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मनःपर्यय
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२. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश २. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश
३. ऋजुमतिके भेद व उनके लक्षण १. ऋजुमति सामान्यका लक्षण
म. ब. १/१२/२४/४ यं तं उजुमदिणाणं तं तिविधं-उज्जुगं मणोगदं स.सि./१/१२३/१२६/२ ऋज्वी निर्वतिता प्रगुणा च । करमान्निर्ब तिता।
जाणदि। उज्जुगं वचिंगद जाणदि। उज्जुगं कायगदं जाणदि । बाक्कायमन कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात् । ऋज्वी मतिर्यस्य
जो ऋजुमति ज्ञान है, वह तीन प्रकारका है। वह सरल मनोगत सोऽयं ऋजुमति । = ऋजुका अर्थ निर्वतित (निष्पन्न) और प्रगुण
पदार्थको जानता है, सरल बचनगत पदार्थको जानता है, सरल (सीधा) है। अर्थात् दूसरेके मनको प्राप्त वचन काय और मनकृत
कायगत पदार्थको जानता है। (ष खं. १३/५.६४ सूत्र ६२/३२६); अर्थ के विज्ञानसे निर्वर्तित या अजु जिसकी मति है वह ऋजुमति
(ध.६/४,१,१०/६३/९); (गो. जी /मू./४३६/८५८)। कहलाता है । (रा. वा./१/२३/-/८३/३३); (ध १३/५,५,६२/३३०/५),
रा. वा/१/२३/७/८४/२६ आद्य ऋजुमतिमन.पर्ययस्त्रेधा। कुत.। ऋजु(गो, जी,/जी.प्र./४३६/८५८/१६),
मनोवाक्कायविषयभेदात-अजुमनस्कृतार्थज्ञ' ऋजुवाक्कृतार्थज्ञः
ऋजुकायकृतार्थज्ञश्चेति । तद्यथा, मनसाऽथं व्यक्त संचिन्त्य वाचं ध.६/४,१,१०/६२/६ परकीयमतिगतोऽर्थ, उपचारेण मतिः। ऋज्वी
वा धर्मादियुक्तामस कीर्णामुच्चार्य कायप्रयोगं चोभयलोकफलअवका । ज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमति ।-दूसरेके मनमें स्थित अर्थ
निष्पादनार्थमङ्गोपाङ्गप्रत्यङ्गनिपानाकुचनप्रसारणादिलक्षणं कृत्वा उपचार से मति कहा जाता है। ऋजुका अर्थ वक्रता रहित है (या
पुनरनन्तरे समये कालान्तरे वा तमेवार्थ चिन्तितमुक्तं कृतं वा वर्तमान काल है)-(दे० नय/III/१/२) । ऋजु है मति जिसको वह
विस्मृतत्वान्न शक्नोति चिन्तयितुम, तमेवं विधमर्थ ऋजुमतिमन.ऋजुमति कहा जाता है । (पं. का./ता. वृ/४३-४/८७/३) ।
पर्यय पृष्ठोऽपृष्ठो वा जानाति 'अयमसावर्थोऽनेन विधिना त्वया २. ऋजुत्वका अर्थ
चिन्तित उक्त कृतो वा' इति। कथमयमर्थों लभ्यते। आगमा
विरोधात् । आगमे युक्तम्... ऋजू, मन, वचन व कायके विषय ध.६/४,१,१०/६२/६ कथमृजुत्वम् । यथार्थ मत्यारोहणाद यथार्थमभि- भेदसे ऋजुमति तीन प्रकारका है-ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्धानगतवान् यथार्थमभिनयगतत्वाच्च । -प्रश्न-ऋजुता कैसे है।
कृताथ ज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ । जैसे किसीने किसी समय सरल उत्तर-यथार्थ मनका विषय होनेसे, यथार्थ वचनगत होनेसे और
मनसे (दे० मन.पर्यय/२/२) किसी पदार्थका स्पष्ट विचार किया, यथार्थ अभिनय अर्थात कायिक चेष्टागत होनेसे उक्त मतिमें
स्पष्ट वाणीसे कोई विचार व्यक्त किया और कायसे भी उभयफल ऋजुता है।
निष्पादनार्थ अगोपाग आदिका सुकोडना, फैलाना आदि रूप स्पष्ट ध १३/५,५,६२/३३०/१ मणस्स कधमुजुगत्तं । जो जधा अत्यो ट्ठिदो त
क्रिया की। कालान्तरमें उन्हे भूल जानेके कारण पुन, उन्हीका तधा चितयतो मणो उज्जुगत्तो णाम । तश्विवरीयो मणो अणुज्जुगो ।
चिन्तवन व उच्चारण आदि करनेको समर्थ न रहा। इस प्रकारके कधवयणस्स उज्जुवत्त । जो जेम अत्यो ट्ठिदो त तेम जाणावयत
अर्थको पूछनेपर या बिना पूछे भी अजुमति मन पर्यय ज्ञान बयणं उज्जुब णाम । तबिवरीयमणुज्जु । कध कायरस उज्जुबत्त ।
जान लेता है, कि इसने इस प्रकार सोचा था या बोला था या जो जहा अत्थो द्विदो तंतहा चेव अहिणइद्रण दरिसयतो काओं
किया था। और यह अर्थ आगमसे सिद्ध है। यथा-(दे० अगला उजुओ णाम । तबिवरीयो अणुज्जुओ णाम । == प्रश्न-मन, बचन
सन्दर्भ ) दे० मन. पर्यय/२/४ (दे० गो जी./जी प्र/४४०/८५६/१७) । व कायमें ऋजुपना कैसे आता है। उत्तर-जो अर्थ जिस प्रकारसे
(अपने मनसे दूसरेके मानसको जानकर ही तद्गत अर्थको स्थित है, उसका उसी प्रकारसे चिन्तवन करनेवाला मन, उसका
जानता है। चिन्तित या उक्त या अभिनयगतको ही जानता उसी प्रकारसे ज्ञापन करनेवाला वचन और उसको उसी प्रकारसे
है । अचिन्तित, अर्द्धचिन्तित या विपरीत चिन्तितको अनुक्त, अद्ध अभिनय द्वारा दिखलानेवाला काय तो ऋजु है, और इनसे विपरीत
उक्त व विपरीत उक्तको तथा इसी प्रकारके अभिनयगतको नही चिन्तवन, ज्ञापन व अभिनय युक्त मन वचन काय अन्जु है।
जानता।) ध. १३/१,५,६४/३३७/३ व्यक्त निष्पन्न सशय-विपर्ययानध्यबसाय
दे० मन,पर्यय/२/२ (जो अर्थ जैसे स्थित है उसका उसी प्रकारसे विरहितं मन' येषा ते व्यक्तमनस' तेषा व्यक्तमनसा जीवाना
चिन्तवन करना अथवा प्रज्ञापन करना अथवा अभिनय द्वारा प्रदर्शन परेषामात्मनश्च सबन्धि वस्त्वन्तर जानाति, नो अव्यक्तमनसा
करना मन वचन व काय सम्बन्धी ऋजुमति ज्ञान है)। जीवाना संबन्धि वस्त्वन्तरम्, तत्र तस्य सामर्थ्याभावात् । कधं मणस्स माणववएसो। वर्तमानाना जीवाना बर्तमानमनोगत- ४. ऋजुमतिका विषय त्रिकालसबन्धिनमर्थ जानाति, मातीतानागतमनोविषयमिति ।
१. मनोगत अर्थ व अन्य सामान्य विषयकी अपेक्षा सूत्रार्थो व्याख्येय । - व्यक्त (अर्थात अज) का अर्थ निष्पन्न होता है । अर्थात् जिनका मन सशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित ष, ख, १३/५/सूत्र ६३-६४/३३२-३३६ मणेण माणस पडि विदडता है वे व्यक्त मनवाले जीव है, उन व्यक्त मनवाले अन्य जीवोसे तथा परेसि सण्णा सदि मदि चिता जीविदमरणं लाहालाह सुहदुक्खं णयरस्वसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थ को जानता है। अन्यक्त मनवाले विणास देसविणासं. अइबुटिठ अणाबुटिठ सुवुटिठ दुबुठ्ठि सुभिवं जीवोसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य अर्थको नहीं जानता है, दुभिक्खं खेमाखेम भयरोग कालस (प) जुत्ते अत्ये वि जाणदि चिन्तित अर्थ पुक्त, मन व्यक्त है और अचिन्तित व अर्धचिन्तित १६३। किंच भूओ-अप्पणो परेसिं च वत्तमाणाण जीवाणं जाणदि अर्थ युक्त अव्यक्त है । (दे० मन पर्यय/२/१०/१ मे ध/९३) क्योकि. णो अवत्तमाणाण जीवाणं जाण दि १६४सूत्र न. ६३ की टोका इस प्रकारके अर्थको जाननेका इस ज्ञानका सामर्थ्य नही है । पृ० ३३३ सद्दकलाओ सण्णा। दिसुदाणुभूदछ सदी। अणागप्रश्न-(सूत्रमे) मनको 'मान' व्यपदेश वैसे किया है। उत्तर ---- यस्थविसय मदी। वट्टमाणस्थविसय चिंता।] = अपने मनके द्वारा वर्तमान जीबोके वर्तमान मनोगत त्रिकाल सम्बन्धी अर्थ को दूसरेके मानसको जानकर (यह ऋजुमति मन पर्ययज्ञान) कालसे जानता है, अतीत और अनागत मनोगत विषयको नहीं जानता है, विशेषित दूसरोकी सज्ञा (शब्दकलाप), स्मृति (अतीतकालगत दृष्ट इस प्रकार मूत्रके अर्थ का व्याख्यान करना चाहिए। (चिन्तित श्रुत व अनुभूत विषय), मति (अनागत कालगत विषय), चिन्ता असक्त मन व्यक्त है और अचिन्तित व अर्धचिन्तित अर्थ युक्त (वर्तमानकालगत विषय) इन सबको; तथा उनके जीवित-मरण, २ र भो० दे० मन पर्यय/२/४/१)।
लाभ-अलाभ व सुख-दुखको, तथा नगर, देश, जनपद, खेट, कर्वट
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