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मंगल
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मंडप भूमि
कहमा अयुक्त है, क्योकि, जहाँ देवतानमस्कार दान पूजादि रूप धर्मके करनेपर भी विघ्न होता है वहाँ वह पूर्वकृत पापका ही फल जानना चाहिए, धर्मका दोष नहीं। और जहाँ देवतानमस्कार दानपूजादिरूप धर्मके अभावमे भी निर्विघ्नता दिखायी देती है, वहाँ पूर्वकृत धर्मका ही फल जानना चाहिए, पापका अर्थात् मगल न करनेका नहीं।
७. मंगल करनेसे निर्विघ्नता कैसे ५. का./ता वृ./१/५/२६ किमर्थं शास्त्रादौ शास्त्रकारा' मङ्गलार्थ परमेष्ठिगुणस्तोत्रं कुर्वन्ति यदेव शास्त्र प्रारब्धं तदेव कथ्यता मङ्गलप्रस्तुतं । न च वक्तव्यं मङ्गलनमस्कारेण पुण्य भवति पुण्येन निर्विघ्न भवति इति । कस्मान्न बक्तव्यमिति चेत् । व्यभिचारात । तदप्ययुक्तं । कस्मात् । देवतानमस्कारकरणे पुण्यं भवति तेन निर्विघ्नं भवतीति तर्कादिशास्त्रे व्यवस्थापितवाद। -प्रश्न-शास्त्रके आदि मे शास्त्रकार मंगलार्थ परमेष्ठीके गुणोका स्तवन क्यों करते हैं, जो शास्त्र प्रारम्भ किया है वही मंगलरूप है। तथा 'मंगल करनेसे पुण्य होता है और पुण्यसे निर्विघ्नताकी प्राप्ति होती है ऐसा भी नही कहना चाहिए क्योकि उसमें व्यभिचार देखा जाता है। उत्तर-यह कहना अयुक्त है क्योकि, देवतानमस्कार करनेसे पुण्य और पुण्यसे निर्विघ्नताका होना तर्क आदि विषयक अनेक शास्त्रोमें व्यवस्थापित किया गया है।
८. लौकिक मंगलोंको मंगल कहनेका कारण पं. का./ता वृ./१/१/१५ पर उद्धृत-वयणियमसंजमगुणेहि साहिदो जिणवरेहि परमट्ठो। सिद्धा सण्णा जेसि सिद्धत्था मंगलं तेण ।२। पुण्णा मणोरहेहि य केवलणाणेण चावि संपुण्णा। अरहता इदि लोए सुमगलं पुण्णकुभो दु।३। णिग्गमणपसम्हि य इह चउवीसपि बदणीज्जा ते। वदणमालेत्ति कया भरहेण य मगलं तेण।४। सव्यजण णिव्वुदियरा छत्तायारा जगस्स अरहता। छत्तायारं सिद्धित्ति मगलं तेण छत्त तं। सेदो वण्णो माणं लेस्सा य अघाइसेसम्म च। अरुहाणं इदि लोए सुमंगलं सेदवण्णो दु ।६। दीसइ लोयालोओ केवलणाणेण तहा जिणिदस्स। तह दोसइ मुकुरे बिबुमंगल तेण त मुणह 19 जह वीयरायसव्वणहु जिणवरो मंगल हवइ लोए । यरायबालकण्णा तह मंगलमिह विजाणाहि ।८। कम्मारिजिणेविणु जिणबरे हि मोक्नु जिणहिवि जेण । जं चउरउअरिबल जिणइ मंगलु बुच्चइ तेण है। बत, नियम, सयम आदि गुणोके द्वारा साधित जिनवरोंको ही समस्त अर्थ की सिद्धि हो जानेके कारण, परमार्थ से सिद्ध संज्ञा प्राप्त है। इसीलिए सिद्धार्थ (पीली सरसो) को मगल कहते है १२। अरहंत भगवान् सम्पूर्ण मनोरथोंसे तथा केवलज्ञानसे पूर्ण है, इसीलिए लोकमे पूर्णकलशको मंगल माना जाता है ।३। क्योकि द्वारसे बाहर निकलते हुए तथा उसमें प्रवेश करते हुए २४ तीर्थंकर वन्दनीय होते है, इसीलिए भरत चक्रवर्तीने २४ कलियोवाली वन्दनमालाको रचना की थी। इसीसे वह मंगलरूप समझी जाती है।४। जगतके सर्व जीवोको मुक्ति दिलानेके लिए अरहंत भगवान छत्राकार है अर्थात् एक मात्र आश्रय है। अत. सिद्धि छत्राकार है
और इसीसे छत्रको मंगल कहा जाता है ।। अरहंत भगवाचका ध्यान, लेश्या व शेष अघाती कर्म ये सब क्योकि श्वेतवर्ण के अर्थात शुक्ल होते है, इसीलिए लोकमे श्वेतवर्णको मगल समझा जाता है।६। जिनेन्द्र भगवान्को केवलज्ञानमें जिस प्रकार समस्त लोकालोक दिखाई देता है, उसी प्रकार दर्पणमें भी उसके समक्ष रहनेवाले दूर व निकटके समस्त छोटे व बडे पदार्थ दिखाई देते है, इसीलिए दर्पणको मगल जानो।७। जिस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान् लोकमें मगलरूप है, उसी प्रकार 'हय राय' अर्थात उत्तम जातिका घोडा और हय राय बालकन्या अर्थात् रागद्वेषरहित सरल चित्त
बालकन्या भी मंगल है। क्योकि 'हय राय' इस शब्दका अर्थ हतराग भी है और उत्तम घोडा भी।। क्योकि कर्मरूपी शत्रुओकोजीतकर ही जिनेन्द्र भगवान् मोक्षको प्राप्त हुए है इसीलिए शत्रुसमूह पर जीतको दर्शानेवाला चमर मगल कहा जाता है।
९. मिथ्यादृष्टि आदि समी जीवों में कथंचित् मंगलपना घ, १/१,१,१/३६-३८ एकजीवापेक्षया अनाद्यपर्यवसित साद्यपर्यवसित सादिसपर्यवसितमिति त्रिविधम् । कथमनाद्यपर्यवसिता मङ्गलस्य। द्रव्यार्थिकनयार्पणया। तथा च मिथ्यादृष्ट्यवस्थायामपि मगलत्वं जीवस्य प्राप्नोतीति चेन्नैष दोष. इष्टत्वात् । न मिथ्याविरतिप्रमादाना मङ्गलव तेषां जीवत्वाभावात् । जीवो हि मङ्गलम् स च केवलज्ञानाद्यनन्तधर्मात्मक । न छद्मस्थज्ञानदर्शनयोरल्पत्वादमगलत्वमेकदेशस्य माङ्गल्याभावे तद्विश्वावयवानामप्यमङ्गलस्वप्राप्ते । -एक जीवकी अपेक्षा मंगलका अवस्थान अनादि अनन्त, सादि अनन्त और सादि सान्त इस प्रकार तीन भेद रूप है। प्रश्न-अनादिसे अनन्तकाल तक मगल होना कैसे सम्भव है। उत्तर-द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे । प्रश्न-इस तरह तो मिथ्यादृष्टि अवस्थामें भी जीवको मगलपनेकी प्राप्ति हो जायेगी। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, यह हमे इष्ट है । परन्तु ऐसा माननेपर भो मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद आदिको मगलपना सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योकि, उनमे जीवस्य नहीं पाया जाता है। मंगल तो जीव ही है, और वह जीव केवलज्ञानादि अनन्त धर्मात्मक है। छद्मस्थके ज्ञान और दर्शन अल्प होने मात्रसे अमगल नही हो सकते है, क्योंकि ज्ञान और दर्शनके एक्देश मात्रमें मगलपनेका अभाव स्वीकार कर लेनेपर ज्ञान और दर्शनके सम्पूर्ण अवयवों अर्थात् केवलज्ञान व केवलदर्शनको भी अमगल मानना पडेगा। दे०ज्ञान/1/४/२.५ और सामान्य ज्ञान सन्तानकी अपेक्षा छद्मस्थ जीवोमें भी केवलज्ञानका सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता। उनके मति ज्ञान आदि तथा चक्षुदर्शनादि भी ज्ञान व दर्शन सामान्यकी हो अवस्था विशेष होनेके कारण मगलीभूत केवलज्ञान व केवलदर्शनसे भिन्न नही कहे जा सकते। और इस प्रकार भले ही मिथ्यादृष्टि जीवके ज्ञान व दर्शनको मगलपना प्राप्त हो जाय, पर उसके मिथ्यात्व अविरति आदिको मगलपना नहीं हो सकता। मिथ्यादृष्टिके ज्ञान व दर्शनमें मगलपना असिद्ध भी नही है, वयोकि, जिस प्रकार सम्यगदृष्टिके ज्ञान व दर्शनमें पापक्षयकारीपना पाया जाता है, उसी प्रकार मिथ्यावृष्टि के ज्ञान व दर्शनमें भी पापक्षयकारीपना पाया जाता है।
मंगला- एक विद्या (दे० विद्या)। मंगलाचरण-(दे० मगल)। मंगलावती-१ पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक५/२।२ पूर्व विदेहस्थ आत्माजन वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव-दे०
लोक/२/४ ! मंगलावतं-१.सौमनस पर्वतका एक कूट व उसका रक्षक देव
-दे० लोक ३/४४२. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोका१/२ ।
जूषा-पूर्व विदेहके मंगलावर्त या लागलावर्त देशकी प्रधान ___ नगरी-दे० लोक/५/२। मंडन मिश्र-१, एक बौद्ध विद्वान् । समय-ई० ६१५-६६०। (सि. वि 14/३/प', महेन्द्र कुमार)। २. मीमासा दर्शन व वेदान्त दर्शनके भाष्यकार-दे० मीमासा दर्शन व वेदान्त । मडप भूमि-समवशरणकी आठवीं भूमि-दे० समवशरण ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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