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ब्राह्मण
भंग
६ सबके द्वारा सम्मान किया जाना रूप मान्याहता अधिकारः १० अन्य जनोके सयोगमें आनेपर स्वयं उनसे प्रभावित न होकर उनको अपने रूपमें प्रभावित कर लेना रूप सम्बन्धान्तर अधिकार । इन दश प्रकारके गुणोका धारक ही वास्तव में द्विज या ब्राह्मण है।
* ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिका इतिहास-दे० वर्ण व्यवस्था। ब्राह्मी-भगवान ऋषभ देवकी पुत्री थी, जिसने कुमारी अवस्थामें दीक्षा धारण कर ली थी। (म.पू./१२/४२)।
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विकार भावको प्राप्त होकर धर्मके द्रोही बन जायेगे । जो प्राणियोकी हिसा करने में तत्पर है तथा मधु और मांसका भोजन जिन्हे प्रिय है ऐसे ये अधर्मी ब्राह्मण हिंसारूप धर्म की घोषणा करेंगे ॥५१॥ इस प्रकार यद्यपि यह ब्राह्मणोकी सृष्टि कालान्तर में दोषका बीज रूप है तथापि धर्म सृष्टिका उल्लंघन न हो इसलिए इस समय इसका परिहार करना भी अच्छा नहीं है ।५५५
६. ब्राह्मण अनेक गुण सम्पन्न होता है म. पु./३६/१०३-१०७ स यजन् याजयन् धीमान् यजमानैरुपासित ।
अध्यापयन्नधीयानो वेदवेदाङ्गविस्तरम् ।१०३। स्पृशन्नपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगते । देवत्वमात्मसात्कुर्याद इहैवाभ्यचितैर्गुणै 1१०४ नाणिमा महिमैवास्य गरिमैव न लाघवम् । प्राप्ति' प्राकाम्यमीशित्वं वशित्व चेति तद्गुणा' ॥१०॥ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देवसाद्भवम् । विभ्रक्लोकातिग धाम मह्यामेष महीयते ।१०६। धयराचरितै सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः। देवब्राह्मणता श्लाघ्यो स्वस्मिन् संभावयत्यसौ ।१०७१ - पूजा करनेवाले यजमान जिसकी पूजा करते है, जो स्वयं पूजन करता है, और दूसरोसे भी कराता है, और जो वेद और वेदांगके विस्तारको स्वय पढ़ता है, तथा दूसरोको भी पढाता है, जो यद्यपि पृथिवीका स्पर्श करता तथापि पृथिवी सम्बन्धी दोष जिसका स्पर्श नहीं कर सकते है, जो अपने प्रशंसनीय गुणोसे इसी पर्यायमें देवत्वको प्राप्त हुआ है ।१०३-१०४। जिसके अणिमा ऋद्धि (छोटापन) नहीं है किन्तु महिमा (बडप्पन) है. जिसके गरिमा अद्धि है, परन्तु लघिमा नहीं है। जिसमें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आदि देवताओंके गुण विद्यमान है ।१०। उपर्युक्त गुणोसे जिसकी महिमा बढ रही है, जो देव रूप हो रहा है, जो लोकको उक्ल घन करनेवाला उत्कृष्ट तेज धारण करता है ऐसा यह भव्यपृथ्वीपर पूजित होता है ।१०६। सत्य, शौच, क्षमा और दम आदि धर्म सम्बन्धी आचरणोंसे वह अपनेमें प्रशसनीय देव ब्राह्मणपनेकी सम्भावना करता है ।१०७
७. ब्राह्मणके नित्य कर्तव्य म पु /३८/२४.४६ इज्यां वार्ता च दत्ति च स्वाध्याय सयम तप । श्रृतोपासकसूत्रत्वात स तेभ्यः समुपादिशत ।२४। तदेषा जातिसंस्कार दढयन्निति सऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्यः क्रियाभेदानशेषत 1४६। -भरतने उन्हे उपासकाध्ययनांगसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया।२४। (क्रिया और मन्त्रसे रहित केवल नाम मात्रके द्विज न रह जाये) इसलिए इन द्विजोकी जातिके संस्कारको दृढ करते हुए सम्राट भरतेश्वरने द्विजों के लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओंके समस्त भेद कहे।४। (गर्भादानादि समस्त क्रियाएँ-दे० संस्कार/२)। १. ब्राह्मण में विद्याध्ययनकी प्रधानता म.पू/४०/१७४-२१२ का भावार्थ (द्विजोके जीवनमे दस मुख्य अधिकार
है। उनको यथाक्रमसे कहा जाता है-१. बालपनेसे ही उनको विद्या अध्ययन करना रूप अतिबाल विद्या अधिकार है; २. अपने कुलाचारकी रक्षा करना रूप कुलावधि अधिकार, ३ समस्त वर्णीमे श्रेष्ठ होना रूप वर्गोत्तम अधिकारः ४ दान देनेकी योग्यता भी इन्ही में होती है ऐसी पात्रत्व अधिकारः ५. कुमागियोकी सृष्टिको छोडकर क्षात्रिय रचित धर्म सृष्टिकी प्रभावना करना रूप सुष्टयधिकारता अधिकार, ६. प्रायश्चित्तादि कार्यों में स्वतन्त्रता रूप व्यवहारेशिता अधिकार, ७ किसी अन्यके द्वारा अपनेको गुणोमें हीन न होने देना तथा लोकमें ब्रह्महत्याको महान् अपराध समझा जाना रूप अवध्याधिकार, ८. गुणाधिकताके कारण किसी अन्यके द्वारा दण्ड नही पा सक्ना रूप अदण्ड्यता अधिकार.
भग-१. सप्त भग निर्देश-दे० सप्तभंगी/१। २ अक्षरके अनेको भंग
-दे० अक्षर, ३. द्वित्रि संयोगी भग निकालना-दे० गणित/I1/४/१ ४ अक्ष निकालना-दे० गणित/I11३। ५. भरत क्षेत्र मध्य आर्य रखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । भंग-१. भंग सामान्यका लक्षण
१. खण्ड, अंश वा भेदके अर्थ में गो, क./जी प्र/३५८/५१५/१४ अभिन्नसंख्यानां प्रकृतीना परिवर्तन भङ्ग', संख्याभेदेने करवे प्रकृतिभेदेन वा भंग' = एक सख्या रूप प्रकृतियोंमें प्रकृतियोका बदलना सो भग है अथवा संख्या भेदकर एकत्वमें प्रकृति भेदके द्वारा भंग होता है। दे० पर्याय/१/१ (अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार, भेद, छेद और भग ये एकार्थ वाचक है।) २. श्रुतज्ञानके अर्थ में ध. १३/११०/२८४/१३ अहिंसा-सश्यास्तेय-शील-गुण-नय-वचन
द्रव्यादिविकरूपा भंगा । ते विधीयन्तेऽनेनेति भंगविधि श्रुतज्ञानम् । अथवा भगो वस्तु विनाश स्थित्युत्पत्त्य विनाभावी, सोऽनेन विधीयते निरूप्यत इति भंगविधि श्रुतम् । -१. अहिसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्याथिक्के भेद भंग कहलाते है। उनका जिसके द्वारा विधान किया जाता है वह भंगविधि अर्थात श्रुतज्ञान है। २ अथवा, भगका अर्थ स्थिति और उत्पत्तिका अविनाभावी वस्तु विनाश है, जिसके द्वारा विहित अर्थाद निरूपित किया जाता है वह भगविधि अर्थात श्रुत है।
२. मंगके भेद गो क /मू /२०/६१ बोधादेन संभव भावंमूलूत्तरं ठवेदूण | पत्तेये
अविरुद्ध परसगजोगेवि भंगा हु १८२०। - गुणस्थान और मार्गणा स्थान में मूल व उत्तर भावोको स्थापित करके अक्ष सचारका विधान कर भावोके बदलनेसे प्रत्येक भग, अविरुद्ध परसंयोगी भंग, और स्वसं योगी भग होते है।
भावनिके भग गो क /मू /८२३/६६६
स्थानगत
पदगत गो,क/मू /८४४/१०८
जातिपद
सर्वपद गो क जी,प्र/८५६/१०३०
पिण्डपद
प्रत्येक्पद
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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