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ब्रह्मचर्य
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४. शंका-समाधान
एगणर भुत्तणारिगम्भम्मि। उक्कोसं णवलवरखा जापति एगवेलाए ।६। णव लबखाणं मझे जायइ इकस्स दोण्ह व समत्ती। सेसा पुण एमेत्र य बिलय बच्चति तत्थेत्र 191 केवली भगवादने मैथुनके सेवन में नौ लाख सूक्ष्म जीवोका घातत्वताया है,इसमें सदा विश्वास करना चाहिए ।३। तथा स्त्रियोकी योनिमें दो इन्द्रिय जीव उत्पन्न होते है। इन जीवोकी सख्या एक, दो, तीनसे लगाकर लाखोतक पहुँच जाती है।४। जिस समय पुरुष स्त्री के साथ सभोग करता है, उस समय जैसे अग्निसे तपायी हुई लोहेकी सलाईको बॉसकी नली में डालनेसे नलीमें रखे तिल भस्म हो जाते है, वैसे ही पुरुषके सयोगसे योनिमे रहनेवाले सम्पूर्ण जीवोंका नाश हो जाता है। पुरुष और स्त्रीके एक बार संयोग करनेपर स्त्रीके गर्भ में अधिक से अधिक नौ लाख पंचेन्द्रिय मनुष्य उत्पन्न होते है।६। इन नौलाख जीवों में एक या दो जीव जीते है बाकी सब जीव नष्ट हो जाते है ।७। ६. शीलकी प्रधानता शी. पा./म./१६ जीवदयादम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे। सम्म६ सण जाणं तओ य सीलस्स परिवारो।१६! == जीव दया, इन्द्रिय दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप ये सर्व शीलके परिवार है ।१६॥
७. ब्रह्मचर्यकी महिमा भ, आ./मू /१११५/११२३ तेल्लोकाडविडहणो कामग्गी बिसयरुवरखपज्जलिओ। जोव्वणतेणिल्लचारी जंण डहइ सो बइ धण्णो ।१११५॥ -कामाग्नि विषयरूपी वृक्षोका आश्रय लेकर प्रज्वलित हुआ है, त्रैलोक्यरूपी वनको यह महाग्नि जलानेको उद्यत हुआ है। परन्तु तारुण्य रूपी तृणपर सचार करनेवाले जिन महात्माओको वह जलाने में असमर्थ है वे महात्मा धन्य है। (अन, ध./४/६६) । अन./१/६० या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुच्चप्रवृत्ति । तब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति पर प्रमोदम् ॥६॥ -शुद्ध और बुद्ध अपने चित्स्वरूप ब्रह्ममें परद्रव्योंका त्याग करनेवाले व्यक्तिको अप्रतिहत परिणति रूप जो चर्या होती है उसीको ब्रह्मचर्य कहते हैं। यह बत समस्त बतोमें सार्वभौमके समान है जो पुरुष इसका पालन करते है। वे ही पुरुष सर्वोत्कृष्ट आनन्द-मोक्ष सुखको प्राप्त किया करते हैं ।६०। स्या. म /२३/२७७/२५ पर उद्धृत एकरात्रौषितस्यापि या गतिब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रण प्राप्त शक्या युधिष्ठिर । हे युधिष्ठिर। एक रात ब्रह्मचर्यसे रहनेवाले पुरुषको जो उत्तमगति मिलती है, वह गति हजारो यज्ञ करनेसे भी नही होगी।
स्त्रैण पौस्न रूप रति परिणाम न होनेसे बाह्य मे रति परिणाम रहित दो द्रव्योके रहनेपर भी मेथुनका व्यवहार नहीं होता। -स्त्री और पुरुषके कर्म पक्षमें पाकादि क्रिया और बन्दनादि क्रियामें मैथुनत्वका प्रसग उचित नही है, क्योकि स्त्री और पुरुपके संयोगसे होनेवाला कर्म वहाँ विवक्षित है, पाकादि क्रिया तो अन्य से भी हो जाती है। (स. सि /७/१/३५३/११)। २.मैथुनके लक्षणसे हस्तक्रिया आदिमें अब्रह्म सिद्ध नहीं होगा रा. वा./७/१६/५-८/५४३-५४४/३३ न वेतद्युक्तम् । कुत.. एकस्मिन्नप्रसङ्गात् । हस्तपादपुद्गलसघट्टनादिभिरब्रह्मसेवमाने एकस्मिन्नपि मैथुनमिष्यते, तन्न सिद्ध्यति ।५। यथा स्त्रीषुसयो रत्यर्थे सयोगे परस्पररतिकृतस्पर्शाभिमानात् सुरव तथैकस्यापि हस्तादिसंघट्टनात स्पर्शाभिमानस्तुल्यः । तस्मान्मुख्य एव तत्रापि मैथुनशब्दलाभ: रागद्वेषमोहाविष्टत्वात् । यथै कस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात सद्वितीयत्व तथैकस्य चारित्रमोहोदयाविष्कृतकाम पिशाचवशीकृतस्वाव सद्वितीयत्व सिद्धे. मैथुन व्यवहारसिद्धि.। -प्रश्न- यह मैथुन. का लक्षण युक्त नहीं है, क्योकि एक ही व्यक्तिके हस्तादि पुद्गल के रगडसे अबके सेवन करने पर भी मैथुन क्रिया मानी गयी है । परन्तु इससे (मैथुनके लक्षणसे) वह सिद्ध न होगी। उत्तर-जिस प्रकार स्त्री और पुरुषका रतिके समय संयोग होनेपर स्पर्श सुख होता है, उसी तरह एक व्यक्तिका भी हाथ आदिके संयोगसे स्पर्श सुखका भान होता है, अत हस्तमैथुन भी मैथुन कहा जाता है, यह औपचारिक नहीं है, क्योकि राग, द्वेष, मोहसे आविष्ट है। (अन्यथा इससे कर्म बन्ध न होगा)।७। यहाँ एक ही व्यक्ति चारित्र मोहके उदयसे प्रकट हुए कामरूपी पिशाचके सम्पर्कसे दो हो गया है और दोके कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है।
४. शंका-समाधान
१. स्त्री पुरुषादिका सहवास मान अब्रह्म नहीं हो सकता रा. वा./७/१६/६/५४४/१४ मिथुनस्य भाव (मैथुन) इति चेन्न द्रव्यद्वयभवनमात्रप्रसगादिति, तदसत अभ्यन्तरपरिणामाभावे बाह्यहेतुरफलत्वात। अभ्यन्तरचारित्रमोहोदयापादितम्त्रैण पौस्नात्मक रतिपरिणामाभावात बाह्यद्रव्यद्वयभवनेऽपि न मैथुनम् । स्त्रीपुसमो. कर्मेति चेन्न पच्यादिक्रियाप्रसगात इति, तदसाप्रतम, कुत' तद्विषयस्यैव ग्रहगात् । तयोरेव यत्कम तदिह गृह्यते, पच्यादिर्म पुन अन्येनापि क्रियते। नमस्काराद्य पयुक्तस्य बन्दनादिमिथुनकमणि न मैथुनम् । = "मिथुनस्य भाव ' इस पक्ष में जो दो स्त्री-पुरुष रूप द्रव्योकी सत्ता मात्रको मैथुनरवका प्रसग दिया जाता है, वह उचित नही है, क्योंकि अभ्यन्तर चारित्र मोहोदय रूपी परिणामके अभाव मे बाह्य कारण निरर्थक है। उसो तरह अभ्यन्तर चारित्रमोहोदय के
३. परस्त्री त्याग सम्बन्धी ला. सं /२/श्लोक नं ननु यथा धर्मपत्न्या यैव दास्या क्रियैब सा। विशेषानुपलब्धेश्च कथं भेदोऽवधार्यते ॥१८६। मैव स्पर्शादि यद्वस्तु बाह्य विषयसंज्ञिकम् । तद्ध तुरतादृशो भावो जीवस्यैवास्ति निश्चयात् ।१६१। दृश्यते जलमे कमेकरूपं स्वरूपत । चन्दनादिवनराजि प्राप्य नानात्तमध्यगात ११२॥ त्याज्यं वत्स परस्त्रीषु रति तृष्णोपशान्तये। विमृश्य चापदां चक्र लोकद्वयविध्य सिनीम् ।२०६। आस्ता यन्नरके दुख भावतीब्रानुवे दनाम् । जातं परांगनासक्ते लोहागनादिलिगनात् ।२१२। इहैवानर्थसंदोहो यावानस्ति सुदुस्सह तावान्न शक्यते वक्तुमन्वयोषिन्मतेरित ।२१३१ - प्रश्न-विषय सेवन करते समय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है ही क्रिया दासीमे की जाती है। अत क्रियामे भेद न होनेसे उन दोनोमे कोई भेद नही होना चाहिए।१८। उत्तर--कर्मधरामे वा परिणामोमे शुभ अशुभपना होने में स्पर्श करना या विषय रोवना आदि बाह्य वस्तु ही कारण नहीं है किन्तु जो बोके वैसे परिणाम होना ही निश्चय कारण है। ( अर्थात् दासीके भेवन ती लालसा होती है इससे तोव अशुभ कर्मका बग्ध होता है) १९६१: जल एक स्वरूपका होनेपर भी चन्दनादि बनराजिको प्राप्त होने पर पात्रके भेदसे नाना प्रकारका परिणत हो जाता है। उसी प्रकार दासी व धर्मपत्नी के साथ एक सी क्रिया होने पर भी पात्र भेदसे परिणामोमे अन्तर होता है तथा परिणामोमे अन्तर होनेसे शुभ व अशुभ कर्मबन्ध में अन्तर पड़ जाता है ।११२। हे वत्स । परस्त्री में प्रेम करना आपत्तियोका स्थान है, वह परस्त्री दोनो लोकोके हितका नाश करनेवाली है, यही समझकर अपनी तृष्णा व लालसाको शान्त करनेके लिए परस्त्रीमे प्रेम करना छोड।२०६। परस्त्री सेवनेवालोको नरकमे उनकी तीन लालसाके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा० ३-२५
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