________________
भक्ति
२. भक्ति विशेष निर्देश
बहुश्रुतभातका साथ अनुराग बहुत, और प्रति
४. व्यवहार भक्तिमें ईश्वर कर्तावादका निर्देश भा. पा/म् /१६३ ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिर जणा णिच्चा। दितु बर भाव सुद्धि दसण णाणे चरित्ते य १६३। जो नित्य है, निरजन है, शुद्ध है तथा तीन लोकके द्वारा पूजनीक है, ऐसे सिद्ध भगवान ज्ञान-दर्शन और चारित्रमे श्रेष्ठ उत्तम भावकी शुद्धता
दो।१६३। प्रसा.//1. पणमामि वढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं .
तीर्थ रूप और धर्म के कर्ता श्री वर्धमान स्वामीको नमस्कार हो।। पं. वि /२०/१,६ त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दै क्कारण कुरुष्व । मयि किकरेऽत्र करुणा तथा यथा जायते मुक्ति ।१। अपहर मम जन्म दया कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये। तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव पाल पित्वम् ।६। तीनो लोको के गुरु और उत्कृष्ट सुखके अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर । इस मुझ दासके ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये ।। हे देव । आप कृपा करके मेरे जन्म ( संसार ) को नष्ट कर दीजिए. यही एक बात मुझे आपसे कहनी है। परन्तु कि मै इस संसारसे अति पीडित हूँ, इसलिए मै बहुत बकवादी हुआ हूँ। थोस्सामि दण्डक/७ कित्तिय वदिय महिया' एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धी। आरोग्गणाणलाह दितु समाहिं च मे बोहिं 1७1 - वचनोंसे कीर्तन किये गये, मनसे वन्दना किये गये, और कायसे पूजे गये ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करे ।
२. भक्ति विशेष निर्देश
१. महन्त, आचार्य, बहुश्रुत व प्रवचन भक्तिके लक्षण स, सि /६/२४/३३६/४ अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति । =अर्हन्त, आचार्य, बहुत, और प्रवचन इनमे भावोकी विशुद्धताके साथ अनुराग रखना अरहन्तभक्ति आचार्य भक्ति, बहुश्रुतभक्ति, और प्रवचनभक्ति है। (रा. वा/६/२४/ १०/५३०/६), (चा.सा/५१/ ५/१): (भा.पा./टी./७७/२२२/१०)। ध. ८/३,४१/८४-६०/४ तेसु ( अरहतेमु ) भत्ती अरहतमत्ती। अरहतवुत्ताणूट्ठाणाणुवत्तणं तदणट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम भारसंगपारया बहुमुदा णाम, तेसु भत्ती-तेहि वमरवाणिद आगमस्थाणुवत्तणं तदणूट्ठाणपासो वा बहुमुदभत्ती। तम्हि (पवयणे') भत्ती तस्थ पदुप्पादिदस्थाणुट्ठाणं । ण च अण्ण हा तत्थ भत्ती सभवई, असं प्रणे संपुण्णववहारविरोहादो। अरहन्तोमें जो गुणानुरागरूप भक्ति होती है, वह अरहन्त भक्ति कहलाती है । अथवा अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अरहन्त भक्ति कहते है। जो बारह अंगोके पारगामी है वे बहुश्रुत कहे जाते है, उनके द्वारा उपदिष्ट आगमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श करनेको बहुश्रुतभक्ति कहते हैं ।...प्रवचनमें (दे० प्रवचन ) कहे हुए अर्थका अनुष्ठान करना, यह प्रवचनमें भक्ति कही जाती है। इसके बिना अन्य प्रकारसे प्रवचन में भक्ति सम्भव नहीं है, क्योकि असम्पूर्ण में सम्पूर्ण के व्यवहारका विरोध है।
५. प्रसन्न हो इत्यादिका प्रयोजन
आप्त. परि/टी /२/८/६ प्रसाद, पुन: परमेष्ठिनस्तद्विनेयान प्रसन्नमनविषयत्वमेव, वीतरागाणा तुष्टिलक्षणप्रसादादसम्भवात् को पासभववत् । तदाराधकजनै स्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान 'प्रसन्न.' इत्यभिधीयते, रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासेव्य तत्फलमवाप्नुवन्त सन्तो 'रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नम्' इति प्रतिपाद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्ठिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षण प्रतिपाद्यमानस्तद्विनेयजना 'भगवत्परमेष्ठिन प्रसादादस्मा श्रेयोमार्गाधिगम सपन्न' इति समनुमन्यन्ते । = परमेष्ठीमें जो प्रसाद गुण कहा गया है, वह उनके शिष्योका प्रसन्न मन होना ही उनकी प्रसन्नता है, क्योकि वीतरागोके तुष्टनात्मक प्रसन्नता सम्भव नही है। जैसे क्रोधका होना उनमें सम्भव नहीं है। किन्तु आराधकजन जब प्रसन्न मनसे उनकी उपासना करते है तो भगवानको 'प्रसन्न' ऐसा कह दिया जाता है । जैसे प्रसन्न मनसे रसायन ( औषधि ) का सेवन करके उसके फलको प्राप्त करनेवाले समझते है और शब्द व्यवहार करते है कि 'रसायन' के प्रसादसे यह हमे आरोग्यादि फल मिला। उसी प्रकार प्रसन्न मनसे भगवान् परमेष्ठीकी उपासना करके उसके फल-श्रेयोमार्गके ज्ञानको प्राप्त हुए उनके शिष्यजन मानते है कि भगवन् परमेष्ठी के प्रसादसे हमें श्रेयोमार्ग का ज्ञान हुआ। मो. मा. प्र/५/३२६/१७ उस ( अर्हत ) के उपचारसे यह विशेषण (अध
मोद्धारकादिक ) सम्भव है। फल तो अपने परिणामनिका लागै है । दे० पूजा/२/३ जिन गुण परिणत परिणाम पापका नाशक समझना
चाहिए।
२. सिद्ध भक्तिका लक्षण नि, सा./म् /१३४-१३५ सम्मत्तणाण चरणे जो भत्ति कुणइ साबगो समणो। तस्स दुणिज्बुदि भत्तो होदि त्ति जिणेहि पण्णत्त ।१३४॥ मोक्खं गयपुरिसाण गुणभेदं जाणिऊण तैसि पि।' जो कुणदि परमभक्ति ववहारणयेण परिकहियं ॥१३॥ - जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रकी भक्ति करता है, उसे निवृतिभक्ति (निर्वाण की भक्ति ) है, ऐसा जिनोंने कहा है ।१३४॥ जो जीव मोक्षगत पुरुषोका गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीवके व्यवहार नगसे निर्वाण भक्ति कही है ।१३५॥ द्र.सटी/2011 पर उद्धृत-सिद्धोऽहं सुद्धोऽह अण तणाणाइगुण
समिद्रोह । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य। इति गाथाकथितसिद्धभक्तिरूपेण । =मै सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्तज्ञानादि गुणोका धारक हूँ, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असरख्यात प्रदेशी हूँ, तथा अमूर्तिक हूँ।१। इस गाथामे कही हुई सिद्धभक्तिके रूपसे । पं का /त प्र/१६६ शुद्वात्मद्रव्य विश्रान्तिरूपां पारमार्थिकी सिद्वभक्तिमनुबिभ्राण, · | == शुद्वात्म द्रव्यमे विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्ध
भक्ति धारण करता हुआ । द्र.सं./टी/१७/01/८ सिद्धपदनन्तज्ञानादिगुणस्वरूपोऽहमित्यादि व्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुताना । 'मै सिद्ध भगवान के समान अनन्तज्ञानादि गुण रूप हूँ' हत्यादि पवहारसे सविक्लप सिद्धभक्तिके धारकः ।
३. योगिमत्तिका लक्षण नि. सा./मू /१३७ रायादीपरिहारे अप्पाणं जोदु जंजदे साहू। सो जोग
भत्तिजुत्तो इदरस्स य वह हवे जोगी।१३७१ जो साधु रागादिके परिहारमे आत्माको लगाता है ( अर्थात् आत्मामें आत्माको लगाकर रागादिका परिहार करता है ) वह योगिभक्ति युक्त है, दूसरेको योग किस प्रकार हो सकता है ।१९७1/1न मा/म/१३८)।
* सहलेखनाकी स्मृति-दे० भ, आ. अमित./२२४८-२२४२)।
* भक्तिका महत्व-देविनय/२ तथा पूजा/२/४।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org