय णिव्वुइगमणणियमादो। =सिद्ध जीव
३. ऊर्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं सदा अतीत काल के असरूपातवे भागप्रमाण ही होते है, क्योकि, छह दे० गति/१/३-६ ( ऊर्ध्व गति जीवका स्वभाव है, इसलिए कर्म सम्पर्कमहोने के अन्तरसे मोस जाने का नियम है।
के हट जानेपर वह ऊपरकी ओर ही जाता है, अन्य दिशाओं में
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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