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३. स्तव निर्देश
भक्ति
३. स्तव निर्देश १. स्तव सामान्यका लक्षण १. निश्चय स्तवन स. सा./मू./३१-३२ जोइन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधिों मुणदि आदं ।
तं खलु जिदिदियं ते भणति ये णिच्छिदा साह ।३१। जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं। तं जिदमोह साहु परमट्ठवियाणया विति ।३२॥ - जो इन्द्रियोंको जीतकर ज्ञान स्वभावके द्वारा अन्य द्रव्यसे अधिक आत्माको जानते है उन्हे,जो निश्चयनयमें स्थित साधु हैं वे वास्तवमें जितेन्द्रिय कहते है ।३१। जो मुनि मोहको जीतकर अपने आत्माको ज्ञान स्वभावके द्वारा अन्य द्रव्य भावोसे अधिक जानता है, उस मुनिको परमार्थ के जाननेवाले जितमोह कहते है । ( इस प्रकार निश्चय स्तुति कही)। यो सा अ1५/१८ रत्नत्रयमयं शुद्ध चेतन चेतनात्मक । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तबजे स्तूयते स्तव 18-जो पुरुष रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध, चैतन्य गुणोंके धारक और समस्त कर्मचनित उपाधियोंसे रहित आत्माकी स्तुति करता है, स्तवनके जानकार महापुरुषोने उसके स्तवनको उत्तम स्तवन माना है।४। द्र स./टी /१/४/१२ एकदेशशु निश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनालक्षण
भाषस्तवनेन. नमस्करोमि । एक देश शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे निज शुद्ध आत्माका आराधन करने रूप भावस्तवनसे नमस्कार करता हूँ।
१. भहन्तादिमेंसे किसी एक भक्तिमें शेष १५ भाव- नाओंका समावेश 1८/३.४१/०६/४ कधमेस्थ सेसकारणाणं सभयो। बुच्चदे अरहतवुत्ताणु
ट्राणाणुवत्तण तदणुट्टाणपासो वा अरहतभत्ती णाम। ण च एसा दसण विमुज्झदादी हि विणा ण सभव इ. विरोहादो। दंसणं विसुज्झदादीहि विणाएदिस्से (बहुमुदभत्तीए) असभवादो। एत्थ (पवयण भत्तीए) सेसकारणाणमतभावो वत्तव्यो। प्रश्न-इसमें शेष कारणोकी सम्भावना कैसे है। उत्तर-अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुठानके अनुकूल प्रवृत्ति करने को या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अरहन्तभक्ति कहते हैं। यह दर्शन विशुद्धतादिको के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है। यह (बहुश्रुत भक्ति) भी दर्शनविशुद्धि आदिक शेष कारणोके बिना सम्भव नही है। इस (प्रवचन भक्ति ) में शेष कारणोंका अन्तर्भाव कहना चाहिए। * दशभक्ति निर्देश व उनकी प्रयोग विधि --दे० कृतिकर्म। * प्रत्येक भक्तिके साथ भावत आदि करनेका विधान -दे० कृतिकर्म।
७. साधुकी आहारचर्या सम्बन्धी नवभक्ति निर्देश म पु./२०/८६-८७ प्रतिग्रहमित्युच्चै स्थानेऽस्य विनिवेशनम् । पादप्रधावनं चर्चा मति' शुद्धिश्च सा त्रयी।८६ विशुद्धिश्चाशनस्येति नवपुण्यानि दानिनाम् । • 1001 =मुनिराजका पडिगाहन करना, उन्हे उच्चस्थानपर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हे नमस्कार करना, अपने मन, वचन, कायकी शुद्धि और आहारकी विशुद्धि रखना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकारका पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती है। (पू. सि उ १६८), (चा. सा/२६/३ पर उद्धृत ): ( वसु. श्रा/२२५), ( गुण,श्रा./१५२), (का. अ./प. जयचन्द/३६०)।
६ नवधा भक्तिका लक्षण वसु श्रा/२२६-२३१ पत्तं णियपरदारे दद ठूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता।
पडिगहणं कायञ्च णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण (२२६ णेऊण णि ययगेह णि रवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि। ठविऊण तओ चलणाणधोवणं होइ कायब ।२२७। पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवे हि य फले हि ।२२८। पुष्फ जलि रिखवित्ता पयपुरओ बदण तओ कुज्जा। चऊण अट्टरुद्द मणसुद्धी होइ कामव्वा ।२२६३ णिट्छर-कक्कस वयणाइवज्जण तं विमाण वचिसुद्धि । सम्वत्थ स पुड गस्स होइ तह कायसुदी वि २३०। चउदसमलपरिसुद्ध जंदाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एमणासुद्धी ।२३। पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर अथवा अन्यत्रसे विमार्गणकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए'. ऐमा कहकर प्रतिग्रह करना चाहिए ।२२।। पुन' अपने घरमे ले जाकर निर्दोष तथा ऊँचे स्थानपर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणोको धोना चाहिए ।२२७। पवित्र पादोदकको सिरमें लगाकर पुन गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोसे पूजन करना चाहिए १२२८४ तदनन्तर चरणोके समीप पुष्पाजलि क्षेपण कर वन्दना करे। तथा आर्त और रौद्र ध्यान छोडकर मन शुद्धि करना चाहिए ।२२६॥ निष्ठुर और क्र्कश आदि वचनोके त्याग करनेको बचनशुद्धि जानना चाहिए, सब ओर सपूटित अर्थात् विनीत अंग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है ।२३०। चौदह मलदोषो (दे० आहार/I/२/३) से रहित, यरनसे शोधकर, सयमी जनको जो आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए। * मन वचन काय तथा आहार शुद्धि-दे० शुद्धि ।
२. व्यवहार स्तवन वा स्तुति रव स्तो/मू.८६ गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य तहहुत्बकथास्तुतिः। -- विद्यमान गुणोकी अल्पताको उल्लंघन करके जो उनके बहुत्वकी क्था (अढा
चढाकर कहना ) की जाती है उसे लोकमे स्तुति कहते है।६। स. सि./७/२३/३६४/११ मनसा ज्ञान चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, भूता
भूतगुणोद्भाववचनं संस्तव । - ज्ञान और चारित्रका मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है, और जो गुण है या जो गुण नही है इन दोनो का सद्भाव बतलाते हुए कथन करना सस्तव है। (रा. वा /७/२३/१/
५५२/१२)। ध,०/३,४१/८४/१ तीदा नागद-बट्टमाणकाल विसयपच परमेसराण भेदमकाऊण णमो अरहंताणं णमो जिणाण मिच्चादि णमोक्कारो दम्य ठियणिसधणो थवो णाम ।-अतीत, अनागत और बर्तमानकालविषयक पाँच परमेष्ठियोके भेदको न करके 'अरहन्तोको नमस्कार हो, जिनोको नमस्कार हो' आदि द्रब्यार्थिक निबन्धन नमस्कारका नाम स्तव है। द्र. सं /टी १/४/१३ असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादक्वचनरूपद्रव्यस्तवनेन च नमस्करोमि । = असत व्यवहार नयकी अपेक्षा उस निज शुद्ध आत्माका प्रतिपादन करनेवाले वचन रूप तव्य स्तवनसे नमस्कार करता हूँ।
३. स्तव आगमोपसंहारके अर्थमें घ, १/४.१,५५/२६३/२ बारसंगसघारौ सयलंगबिसयपणादो थवो णाम।
तम्हि जो उवजोगो वायण-पुच्छणपरियट्टणाणुवेक्वणसरूवो सो वि थओवयारेण - सब अगोंके विषयोकी प्रधानतासे बारह अगोके उपस हार करनेको स्तव कहते है। उसमें जो वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षण स्वरूप उपयोग है वह भी उपचारसे स्तव कहा जाता है। ध.१४/५.६,१२/६/६ सबसुदणाणविसओ उब जागो थवो म।- समस्त श्रुतज्ञानको विषय करनेवाला उपयोग स्तब कहलाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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