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भगवतीदास
भगवतीदास-१. दिसी गद्दी के अट्टारक महोन्द्र के शिष्य अम्बाला निवासी एक अपभ्रंश कवि जिन्होंने अन्त समय में मुनि
धारण करके समाधि पूर्वक देह त्याग किया था। कृतियेंटंडाणा रास, बनजारा रास, आदित्यवार रास पखवाडा रास, खिचड़ी रास, समाधि रास, योगी रास, मनकरहा रास, रोहिणीबत रास, अनन्त चतुर्दशी चौपाई, चुनडी मुक्ति रमणी, ढमाल राजमती नेमीसुर संज्ञानी ढमाल, वीर जिनेन्द्र स्तुति, आदिनाथ-शान्तिनाथ विनती, अनमी, अनुप्रेक्षाभावना सुगन्ध दशमी कथा. आदित्यवार कथा । समय-कृतियों का रचना काल वि १६८०-१७०० ( ई० १६२३-१६४३)। (ती./३२ सास आदि के कर्ता भैया भगवती दास नामक एक गृहस्थ कवि । समय - वि. १७३१-१७५५ (ई०] १६०४-१६६८) । (ती./४/२६३)। १४६ कामता ) ।
भगवान्- -दे० परमात्मा ।
भगीरथम म पु. / ४८ / श्लोक - भगलिदेश के राजसिंह विक्रमका दोहता था । सगर चक्रवर्तीने इसको राज्य दिया था (१२७)। सगर चक्रवर्तीके मोक्षके समय इन्होने दीक्षा धारण कर गंगा के तटपर योग धारण किया। तब देवोने इनके चरणोका प्रक्षालन किया, वह जल गंगा नदी में मिल गया, इसीसे गंगा नदी तीर्थ कहलाने लगी। वहीं से आप मोक्ष पधारे (१९३८-१४६) । प. पु. / ५ / श्लोक नं. के अनुसार सगर चक्रवर्तीका पुत्र था । (२५४, २८१ ) भगवान् के मुखसे अपने पूर्व भव सुनकर मुनियोंमें मुखिया बन योग्य पद प्राप्त किया ( २६४ ) । भट्ट (प्रभाकर) मत –३० मीमांसा दर्शन ।
भट्ट भास्कर - वेदान्तकी एक शाखा के प्रवर्तक । समय-ई. श. १० ।- दे० भास्कर वेदान्त ।
भट्टाकलंक - १ प्रसिद्ध नाचार्य ३०२. ई. १६०४ में शब्दानुशासन (कन्नड व्याकरण ) के क्र्ता ( प प्र. / प्र.१००/ AN.UP.४/१९२।
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भट्टारकर बर्हन्त, सिद्ध, साधुको भट्टारक कहा गया है। (ध. ३ / मगल / १ ), २. इन्द्र भट्टारक ग्रन्थ कर्ता हुए ( ध १ / १२६-१३० ), ३. अर्हन्तके लिए भट्टारक शब्दका प्रयोग किया गया है । (ध. ६/१३० ) ।
भदन्त -१ सु आ / भाषा / ८८६ जो सब कल्याणोंको प्राप्त हो वह भदन्त है । २ साधुका अपर नाम - दे० अनगार ।
भद्र १.सा./१/१ धर्मस्थोऽपि समं
कर्मताऽद्विप भद्र अस्तद्विपर्ययात मिध्यामतने स्थित होता हुआ भी निष्यापकी मन्दता समीचीन न े नहीं करनेवाला व्यक्ति भद्र कहलाता है। उससे विपरीत अभद्र कहलाता है । २. आपके अपरनाम यशोभद्र व अभय थे- दे० यशोभद्र । ३ रुचक पर्वतस्य एक फूट दे० लोक /२/११ ४. नन्दीश्वर समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव - दे० व्यतर / ४ ।
भद्रक -यक्ष जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० यक्ष । भद्रकाली- -विद्याधर विद्या- दे० विद्या ।
भद्रपुर - भरत क्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य / ४ ।
भद्रबाहु - (१) मूल श्रुतावतार के अनुसार ( दे० इतिहास ) ये पाँचवे श्रुतकेवली थे । १२ वर्ष के दुर्भिक्षके कारण इनको उज्जैनी छोडकर दक्षिणकी ओर प्रस्थान करना पड़ा था। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य भी उस समय उनसे दीक्षा लेकर उनके साथ ही दक्षिण देशको चले गये थे । श्रवणबेलगोलमें चन्द्रगिरि पर्वतपर दोनो की समाधि हुई है।
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भद्रलपुर
१२००० साधुओं के संघ का बहुभाग यद्यपि इनके साथ दक्षिण की ओर चला गया था तदपि कुछ भाग ऐसा भी था जो प्रमादवश नहीं गया अथवा बीच में ही अटक गया। परिस्थितिवश शैथिल्य को अपना लेने के कारण वह धीरे-धीरे आगे जाकर वि. १३६ में श्वेताम्बर संघ के रूप में परिणत हो गया (विशेष दे. श्वेताम्बर) इस प्रकार श्वेताम्बर तथा दिगम्बर संघ भेद की नींव भी इन्हीं के काल में पड़ी थी। गुलसंध की पट्टानी में इनका काल मी. नि. १२३१६२ (ई.पू. ३६४-३६६) दिया गया है, परन्तु दूसरी ओर चन्द्रगुप्त मौर्य का काल विद्वान् लोग ई. ३२६-३०२ (मो. नि. २०१-२२४ ) .I निर्धारित करते हैं । इन दोनों के मध्य लगभग ६० वर्ष का अन्तर है जिसे पाटने के लिये कैलाशचन्द जी ने युक्त ढंग से इनके काल को ६० वर्ष नीचे उतार लिया है। तदनुसार इनका काल बीन. १८०-२२२ ( ई. पू. ३४७ - ३०५ ) प्राप्त होता है। विशेष दे० कोश १ परिशिष्ट २/३)
(२) दूसरे भद्रा मे है जिन्हें संघ की पट्टावली में अष्टांग घर अथवा आचारांगधर कहा गया। नन्दीसंघ की पट्टावली में चरम निमित्तधर कहकर परम्भरा गुरु के रूप में इन्हे नमस्कार किया गया है। इनकी शिष्य परम्परा में क्रमश मोहचार्य, असो, माघनन्दि तथा जिनचन्द्र ये चार आचार्य प्राप्त होते है । यहाँ इन जिन चन्द्र को कुन्दकुन्द का गुरु बताया गया है। दूसरी ओर आ. देवसेन ने अपने भावसंग्रह में इनका नाम भद्रबाहु गणी बताकर द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष तथा दिगम्बर श्वेताम्बर संघ भेद के साथ इनका सम्बन्ध स्थापित किया है। तदनुसार इनके शिष्य शान्त्याचार्य और उनके शिष्य जिनचन्द्र थे। जो अपने गुरु को मारकर सघ के नायक बन गए थे। इन्होंने हो विश्य-पोषण के अर्थ उसे श्वेताम्बर संघ के रूप में परिणत किया था। यद्यपि दोनों ही स्थानों में जिनचन्द्र को भद्रबाहू की शिष्य परम्परा में बताया गया है और दोनों के कालों में भी केवल ३६ वर्ष का अन्तर है, परन्तु दोनों के जीवन वृतों में इतना बडा अन्तर है कि इन्हें एक व्यक्ति मानने को जी नहीं चाहता। तथापि यदि जिस किस प्रकार इन्हें एक व्यक्ति घटित कर दिया जाय तो दोनों के प्रगुरु अथवा परम्परा गुरु भद्रबाहु भी एक व्यक्ति सिद्ध हो जाते हैं। इतना होने पर भी इनकी एक्ता या द्वितसा के विषय में सम्देह बना ही रहता है सूतसंघ की पावती तथा नन्दिसंघ की पट्टावली दोनों के अनुसार इनका काल वी. नि. ४२-५१५ (वि. २२-४५) माना गया है। (विशेष दे. कोष परिशिष्ट २/४)
12) श्वेताम्बर संपा. १०) के रुद्र गणी को यदि स्वतन्त्र व्यक्ति माना जाय तो उन्हें विश १ के चरम पाद पर स्थापित किया जा सकता है 1
भद्रबाहु
चरित्र1- आ. रनकीर्ति (ई. १९९०) द्वार संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ है, इसमें चार परिच्छेद तथा ४६ श्लोक है ।
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भद्रमित्र म. प्र./५१/क्सी नं सिंहपुर के राजाका मन्त्री इसके
रत्न लेकर मुकर गया (१४८-१४१) प्रतिदिन न रोने-चिल्लाने पर (१६५) राजाकी रानोने मन्त्रीको जुरमें जीतकर न प्राप्त किये ( १६८ - १६६ ) । राजाने इसकी परीक्षा कर इसके रत्न व मन्त्रीपद देकर उपनाम सत्यघोष रख दिये। ( १७१-१७३) । एक बार बहुत सा धन दान दिया, जिसको इसकी माँ सहन न कर सकी। इसीके निदान में उसने इसे व्याघ्री बनकर खाया (१८८५-१९१)। आगे चौथे इसने मोक्ष प्राप्त किया- दे० प
भगलपुर भरत क्षेत्रका एक नगर दे० मनुष्य ४
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