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परमाणु
परमात्मस्वरूप
होता है। परमाणुके अवयव नहीं होते यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि यदि उसके उपरिम, अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हों तो परमाणुका ही अभाव प्राप्त होता है। ३. ये भाग कल्पित रूप होते है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणुमें ऊध्र्वभाग, अधोभाग, मध्यमभाग तथा उपरिमोपरिम भाग कल्पनाके बिना भी उपलब्ध होते है । तथा परमाणुके अवयव है इसलिए उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इस तरह माननेपर तो सब वस्तुओंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ४. जिनका भिन्न-भिन्न प्रमाणोंसे ग्रहण होता है और जो भिन्न-भिन्न दिशा वाले है वे एक है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर विरोध आता है। ५. अवयवोसे परमाणु नही बना है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवोंके समूह रूप ही परमाणु दिखाई देता है। तथा-६ अवयवोके संयोगका नाश होना चाहिए यह भी कोई नियम नहीं है, क्योकि अनादि सयोगके होनेपर उसका विनाश नहीं होता। इसलिए द्विप्रदेशी परमाणु पुद्गल वर्गणा सिद्ध होती है।
५. सावयवपनेमें हेतु प्र. सा /मू./१४४ जस्स ण संति पदेसा पदेसभेत्तं व तच्चदरे णा । सुण्ण जाण तमत्थ' अत्यंतरभूदमत्थीदो ।१४४। जिस पदार्थ के प्रदेश अथवा एक प्रदेश भो परमार्थत ज्ञात नहीं होते, उस पदार्थको शून्य जानो, क्योंकि वह अस्तित्वसे अर्थान्तर है ।१४४। न्या. वि /म./१/१०/३६६ तत्र दिग्भागभेदेन षडशा' परमाणव' । नो
चेत्पिण्डोऽणुमात्र' स्यात् [न च ते बुद्धिगोचरा] ।४० =दिशाओंके भेदसे छ. दिशाओंवाला परमाणु होता है, वह अणुमात्र ही नहीं है। यदि तुम यह कहो कि अणुमात्र ही है, सो यह कहना ठीक नहीं है,
क्योकि वह बुद्धिगोचर नहीं है। ध. १३/५.३,१८/१८/८ परमाणूणं णिरवयवत्तासिद्धीदो। 'अपदेस णेव
इंदिए गेज्म इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि णासंकणिज, पदेसो णाम परमाणू, सो जम्हि परमाणुम्हि समवेदभावेण णस्थि सो परमाणू अपदेसओ त्ति परियम्मे वुत्तो तेण ण हिरवयवत्तं तत्तो गम्मदे। परमाणू सावयवो त्ति कत्तो पव्वदे। खधभावण्णहाणुववत्तीदो। जदि परमाणू णिरवयवो होज्ज तो बवंधाणमणुप्पत्ती जायदे, अवयवाभावेण देसफासेण विणा सव्वफासमुवगएहितो खंधुप्पत्तिविरहादो। ण च एवं, उप्पण्णखंध्रुवलं भादो। तम्हा सावयवो परमाणू त्ति घेत्तव्यो। = परमाणु निरवयव होते है। यह बात असिद्ध है। 'परमाणु अप्रदेशो होता है और उसका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता" इस प्रकार परमाणुओंका निरवयवपना परिकर्ममें कहा है। यदि कोई ऐसी आशका करे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रदेशका अर्थ परमाणु है। वह जिस परमाणुमें समवेत भावसे नहीं है वह परमाणू अप्रदेशी है, इस प्रकार परिकर्ममें कहा है। इसलिए परमाणु निरवयव होता है, यह बात परिकर्मसे नहीं जानी जाती। प्रश्नपरमाणु सावयव होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। उत्तर-स्कन्ध भावको अन्यथा वह प्राप्त नहीं हो सकता, इसीसे जाना जाता है कि परमाणु सावयव होता है। यदि परमाणु निरवयव होते तो स्कन्धोकी उत्पत्ति नही हो सकती, क्योकि जब परमाणुओके अवयव नही होगे तो उनका एक देश स्पर्श नही बनेगा और एकदेश स्पर्श के बिना सर्व स्पर्श मानना ण्डेगा जिससे स्कन्धोकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । परन्तु ऐसा है नही, क्योंकि उत्पन्न हुए स्कन्धोकी उपलब्धि है। इसलिए परमाणु सावयव है ऐसा यहाँ ग्रहण
करना चाहिए । (ध. १३/५,३ २२/२३/१०)। घ १४/५,६,७६/१४/१३ एगपदेस मोत्तूण विदियादिपदेसाणं तत्थ पडिसेहकरणादो। न विद्यन्ते द्वितीयादय प्रदेशा यस्मिन् सोऽप्रदेश. परमाणुरिति । अन्यथा खरविषाणवत परमाणोरसत्त्वप्रसङ्गात् । ध. १४/५,६,७७/५६/११ पज्जवटिठयणए अवलं बिजमाणे सिया एगदेसेण
समागमो । ण च परमाणूणमवयवा णस्थि, उवरिमठिममज्झिमोवरिमोवरिमभागाणमभावे परमाणुस्स वि अभावप्पसंगादो। ण च एदे भागा सकप्पियसरूवा; उड्ढाधोमज्झिमभागाणं उवरिमोवरिमभागाण च कप्पणाए विणा अवलं भादो। ण च अवयवाणं सव्वस्थविभागेण होदब्वमेवेत्ति णियमो, सयलवत्थूणमभावप्पसगादो। ण च भिण्णपमाणगेज्माण भिण्गदिसाण च एयत्तमत्थि, विरोहादो (ण च अवयवेहि परमाणू णारद्धो, अवयवसमूहस्सेव परमाणुत्तदसणादो। ण च अवयवाण सजोगविणासेण होदब्वमेवेत्ति णियमो, अणादि-सजोगे तदभावादो। तदो सिद्धा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा। -१. परमाणुके एक प्रदेशको छोडकर द्वितीयादि प्रदेश नहीं होते इस बातका परिकर्म में निषेध किया है। जिसमें द्वितीयादि प्रदेश नही है वह अप्रदेश परमाणु है यह उसकी व्युत्पत्ति है। (यदि अप्रदेश' पदका यह अर्थ न किया जाये तो जिस प्रकार गधेके सीगोंका असत्त्व है उसी प्रकार परमाणुके भी असत्त्वका प्रसग आता है। २. पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर कथाचित् एकदेशेन समागम
4.निरवयव व सावयवपनेका समन्वय गो. जी./जी./५६४/१००६ पर उद्धृत "षट् केन युगपद्योगात् परमाणोः षड शता । षण्णां समानदेशित्वे पिण्ड स्यादणुमात्रकं । सत्यं, द्रव्याथिकनयेन निरंशत्वेऽपि परमाणो पर्यायाथिकनयेन षडंशत्वे दोषाभावात् । = प्रश्न-छह कोणका समुदाय होनेसे परमाणुके छह अशपना संभव है। छहाँको समानरूप कहनेसे परमाणु मात्र पिण्ड होता है। उत्तर-परमाणुके द्रव्यार्थिक नयसे निरंशपना है, परन्तु पर्यायार्थिक नयसे छह अश कहने में दोष नहीं है। ध.१४४५,६,७७/१७ पर विशेषार्थ 'यहाँ-परमाणु सावयव है कि निरव
यव इस आतका विचार किया गया है। परमाणु एक और अखण्ड है, इसलिए तो वह निरवयव माना गया है, और उसमें ऊर्धादिभाग होते है इसलिए वह सावयव माना गया है। द्रव्यार्थिक नय अखण्ड द्रव्यको स्वीकार करता है और पर्यायार्थिकनय उसके भेदोंको स्वीकार करता है। यही कारण है कि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा परमाणुको निरवयव कहा है और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा सावयव कहा है। परमाणुका यह विश्लेषण वास्तविक है ऐसा यहाँ समझना
चाहिए। परमात्मज्ञान-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम-दे० मोक्ष
मार्ग/२/३। परमात्मतत्त्व-ध्यान योग्य परमात्मतत्त्व-दै० शिवतत्त्व । परमात्मदर्शन-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम-दे० मोक्ष
मार्ग/२/१। परमात्मप्रकाश-समाधि तन्त्र के आधार पर प्रभाकर भट्ट के निमित्त, योगेन्दु देव (ई श ६) द्वारा मुनियों के लक्ष्म से रचित, ३५३ दीहा प्रमाण आध्यात्मिक अपभ्र श रचना । टीकायें१. आ० पद्मनन्दि न० ७ (ई० १३०५) द्वारा रचितः२.आ० ब्रह्मदेव (वि० श०१२ पूर्व ) कृत संस्कृत टीका; ३. आ० मुनिभद्र (ई०१३५०-१३१०) कृत कन्नड टीका; ४. आ० बालचन्द्र (ई० श०१३) कृत कन्नड टीका; ५.५० दौलतराम ( ई०१७७० ) कृत भाषा टीका। परमात्मभावना-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम-दे० मोक्ष
मार्ग/२/१। परमात्मस्वरूप-निर्विकल्प समाधिका अपर नाम। -दे० मोक्षमार्ग/२/५॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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