________________
भरत कूट
तत्क्षण मन पर्यय व केवलज्ञान प्राप्त किया । ( ४६ / ३६३-३६५ ) (विशेष दे० लिंग / २) फिर चिरकाल तक धर्मोपदेश दे मोक्षको प्राप्त किया (४७/३८) भगवाद के सुरम्य श्रोता ( ७६/५२१) तथा प्रथम चक्रवर्ती थे। विशेष परिचय- दे० शलाकापुरुष । २. प. पु. / सर्ग / श्लोक न राजा दशरथका पुत्र था ( २५/३५ ) माता केकयी द्वारा वर मॉगनेपर राज्यको प्राप्त किया था ( २५/१६२ ) । अन्तमे रामचन्द्र जी के बनवाससे लौटनेपर दीक्षा धारण की (८६ / ६) और कर्मोंका नाशकर मुक्तिको प्राप्त किया ( ८७/१६) । ३. यादववंशी कृष्णजीका २२ पुत्र ३० इतिहास / १० / २ । ४. ई० ६४५-६०२ में मान्यखेटके राजा कृष्ण तृतीयके मन्त्री थे । (हि. जै. सा. इ / ४६ कामता ) ।
भरत कूट - १. विजयार्ध पर्वतकी उत्तर व दक्षिण श्रेणियोपर स्थित कूट व उसके एक बेन दे० लोक २/४०२ हिमवाद पतस्थ भरत कूट व उसका स्वामी देव - दे० लोक /५/४, | भरत क्षेत्र - १ अढाई द्वीपोमें स्थित भरत क्षेत्रका लोकमें अवरथान व विस्तार आदि दे० लोक / २/२ इसमे वर्तनेवाले उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी कालकी विशेषताएँ- दे० काल ।
३. रा बा./१/१०/१२/१००/६ विजयार्थस्य दलित जलस्तरत गहासिन्ध्यामध्यभागे निमीता नाम नगरी द्वादशयोजनायामा, नवयोजनविस्तारा तस्यामुत्पन्न सर्वराजलक्षणसंपन्नो भरतो नामाचाचक्रधर पट्खण्डाधिपति अवसर्पिण्या राज्यविभागकाले तेनादी वाद तथोगारत इत्याख्यायते वर्ष अथमा जगतोनादित्वादहेतुका अनादिसमन्धपारिणामिकी भरतसंज्ञा । - विजयार्धमे, मुझसे उत्तर और गंगा-सिन्धु नदियों के मध्य भागने १२] योजन सम्बी योजन चोडी विनीता नामकी नगरी थी। उसमे भरत नामका षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती हुआ था । उसने सर्व प्रथम राज्य विभाग करके इस क्षेत्रका शासन किया था अत इसका ( इस क्षेत्रका ) नाम भरत पडा अथवा, जेसे ससार अनादि है उसी तरह क्षेत्र आदिके नाम भी किसी कारण से अनादि है ।
भरतेश्वराभ्युदय -
आशाधर ( ई० ११७३-१२४३ ) द्वारा संस्कृत काव्य में रचित ग्रन्थ । भरुकच्छ-भरत क्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य / ४ ।
भर्तृप्रपंच-वेदान्त प्रत्थोके टीकाकार थे यह वैश्वानर उपासक थे । ब्रह्मके पर व अपर दोनो भेदोको सत्य मानते थे । समय-ई. श ७ ( स. म / परि च / ४४० ) ।
भर्तृहरि - १. राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। तदनुसार इनका समय ई. पू ३७ जाता है (हा ४ / पन्नालाल ) २. चीनी यात्री हरिसने भी एक तु हरिका उलेख किया है। जिसकी मृत्यु ई० ६५० में हुई बतायी है। समय ई० ६२-६३० ४ पं. पन्नालाल ) । ३. राजा सिंहलके पुत्र व राजा मुजके छोटे भाई थे । राजा मुजने इन्हे पराक्रमी जानकर राज्यके लोभसे देश से निकलवा दिया था। पीछे ये एक तापसके शिष्य हो गये और १२ वर्षकी कठिन तपस्या के पश्चात् स्वर्ण रसकी सिद्धि की । ज्ञानार्णव के रचयता आचार्य शुभचन्द्र के लघु भ्राता थे। उनसे सम्बोधित होकर इन्होने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली थी। तब इन्होने शतकत्रय लिखे । विद्यावाचस्पतिने तत्त्वबिन्दु नामक ग्रन्थमे इनको धर्मबाह्य बताया है, जिससे सिद्ध होता है कि अवश्य पीछे जाकर जैन साधु
-
गये थे । राजा मुंजके अनुसार आपका समय - वि. १०६०-१९२५ ( ई० १००३ १०६ ) - विशेष वे० इतिहास / २ / १ (ज्ञा.प्र./१० पक्षा तास ४ आप ई० से ४५० में एक अजैन बड़े वैय्याकरणी थे। आपके गुरु मसुरात थे। (सि. मि. / २२/१० महेन्द्र); (०शुभचन्द्र
Jain Education International
२०७
भव
स.सि /१/२१/१२५/६ आयुर्नामकर्मोदयनिमित्त आत्मन पर्यायो भव आयुनामकर्म के उदयका निमित पाकर जो जीवकी पर्याय होती है उसे भय कहते है। (रा. वा /१/२१/१/०६/६ ) 1
ध १०/४, २, ४, ८ / ३५/५ उत्पत्तिवारा भवा । उत्पत्तिके वारीका नाम भव है।
भवन
थ. १५/२/६/९४ उप्पण्णनमपहूडि जान चरिमसमप्ति जो अवस्थाविसेसो सो भवो णाम । उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक जो विशेष अवस्था रहती है, उसे भव कहते है ।
-
भ, आ /वि/२५/०५/१८ पर उद्धृत - देहो भवोत्ति उच्चदि । देह को भव कहते है।
२. क्षुल्लक मवका लक्षण
ध १४/५.६,६४६/५०४/२ आउअबधे सते जो उवरि विस्समणकालो सव्वजहणणो तस्स खुद्दा भवग्गण ति सण्णा । सो तत्तो उबर होदि असलेयावर खुद्दाभवहणं ति बुझे आयु बन्धके होनेपर जो सबसे जघन्य विश्रमण काल है उसकी क्षुल्लक भव ग्रहण सज्ञा है । वह आयु बन्धकालके ऊपर होता है । असंक्षेपाद्धा के ऊपर ( मृत्युपर्यन्त ) क्षुल्लक भवग्रहण है ।
★ अन्य सम्बन्धित विषय
१ सम्यग्दृष्टिको भव धारणकी सीमा २. आवकको भव धारणकी सीमा ३ एक अन्तर्मुहूर्त में सम्भव क्षुद्रभवका प्रमाण ४. नरक गतिमें पुनः पुनः भन धारणकी सीमा ५ लब्ध्यपर्याप्तकों में पुन - पुन. भव धारणकी सीमा
-६० दर्शन/
- दे० श्रावक / २ ॥ - दे० आयु / ७ । ३० जन्म /६/१०। - दे० आयु / ७ ।
भवन भवनोमे रहनेवाले देवोको भवनवासी देव कहते हैं जो असुर आदिके भेद से १० प्रकारके है। इस पृथिवीके नीचे रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियो मेसे प्रथम रत्नप्रभा पृथिवीके तीन भाग हैखरभाग, पकभाग व अब्बहुल भाग। उनमेसे खर व एक भाग में भवनवासी देव रहते है, और अम्बहुल भाग में प्रथम नरक है। इसके अतिरिक्त मध्य लोकमे भी यत्र-तत्र भवन व भवनपुरो में रहते है ।
१. भवन व भवनवासी देव निर्देश
१. भवनका लक्षण
ति. प. ३ / २२ रयणप्पहार भनणा | २२| रत्नप्रभा पृथिवीपर स्थित (भवनवासी देवोके) निवास स्थानोको भवन रहते है (ति प./ 4/७), (त्रि सा / २६४ ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
घ. १४ / ५, ६, ६४९/४६५/५ वलहि- कूडविवज्जिया सुरणरावासा भवणाणि नाम । = बलभि और कूटसे रहित देवो और मनुष्यो के आवास भवन कहलाते है।
२. भवनपुरका लक्षण
का
ति प / ३ / २२ दीवसमुद्दाण उवरि भवनपुरा | २२| द्वीप समुद्रोके ऊपर स्थित भरनवासी देवोंके निवास स्थानोको भवनपुर कहते है। (सि. प./६/०), (त्रि. सा./२१४)
३. भवनवासी देवका लक्षण
स.सि /४/१०/२४३/२ भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवनवासिन' । - जिनका स्वभाव भवनोमे निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते है (रा.वा./२/१०/२/२१६/३) ।
1
www.jainelibrary.org