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भंडार दशमीवत
३. भंगके भेदोंके लक्षण
१. जहाँ जुदे जुदे भाव कहिये तहाँ प्रत्येक भंग जानने। (जैसे औदयिक भाव, उपशमभाव, क्षायिक भाव इत्यादि पृथक-पृथक (गो. क / भाषा / ८२०/६६२) २. जहाँ अन्य अन्य भावके संयोग रूप अग होड़ वहाँ पर संयोग कहिये जैसे औधिक औपानिक द्विसंयोगी या औवधिक क्षायोपशमिक पारिणामिक त्रिसंयोगी निपातिक भाष) ( गो . भाषा / ५२०/६१२) २. जहाँ निज भावके भेदनिका संग रूप ही भग होइ तहाँ स्वसंयोगी कहिये (जैसे सायिक सम्यक क्षायिक चारित्रयाला द्विसंयोगी क्षायिक भाव ) (गो, क. / भाषा / ८२०/६१२) ४. एक जीव कै एकै काल जितने भाव पाये तिनके समूहका नाम स्थान है, ताकि अपेक्षाकरि जे भग करिये तिनको स्थानगत कहिये (गो. क / भाषा / ८२३ / ११६ ) ५ एक जीवके एक काल जे भाव पाइये तिनकी एक जातिका वा जुदे जुदेका नाम पद कहिये ताकी अपेक्षा जे भग करिये तिनको पदगत कहिये (गो, क / भाषा/०२/११६) ६ जहाँ एक जातिका ग्रहण कीजिये जैसे मिश्रभाव (सायोपशमिक भाग) विज्ञानके चार भेद होते भी एक ज्ञान जातिका ग्रहण है। ऐसे जाति ग्रहणकरि जे भंग करिये ते जातिगत भंग जानने (गो. क / भाषा/०४४/२०१८) | ७. जे जुदे जुदे सर्व भावनि (जैसे क्षायोपशमिकके ही ज्ञान दर्शनादि भिन्न-भिन्न भावनिका) का ग्रहणकरि भंग कीजिये ते सर्वपदगत भंग जानने गोक / भाषा/४४/१०१०) ८. जो भाव समूह एकै काल एक जीवके एक एक ही सम्भवे सर्व न सम्भव जैसे चारों गति विधे एक जीवके एक काल विषै एक गति ही सम्भवे प्यारो न सम्भये तिस भाव समूहको पिडपट् कहिये । (गो. क / भाषा / ८५२६/१०३१) । ६ जो भाव एक जीवकै एक काल विषै वि युगपत भी सम्भवे ऐसे भान तिनि की प्रत्येकपद कहिये । (जैसे अज्ञान, दर्शन, सम्धि आदि क्षायोपशमिक भाव ।
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भंडार दशमीव्रत -यह व्रत भडार दशमिव्रत शक्ति जुपाय, (विधान सं./पृ. १३९) ( भक्त गणितकी भागहार विधिमें भाज्य राशिको भागहार द्वारा भक्त किया गया कहते है। दे० गणित /11 / २ / ६ ।
भक्त प्रत्याख्यान मरण - दे० सल्लेखना / ३ ।
श्वेताम्बर आम्नाय में प्रचलित है । दस जिन भवन भंडार चढ़ाय । नान पू ) ।
भक्तामर कथा -१ आ. रायमल (ई. १६१०
) द्वारा भाषा
में रचित कथा । २. पं जयचन्द छावडा ( ई १८१३) द्वारा हिन्दी भाषा में रचित कथा । भक्तामर स्तोत्रआ. मानतुंग ( ई. श. ७ पूर्व ) द्वारा रचित आदिनाथ भगवान् का संस्कृत छन्दबद्ध स्तोत्र । इसे आदिनाथ स्तोत्र भी कहते है । इनमें ४८ श्लोक है । (ती./२/२७५) । भक्ति - १. साधुओंकी नित्य नैमित्तिक क्रियाओके प्रयोग में आनेबाली निम्न दस भक्तियाँ है। सिद्ध भक्ति २. तमक्ति ३. चारित्र भक्ति, ४, योगि भक्ति: ५. आचार्य भक्ति, ६. पंच महागुरु भक्ति, भक्ति वीर भक्ति चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति; ह. १० समाधि भक्ति । इनके अतिरिक्त भी ११. निर्वाण भक्ति, १२. नन्दीश्वर भक्ति, और शान्ति भक्ति आदि ३ भक्तियाँ है । परन्तु मुख्य रूपसे १० ही मानी गयी है। इनमें प्रथम ६ भक्तियाँ तथा निर्वाण भक्ति संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषा में प्राप्त हैं। शेष सब संस्कृत में है । ( १ ) प्राकृत भक्तिके पाठ आ. कुन्दकुन्द व पद्मनन्दि ( ई १२७-१७६ ) कृत है । ( २ ) संस्कृत भक्तिके पाठ आ. पूज्यपाद ( ई. श. ५ ), कृत है। तथा अन्य भी भक्ति पाठ उपलब्ध है । यथा(३) भुतसागर (ई. १४०३-१९३३) द्वारा रचित सिमक्ति ।
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भक्ति
(किया/पृ. १६७) २. प्राथमिक भूमिकामे अस आदिक भक्ति मोक्षमार्गका प्रधान अंग है । यद्यपि बाहरमें उपास्यको कर्ता आदि बनाकर भक्ति की जाती है । परन्तु अन्तर ग भावो के सापेक्ष होनेपर ही यह सार्थक है अन्यथा नहीं। आमस्पर्शी ची भक्तिसे तीर्थंकरय पदकी प्राप्ति तक भी सम्भव है। इसके अतिरिक्त साइको आहारदान करते हुए नवधा भक्ति और साधुके निरयके कृतिकर्म में चतुर्विशतिस्तव आदि भी भक्ति ही है।
१. भक्ति सामान्य निर्देश
१. भक्ति सामान्यका लक्षण - १. निश्चय
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नि, सा./ता.वृ/१३४ निजपरमात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानामनोधारणात्मकेषु शुद्धरत्रयपरिणामेषु भजनं भतिराराधनेत्यर्थ' एकादशपदेषु श्रावकेषु सर्वे शुद्धरत्नत्रयभक्ति कुर्वन्ति । * निज परमात्म तत्व के सम्यक् श्रद्धान- अवबोध- आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय परिणामोका जो भजन वह भक्ति है, आराधना ऐसा उसका अर्थ है। एकादशपदी श्रावकों में सब शुद्ध रत्नत्रयकी भक्ति करते है ।
ससा / ता / १०३-१०६/२४२/११ भक्तिः पुन निश्चयेन वीतरागसम्यग्दन] शुद्धात्म स्वभावनारूपा चेति । निश्चय नयसे वीतराग सम्यग्दृष्टियोके शुद्ध आत्म तत्त्वकी भावनारूप भक्ति होती है।
२. व्यवहार
निसा // ११४ मोक्संगपुराणं गुणभेद आणि कुमदि परम भक्ति वमहारणयेण परिकहियं ॥१३३॥
गत पुरुषोका गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीवको व्यवहार नयसे भक्ति कही गयी है।
स. सि. / ६ / २४ / ३३६/४ भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति भावकी विशुद्धिके साथ अनुराग रखना भक्ति है।
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म बा. / वि. / ४० / ९५६ / २० का भती. अदादिगुणानुरागो भक्ति - अदादि गुणोंमे प्रेम करना भक्ति है (भा.पा./टी./०७/२२१/१०) | स. साता १०१-१०८/२४३/९९ भक्ति. पुन सम्यवान भण्यते यनहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठयाराधनारूपा व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियोके पंचपरमेष्ठीको आराधनारूप सम्यक् भक्ति होती है। पं. ध/उ/४७० तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । । उन दोनो में दर्शन मोहनीयका उपशम होनेसे वचन काय और मन सम्बथी उतपनेके अभावको भक्ति कहते है।
२. निश्चय मक्ति ही वास्तविक मक्ति है।
सेसिपि जो जो जीव मोक्ष
स. सा./मू./३० णयरम्मि यण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे ते ण केवलिगुणा ख़ुदा होति ॥३०॥ जैमे नगरका वर्णन करनेपर भी राजाका वर्णन नहीं किया जाता इसी प्रकार शरीरके गुणका स्तवन करनेपर बेबसीके गुणोंका स्तवन नहीं होता है । ३०१ ३. सच्ची भक्ति सम्यग्दृष्टिको ही होती है
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घ. १२.४१/०६/५ च एसा ( बरं इत भत्ती ) समुदादीह दिया संभव विरोहादो यह अर्हन्त भक्ति) दर्शन विशुद्धि । - ( आदिके बिना सम्भव नही है, क्योकि ऐसा होनेमें विरोध है । मोमा, प्र. / ७/३२७/८ यथार्थपनेकी अपेक्षा तौ ज्ञानी के साची भक्ति है - अज्ञानीक नाही है ।
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१२. दौलत / २ / १४३/२५६ बाह्य लौकिक भक्ति इससे संसार के प्रयोजनके लिए हुई, वह गिनती में नहीं। ऊपरकी सब बाते निःसार (धोथी) है, भाव ही कारण होते है, सो भाव-भक्ति मिध्यादृष्टि के नहीं होती ( सम्पग्दृष्टिके ही होती है ) ।
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