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भक्ष्याभक्ष्य
सास./२/७ उदुम्बरफलान्येव नादेवानि इगारमभि नि साधारणान्येव साहूराभितानि च ॥७८॥ सम्यग्दृष्टियोको उम्बर फल नहीं खोने चाहिए क्योकि वे नित्य साधारण (अनन्तकायिक ) है । तथा अनेक त्रस जीवोसे भरे हुए है ।
दे, श्रावक /४/१ पाँच उम्बर फल तथा उसीके अन्तर्गत खूबी व सॉपकी छतरी आदि भी त्याज्य है ।
२. अनजाने फलोंका निषेध
दे.
उदुम्बर उदुम्बर त्यागी, जिन फलो का नाम मालूम नही है। ऐसे सम्पूर्ण अजानफलो को नहीं खाये
३. कंदमूलका निषेध व कारण
भ.आ./मू./१५३३/१४९४ यति
मदीयं कुसीन पुरुष प्याज, लहसुन वगैरह कन्दोंका भक्षण नही करते है। .आ./२५ दलवीय अपरिगष्यकं तु आम कि पि Marati fasच्छति ते धीरा । २५। अग्नि कर नही पके पदार्थ फल कन्दमूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर मुनि खानेकी इच्छा नही करते। ( भा. पा./मू./१०३) । रा/८५ अव
विधातामणिराणि
फल थोडा परन्तु इस हिंसा अधिक होनेसे सचिन्त मूली, गाजर, आर्द्रक,... इत्यादि छोड़ने योग्य है । ८५ । ( स सि./७/२१/ ३६९/१० ) ।
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भ.आ./लि. ९२०६/९२०४/१६ फल अदारित मूल पत्र, साकु क च वर्जयेत् । - नहीं विदारा हुआ फल, मूल, पत्र, अकुर और कन्दका त्याग करना चाहिए। (यो. सा. अ / ८ /६३ ) साध - / / /१६-१७ नातीरणकालादिवर्जयेत्। आजन्म तद्वभुजां ह्यल्प, फलं घातश्च भूयसाम् । १६। अनन्तकाया सर्वेऽपि, सदा या दवा यदेकमणि सहन्तुं प्रवृत्ती हृदयनन्तकार 1१०1 धार्मिक धावक, माली, सूरम, कलींदा और द्रोणपुष्प आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको जीवन पर्यन्तके लिए धो देवे क्योंकि इनके खाने वालेको उन पदार्थोंके खानेमें फल थोडा और घात बहुत जीवोका होता है | १६ | दयालु श्रावकोके द्वारा सर्वदाके लिए सब ही साधारण वनस्पति त्याग दी जानी चाहिए क्योकि एक भी उस साधारण वनस्पतिको मारनेके लिए प्रवृत्त व्यक्ति अनन्त जीवोंको मारता है|१७|
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चा. पा. टी / २१/४२/१० मूतनासिका चिनीकन्दलफलकुशुम्भशाक्कलिंगफलसूरणकन्दस्यागश्चमूम्ही कमलकी डी लहसुन, तुम्बक फल, कुसुभेका शाक, कलिग फल, आलू आदिका त्याग भी कर देना चाहिए ।
भा. पा/टी./१०१/२५४/३ कन्दं सूर सनं पण्डाल हस्तां शाकं उत्पत्तमूलं वनेर आईवरवर्णिनी हरित्यर्थ किमपि ऐव अशित्वा भ्रमिस्त्वं हे जीव अनन्तससारे । - कन्द अर्थात् सूरण, लहसुन, आलू, छोटी या बडी शालूक, उत्पलमूल (भिस), शूगर, अरू गीली हल्दी आदि इन पदार्थोंमे से कुछ भी खाकर हे जीव तुझे अनन्त संसारमे भ्रमण करना पडा है । ला. स / २ / ७६-८० अत्रोदुम्बर शब्दस्तु नून स्यादुपलक्षणम् । तेन साधारणास्त्याज्या ये वनस्पतिकायिका ७१ ॥ मूलबोजा यथा प्रोक्ता फलकाचार्जकादय' । न भक्ष्या देवयोगाद्वा रोगिणाम्योषधच्छलात् |८०|= यहाँपर जो उदुम्बर फलोका त्याग कराया है वह उपलक्षण मात्र है। इसलिए जितने वनस्पति साधारण या अनन्तकायिक है उन सबका त्याग कर देना चाहिए । ७६। ऊपर जो अदरख आ आदि मुलमीज, अग्रबीज, पौरखीजादि अनन्तकायात्मक
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भगवती आराधना
साधारण बतलाये है. उन्हे कभी न खाना चाहिए। रोग हो जानेपर भी इनका भक्षण न करे |50|
४. पुष्प व पत्र जातिका निषेध
भा.पा./ १०३ कंदमूल बी फ पसादि किचि सच्चितं । अभिम मागग भमिओखि असारे १०३ जमीकन्द, भोज अर्थात् चनादिक अन्न, मूल अर्थात् गाजर आदिक, पुष्प अर्थात् फूल, पत्र अर्थात् नागरवेल आदिक इनको आदि लेकर जो कुछ सचित्त वस्तुको गर्व से भक्षण कर, हे जीव ' तू अनन्त ससार मे भ्रमण करता रहा है।
र. कश्रा / ८५ निम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयं ८५२ - नीम के फूल, बेलको याद वस्तुएँ छोडने योग्य है। ससि /७/२/१६९/२० केयर्जुनादीनि वेकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघातास्वाद-जो महूत जन्तुओं की उत्पतिके आधार है और जिन्हे अनन्तकाय कहते है, ऐसे केतकी के फूल और अर्जुनके फूल आदि तथा अदरख और मूली आदिका त्याग कर देना चाहिए, क्योकि इनके नये फल कम है और धारा बहुत जोगोका है ( रा माजर २०/२५०/४)
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गुण १०० मूलफलं च शाकादि पुष्प बीज करीरक अशमुख त्यजेन्नीरं सचित्तविरतो गृही ॥१७८॥ - सचित्तविरत श्रावक सचित्त मूल, फल, शाक पुष्प, बोज, करीर व अप्रासुक जलका त्याग कर देता है (वसु. श्रा / २६५ )
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बसु श्रा / ५८ तरुपसूणाइ । णिच्चं तसससिद्धाई ताई परिवज्जियसंशित रहते है।
लाई ५८ वृक्षो के फूल नित्य अजीब
इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए | सा/२/१६ द्रोणपुष्पादि वर्जयेद आजन्म तद्वभुजां य फलं प्रातरसा द्रोणपुत्पादि सम्पूर्ण पदार्थको जीवन पर्यन्तके लिए छोड़ देवे। क्योंकि इनके खाने में फल थोडा और घात बहुत जीनोका होता है (सा/२/१३)।
लास / २ / ३५ ३७ शाकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन । श्रावकैसदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नत |३५| तत्रावश्यं त्रसा' सूक्ष्मा केचि - त्यु ष्टिगोचरा । न त्यजन्ति कदाचित्त शाकपत्राश्रयं मनाक् ॥३६॥ तस्माद्धर्मार्थना सुनमात्मनो हितमिच्या आताम्बूल दल स्थाय पारदर्शनाते 120 पूर्वक मासके दोषोका त्याग करनेके लिए सब तरहकी पत्तेवाली शाक भाजी भी कभी ग्रहण नहीं करनी चाहिए। ३५। क्योंकि उस पत्तेवाले शाकने सूक्ष्म प्रस जीव अवश्य होते है । उनमेंसे कितने ही जीव तो दृष्टिगोचर हो जाते है और कितने ही दिखाई नहीं देते। किन्तु मे जीम उस पत्तेवाले शाकका आश्रय कभी नहीं छोड़ते । ३६ । इस लिए अपने आत्माका कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा जीवोको पत्तेवाले सब शाक तथा पान तक छोड़ देना चाहिए और दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाले श्रावको को विशेषकर इनका त्याग करना चाहिए |३७|
भगवती आराधना आ. शिवकोटि
कृत मे २००६ प्राकृत गाथा बद्ध यत्याचार विषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थपर निम्न टीकाएँ उपलब्ध है- (१) आराधना प जिका नामकी एक टीका है जिसका कर्ता व काल अज्ञात है । (२) अ. अपराजित (वि. ७६३ ) द्वारा विरचित विजयोदया नाम की विस्तृत संस्कृत टीका । (२) इस ग्रन्थकी गाथाओ के अनुरूप आ. अमितगति ( ई १८३ - १०२३) द्वारा रचित स्वतत्र श्लोक । ( ४ ) पं. आशाधर (ई. ११७३-१२४३ ) द्वारा विरचित मूल आराधना नाम की संस्कृत टीका । ( ५ ) पं शिवजित (वि १८१८ ) द्वारा विरचित भावार्थ दीपिका नाम की भाषा टीका । (६) प सदासुखदास (ई. १७६५-१८६६ ) द्वारा विजयोदया टीकाकी देशभाषा रूप टीका (जे/२/१२६. १२८)
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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