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भद्रशाल वन
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भरत
भद्रशाल वन-समेरु पर्वतके मुलमें स्थित बन। इसकी चारो
दिशाओमें चार जिन चैत्यालय है-दे० लोक/३/६ । भद्रा-१. वर्तमान भादर' नदी। जसदणके पासके पर्वतसे निकली है और नवी मन्दरसे आगे अरब सागरमे गिरती है। (नेमिचरित प्रस्तावना/प्रेमीजी ), २ रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवो
दे० लोक/५/१५ । भद्रा व्याख्या-दे० बाचना। भद्राश्व-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। भय-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग।१। भयस. सि./८/४/३८६/१ यदुदयादुद्वेगस्तभयम् । = जिसके उदयसे उद्वेग । होता है वह भय है। (रा वा /८/६/४/५७४/१८), (गो. क जी.प्र/
३३/२८/८)। ध.६/१,६-१,२४/४७/8 भीतिर्भयम् । कम्मवंधेहि उदयमागदेहि जीवस्स भयमुप्पज्जइ तेसिं भय मिदि सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो। =भीतिको भय कहते है। उदयमें आये हुए जिन कम स्कन्धोके द्वारा जीवके भय उत्पन्न होता है उनकी कारण में कार्यके उपचारसे 'भय' यह सज्ञा है। घ. १३/५,५,६४/३३६/८ परचक्कागमादओ भयं णाम । घ. १३/५.६०६६/३६१/१२ जस्स कम्मस्स उदएण जोबस्स सत्त भयाणि
समुप्पज्जति त कम्मं भयं णाम | पर चक्रके आगमनादिका नाम भय है। अथवा जिस कर्मके उदयसे जीवके सात प्रकारका भय उत्पन्न होता है, वह भय कर्म है।
२. भयके भेद मू. आ./५३ इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरण च वेयणाकस्सि भया । -
- इसलोक भय, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय ये सात भय है। (स. सा./आ /२२८/क० १५५-१६०); 14 सा./ता. बृ./२२८/३०६/8); (पं.ध./उ./५०४-५०५); (द. पा./२ ५. जयचन्द ), (रा. वा.हि./६/२४/५१७)।
१ सातों मयोंके लक्षण स सा./पं. जयचन्द/२२८/क० १५५-१६० इस भवमें लोकोंका डर रहता है कि ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड करेंगे, ऐसा तो इस लोकका भय है, और परभवमें न मालुम क्या होगा ऐसा भय रहना परलोकका भय है ।१५। जिसमें किसीका प्रवेश नहीं ऐसे गढ, दुर्गादिकका नाम गुप्ति है उसमें यह प्राणी निर्भय होकर रहता है। जो गुप्त प्रदेश न हो, खुला हो, उसको अगुप्ति कहते है, वहाँ बैठनेसे जीवको जो भय उत्पन्न होता है उसको अगुप्ति भय कहते है ।१५८॥ अकस्मात भयानक पदार्थसे प्राणीको जो भय उत्पन्न होता है वह
आकस्मिक भय है। पं. ध /उ./श्लोक नं. तत्रेह लोकतो भोति. क्रन्दितं चात्र जन्मनि । इष्टार्थस्य व्ययो माभून्माभून्मेऽनिष्टसगम ३०६। परलोक परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक्। ततः कम्प इव त्रासो भौति परलोकतोऽस्ति सा ।।१६। भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ। इत्याद्याकुलितं चेत. साध्वसं पारलौकिकम् १५१७ वेदनागन्तुका बाधा मलाना कोपतस्तनौ। भीति प्रागेव कम्प स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम् । ५२४। उल्लाघोऽहं भविष्यामि माभून्मे वेदना क्वचिव । मूच्छव वेदनाभी तिश्चिन्तनं वा मुहमह ।।२अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत। नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मन।५३१ असज्जन्म सतो नाशं मन्यमानस्य देहिन । कोऽवकाशस्ततो मुक्ति
मिच्छतोऽगुप्तिसाध्वसात् ।५३७॥ तद्भीतिर्जीवित भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित् । कदा लेभे न वा देवात इत्याधि स्वे तनुव्यये ।५४०। अकस्माज्जातमित्युच्चैराकस्मिकभयं स्मृतम् । तद्यथा विद्य दादीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम् ॥५४३। भीतिर्भूयाद्यथा सौस्थ्यं माभूदौस्थ्य कदापि मे । इत्येव मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा १५४४॥ १. मेरे इष्ट पदार्थ का वियोग न हो जाये और अनिष्ट पदार्थ का सयोग न हो जाये इस प्रकार इस जन्ममे क्रन्दन करनेको इहलोक भय कहते है। २ परभवमे भावि पर्यायरूप अशको धारण करने वाला आत्मा परलोक है और उस परलोकसे जो कपनेके समान भय होता है, उसको परलोक भय कहते हैं ।५१६। यदि स्वर्ग में जन्म हो तो अच्छा है, मेरा दुर्गतिमें जन्म न हो इत्यादि प्रकारसे हृदयका आकुलित होना पारलौकिक भय कहलाता है ।।१७। ३. शरीरमें वात, पित्तादिके प्रकोपसे आनेवाली बाधा वेदना कहलाती है। मोहके कारण विपत्तिके पहले ही करुण क्रन्दन करना वेदना भय है ।५२४। मै निरोग हो जाऊँ, मुझे कभी भी वेदना न होवे, इस प्रकारकी मूर्छा अथवा बार-बार चिन्तवन करना वेदना भय है ।५२५॥ ४, जैसे कि बौद्धोंके क्षणिक एकान्त पक्षमें चित्त क्षण प्रतिसमय नश्वर होता है वैसे ही पर्यायके नाशके पहले अशि रूप आरमाके नाशकी रक्षाके लिए अक्षमता अत्राणभय ( अरक्षा भय) कहलाता है ।५३१। ५. असत् पदार्थ के जन्मको सबके नाशको माननेवाले, मुक्तिको चाहनेवाले शरीरधारियोको उस अगुप्ति भयसे कहाँ अवकाश है ।५३७५ ६. मै जीवित रहूँ, कभी मेरा मरण न हो, अथवा दैवयोगसे कभी मृत्यु न हो, इस प्रकार शरीरके नाशके विषयमे जो चिन्ता होती है, वह मृत्युभय कहलाता है ।५४०। ७ अकस्मात उत्पन्न होने वाला महान् दुख आकस्मिकभय माना गया है। जैसे कि बिजली आदि के गिरनेसे प्राणियोंका मरण हो जाता है।५४३। जैसे मै सदैव नीरोग रहूँ, कभी रोगी न होऊँ, इस प्रकार व्याकुलित चित्त पूर्वक होनेवाली चिन्ता आकस्मिक भोति कहलाती है ।५४४। * भय प्रकृतिके बंधयोग्य परिणाम-दे० मोहनीय/३ । * सम्यग्दृष्टिका मय भय नहीं-दे० नि.शंकित । * मय द्वेष है-दे० कषाय/४। भय संज्ञा-दे० संज्ञा। भरणी-एक नक्षत्र दे० नक्षत्र । भरत-१.म. पु./सर्ग/श्लोक न. पूर्व भव न.८ में वत्सकावतीदेश
का अतिगृधनामक राजा (८/१६१) फिर चौथे नरकका नारकी (41 १९२) छठे भवमें व्याघ्र हुआ (८/१६४) पाँचवे मे दिवाकरप्रभ नामक देव (८/२१०) चौथे भवमें मतिसागर मन्त्री हुआ (८/११५) तीसरे भवमें अधोवेयकमें अहमिन्द्र हुआ (६/६०-६२) दूसरे भवमें सुबाहु नामक राजपुत्र हुआ (११/१२) पूर्व भवमें सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ (११/१६०); (युगपत् सर्व भव के लिए दे० म पु/४७/३६३-३६४ ) वर्तमान भवमें भगवान ऋषभ देवका पुत्र था ( १५/१५८) भगवानको दीक्षाके समय राज्य (१७/७६) और केवलज्ञानके समय चक्र तथा पुत्ररत्नकी प्राप्ति की (२४/२) छह खण्डको जीतकर (३४/३) बाहुबलीसे युद्धमें हारा (३५/६०) क्रोधके वश भाईपर चक्र चला दिया, परन्तु चक्र उनके पास जाकर ठहर गया ( ३४/६६ ) फिर एक वर्ष पश्चात इन्होंने योगी बाहुबलीकी पूजा की ( ३६/१८५) एक समय श्रावकोकी स्थापना कर उनको गर्भावय आदि क्रियाएँ। (३८/२०-३१०) दीक्षान्वय क्रियाओ (३६/२-८०८) षोडश संस्कार व मन्त्री आदिका उपदेश दिया (४०/२-२१६) आयुको क्षीण जान पुत्र अर्ककीतिको राज्य देकर दीक्षा धारण की। तथा
) का पुत्र या
हबल की प्राप्तिका (१
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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