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मोक्ष
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४. मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
भतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रतिपञ्च दशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः। = क्षेत्रकी अपेक्षा-वर्तमानग्राही नयसे, सिद्धि- क्षेत्रमें, अपने प्रदेश में या आकाश प्रदेशमें सिद्धि होती है। अतीत- ग्राही नयसे जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियो में और अपहरणकी अपेक्षा मानुषक्षेत्रमें सिद्धि होती है । ( रा. वा./१०/६/२/६४६/१८) ।। ., मुक्तियोग्य काल निर्देश स. सि./१०/६/४७१/१३ कालेन कस्मिन्काले सिद्धि'। प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयच सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सपिण्यसपिण्योति सिध्यति । विशेषणावसर्पिण्या। सुषमदु.षमाया अन्त्ये भागे दुषमसुषमाया च जात. सिध्यति । न तु दुषमाया जातो दुषमायाँ सिध्यति। अन्यदा नैव सिध्यति। संहरणत सर्वस्मिन्काले उत्सपिण्यामवसर्पिण्या च सिध्यति ।कालकी अपेक्षा-वर्तमानग्राही नयसे, एक समयमै सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है। अतीतग्राही नयसे, जन्मकी अपेक्षा सामान्यरूपमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। विशेष रूपसे अवसर्पिणी कालमें सुषमा दुषमाके अन्त भागमे और दुषमासुषमामें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। दुषमामे उत्पन्न हुआ दुषमा में सिद्ध नहीं होता। इस कालको छोडकर अन्य कालमें सिद्ध नहीं होता है। सहरणकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयों में सिद्ध होता है । ( रा. वा./१०/६/३/६४६/२२)। ति. प./४/५५३.१२३६ सुसुमदुसुमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपुवाणि । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसहउप्पत्ती ।५५३। तियवासा अडमासं पक्वं तह तदियकालअवसेसे । सिद्धो रिसहजिणिदो वीरो तुरिमस्स तेत्तिए सेसे ।१२३६। सुषमादुषमा नामक तीसरे कालके ८४००,००० पूर्व, ३ वर्ष और ८ मास शेष रहनेपर भगवान ऋषभदेवका अवतार हुआ।४५३। तृतीयकालमें ३ वर्ष और 4 मास शेष रहनेपर ऋषभ जिनेन्द्र तथा इतना ही चतुर्थ काल में अवशेष रहनेपर वीरप्रभु सिद्धि
को प्राप्त हुए ।१२३६॥ ( और भी दे० महावीर/१,३)। म.पु/४१/७८ केवलार्कोदय प्रायो न भवेत् पञ्चमे युगे। -पंचमकालमें
प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्यका उदय नहीं होगा। घ, ६/१,६-८,११/प्र./पक्ति दुस्सम, (दुस्समदुस्सम ), सुस्समासुस्समा
मुसमदुम्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणहूं 'जम्हि जिणा' त्ति बयणं । जम्हि काले जिणा संभवति तम्हि चेव खवणाए पठवाओ होदि, ण अण्णकालेसु । (२४६/१) एदेण वक्वाणभि. पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकाले-सुप्पणाणं चेव दसणमोहणीयवववणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पणाणमथि। कुदा। एई दियादो आगंतुणतदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दंसण- मोहवरखवणदसणादो। एदं चेवेत्थ बक्खाणं पधाणं कादव्वं ।-दुषमा, (दु.षमादु षमा), सुषमासुषमा, सुषमा, और सुषमादु षमा कालमें उत्पन्न हुए मनुष्योके दर्शनमोहका क्षपण निषेध, करनेके लिए 'जहाँ जिन होते है' यह वचन कहा है। निस कालमे जिन सम्भव हैं उस ही कालमें दर्शनमोहको क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है, (किन्हीं अन्य आचार्योंके ) व्याख्यानके अभिप्रायसे दुषमा, अतिदुषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन चार कालोमें उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोहकी क्षपणा नही होती है। अवशिष्ट दोनो कालोंमें अर्थात सुषमादुषमा और दुषमासुषमा कालोमे उत्पन्न हुए जीवो के दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर ( इस अवसर्पिणी के ) तीसरे कालमे उत्पन्न हुए वनकुमार आदिकोके दर्शनमोहकी क्षपणा देखी जाती है। यहाँपर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए। दे० विदेह-(उपरोक्त तीसरे व चौथे काल सम्बन्धी नियम भरत व ऐरावत क्षेत्र के लिए ही है, विदेह क्षेत्रके लिए नही)।
दे०जबूस्वामी-(जम्बूस्वामी चौथेकालमें उत्पन्न होकर पंचमकाल
मे मुक्त हुए। यह अपवाद हुंडावसर्पिणीके कारणसे है। ) दे. जन्म/५/१ ( चरमशरीरियोकी उत्पत्ति चौथे काल में ही होती है)।
१. मुक्तियोग्य गति निर्देश शी. पा/मू /२६ सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो। जो सोधति चउत्थं पिच्छिज्जता जणेहि सव्वेहि। = श्वान, गधे, गौ, पशु व महिला आदि किसीको मोक्ष होता दिखाई नहीं देता, क्योंकि, मोक्ष तो चौथे अर्थात् मोक्ष पुरुषार्थ से होता है जो केवल मनुष्यगति व पुरुषलिगमें ही संभव है। (दे० मनुष्य/२/२)। स.सि /१०/६/४७२/५ गत्या कस्यां गतौ सिद्धि.। सिद्धिगतौ मनुष्यगतौ वा। -गतिकी अपेक्षा-सिद्धगतिमे या मनुष्यगतिमें सिम्मि होती है । (और भी दे० मनुष्य/२/२)। रा, वा./१०/६/४/६४६/२८ प्रत्युत्पन्ननयाश्रयेण सिद्धिगतौ सिद्धयति । भूतविषयनयापेक्षया अनन्तरगतौ मनुष्यगतौ सिद्धयति । एकान्तरगतौ चतसृषु गतिषु जातः सिद्धयति । -वर्तमानग्राही नयके आश्रयसे सिद्भिगतिमे सिद्धि होती है। भूतग्राही नयसे, अनन्तर गतिकी अपेक्षा मनुष्यगतिसे और एकान्तरगतिकी अपेक्षा चारो हो गतियोमे उत्पन्न हुओको सिद्धि होती है।
५. मुक्तियोग्य लिंग निर्देश सू पा./मू./२३ णवि सिज्मइ वत्थधरो जिणसासण जइ वि होइ तित्थयरो। एग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।२३। जिनशासनमें-तीर्थकर भी जब तक वस्त्र धारण करते है तब तक मोक्ष नहीं पाते। इसलिए एक निर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्ग है, शेष सर्व मार्ग
उन्मार्ग है। स. सि /१०/६/४७२/५ लिड्गेन केन सिद्धि अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्य'
सिद्धिर्भावतो न द्रव्यत. । द्रव्यत पुंलिङगेनैव । अथवा निम्रन्थलिड्गेन । सग्रन्थलिड्गेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया। लिगकी अपेक्षा वर्तमानग्राही नयसे अवेदभावसे तथा भूतगोचर नयसे तीनो वेदोसे सिद्धि होती है। यह कथन भाववेदकी अपेक्षा है द्रव्यवेदको अपेक्षा नही, क्योकि, द्रव्यकी अपेक्षा तो पुंलिगसे ही सिद्धि होती है। (विशेष दे० वेद/६/७ )। अथवा वर्तमानग्राही नयसे निर्ग्रन्थलिगमे सिद्धि होती है और भूतग्राही नयसे सग्रन्थलिगसे भी सिद्धि होती है। (विशेष दे० लिग)। (रा. वा./१०/६/५१६४६/३२) ।
१. मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश स. सि./१०/8/४७२/७ तीर्थेन तीर्थ सिद्धिधा, तीर्थवरेतरविल्पाद । इतरे द्विविधा' सति तीर्थकरे सिद्धा असति चेति। तीर्थ सिद्धि दो प्रकारकी होती है - तीर्थकरसिद्ध और इतरसिद्ध । इतर दो प्रकारके होते है। कितने ही जीव तीर्थ करके रहते हुए सिद्ध होते है और कितने ही जीव तीर्थकरके अभाव में सिद्ध होते है । (रा. वा/ १०/६/६/६४७/३)।
७. मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश स सि./१०/६/४७२/८ चारित्रेण केन सिद्धयति । अव्यपदेशेनै कचतु.पञ्चविकल्पचारित्रेण वा सिद्धि । -चारित्रकी अपेक्षा-प्रत्युत्पन्ननयसे व्यपदेशरहित सिद्धि होती है अर्थात न चारित्रसे होती है और न अचारित्रसे (दे० मोक्ष/३/६)। भूतपूर्वनयसे अनन्तरकी अपेक्षा एक यथारख्यात चारित्रसे सिद्धि होती है और व्यवधानकी अपेक्षा मामायिक छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन सहित चारसे अथवा परिहारविशुद्धि सहित पाँच चारित्रोसे सिद्धि होती है । (रा वा/१०/६/७/६४७/६)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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