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मन:पर्यय
आदिके विनाशको तथा अतिवृष्टि - अनावृष्टि, सुवृष्टि-दुर्वृष्टि, सुभिक्ष-दुर्भिक्षेम-अलग भय और रोग रूपपदार्थोंको भी (टीका)] जानता है । और भी मनवाले अपने और दूसरे जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको वह जानता है, अव्यक्त मनवाले जीवोसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको नही जानता ( व्यक्त-अव्यक्त मनका अर्थ ३० पीछे मन पर्यव/२/२) ६४ (म व १/१२/२४/२) दे० मन पर्यय / २ / २ ( यथार्थ अर्थात यथास्थित त्रिकाल अर्थको वर्तमानमे सशयादि रहित होकर, मनसे चित्वन अथवा वचनसे ज्ञापन अथवा कायसे अभिनय करनेवाले किसी व्यक्तिके या अपने हो व्यक्त मनसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है । अतीत व अनागत काल में वर्तने वालेके मनकी बात नहीं जानता ।)
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दे० मन पर्यय/२/३ (सरल मन वचन काय प्राप्तको ही जानता है वक्रको नही, अर्थात् वर्तमान कालमें चिन्तवन ज्ञापन व अभिनय करनेवाले को ही जानता है, अचिन्तित, अज्ञापित व अनभिनीत को नही जानता ।)
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रा. बा./१/२३/०/०३/० व्यक्त स्फुटीकृतोऽचिन्तया निहित यैस्ते जीवा व्यतमनसस्तथे चिन्तित ऋतुमातिने । व्यक्त या स्पष्ट व सरल रूपसे अर्थको चिन्ता करनेवाले जीवीके व्यक्त (वर्तमान) मनमें जो अर्थ चिन्तित रूपसे स्थित है उसको ऋजुमति जानता है अव्यक्त व अचिन्तितको नहीं - विशेष दे० मन - पर्यय / २/२ ।
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ध. १३/५,५,६२/३३०/६ उज्जुवं पउणं होण मणस्स गदमट्ठ जाणदि समुजुमदा अथितियमचिति
[[चितियं च अट्ठ ] जागरि त्ति भणिदं होदिजमुज्ज प हो चिठि वे उतम काममिदमणपज्जयणाण णाम । अम्बोल्लिदमबोलिदं विवरीयभावेण बोल्लिद
अजादि भिष होदि भावेण निमि उज्रूण मित्थ जागदित पिउनुमदिमणपाण णाम । उज्जुमदी विणा कायवावारस्स उज्जुवत्तविरोहादो । =जो राजु अर्थात् प्रगुण होकर मनोगत अर्थको जानता है वह जुमति मन पर्ययज्ञान है। वह अचिन्तित, अर्धचिन्तित या विपरीत रूप से चिन्तित अर्थको नहीं जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जो ऋजु अर्थात् प्रगुण होकर विचारे गये व सरल रूपसे ही कहे गये अर्थको जानता है, वह भी ऋजुमति मन पर्यय ज्ञान है। यह नही बोले गये, आधे बोले गये या विपरीत रूपसे बोले गये अर्थ को नही जानता है. यह उन्त कथनका तात्पर्य है जो अभावले विचारकर एवं ऋजुरूपसे अभिनय करके दिखाये गये अर्थको जानता है वह भी
मति मनः पर्यवज्ञान है, क्योकि जुमतिके बिना कायको क्रिपा कर होने मे विरोध आता है। गोजी// ४४१/०६० तियकाल विसयरूवि चितित माणजीमेश
जुमणि जागर्तिमान का विकास विषयक मूर्तीक द्रव्यको चिन्तवन करनेवाले जीवके मनमें स्थित अर्थको ऋजुमति जानता है (अचिन्तित आदि यह नही जानता उसे विपुलमति जानता है ।)
भा० ३-३४
२. द्रव्यकी अपेक्षा
ध. ६/४,१,१०/६३/५ तत्थ उज्जुमदी एगस महयमारा लियसीरीरस्स णिज्जर जहणेण जाणदि । सा तिविहा जहणुत्रकस्स तव्वदिरित्तओरालि यसरी रणिज्जरा त्ति । अत्थं कं जाणदि । तव्बदिरित । कुदो । सामाजिसा । एकस्से एगसमयनिरियरिजापदि । .. पुणो कि मिदिय घेप्रदि । चक्खिदिय । कुदो। सेसे दिए हितो अप्पपरिमाणतादो, सुगार भोग्गलसंधाणं सणहत्तादो का --- पवित्रदिनहक्कस् सम्यदिति मेएण सिमिहा तत्य
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२. ऋजु व विपुलमति ज्ञान निर्देश का गहणं । तदिरित्ताए । कुदो। सामण्णणिदेसादो । जहण्णुकस्सदव्वाण मज्झिम दब वियप्पे तव्वदिरित्ता उज्जुमदी जाणदि । रुणुमतिमन पर्ययज्ञान जघन्यसे एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीरकी तद्वयतिरिक्त निर्जराको जानता है, अर्थात् उसकी जघन्य उत्कृष्ट निर्जराको न जानवर ( अजघन्य व अनुत्कृष्टको जानता है ), क्योंकि, यहाँ सामान्य निर्देश है। उक्त ज्ञान उत्कर्ष से एक समय सम्बन्धी की निर्जराको जानता है, क्योंकि शेष इन्द्रियो की अपेक्षा यह इन्द्रिय (इसके मसूरके आवारवाडा भीतरी तारा ) अन्य परिमाणवाली है और वह अपने आरम्भक पुद्गलोकी श्लक्ष्णता अर्थात् सूक्ष्मता से भी युक्त है। इसमें भी उपरोक्त प्रकारसे रिनिर्जराको जानता है, जदय व उष्टको नहीं, क्योंकि, यहाँ भी सामान्य निर्देश है । जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम कलयतिरिक्त अर्थात सामान्य ऋमति मन:पर्यय ज्ञानी जानता है । (गो, जी./मू./ ४५१/८६६ ) ।
३. क्षेत्र, कालकी अपेक्षा
ष. ख. १३/५.५ / सूत्र ६५-६६ / ३३८-३३८ कालदो जहणेण दो तिणिभवग्गणाणि । ६६ । उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गणाणि । ६६ । गदिमागदि पप्पादेदि खेत्तदो तार जगेग गाउपप्रधत्तं उक्करग जोयणपुत्तस्स अन्भतरदो णो वहिदा । ६८। कालकी अपेक्षा वह जघन्यसे दो-तीन भोको जानता है । ६३ और उत्कर्ष से सात आठ भगोको जानता है । ६६ अर्थात् वर्तमान भयको छोडकर दो या सात भवो तथा उस सहित तीन या आठ भवोको जानता है। भवका काल अनियत जानना चाहिए - टीका ), ( इस कालके भीतर ) जीवोकी गति और अगति (भुक्त, कृत, प्रतिसेवित आदि अर्थों ) को जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा वह जघन्यसे गव्यूतियपरत्र प्रमाण ( अवधि आठ-नी धनकोदा प्रमाण- टीका) क्षेत्रको और उत्कर्ष से योजन पृथक्त्व (आठ नौ घनयोजन प्रमाण ) के भीतरकी बात जानता है, बाहरकी नहीं ६८ मम १/१२/२३/३) (स.सि./९/ २३/१३०/१) (रा. वा./१/२२/०/०५/२), (४.१/४.१.१०/-),
गो. जी. ४५ ४५०/८६७०) ।
४. भाषकी अपेक्षा
घ. १/४.१.१०/६१/६ भावेग
सदग्
भावे जहण्णुवकस्सउजुमदिणो जाणति । भावकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्योमे उसके योग्य असख्यात पर्यायोको जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है ।
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गो. जी. / / ४५८/०७१ आज सभायं अपर च वरं च वरमसंखगुण १८७११- ऋजुता विषयभूत भाग जमन्यपने आमली के असख्यातवे भाग प्रमाण है और उत्कृष्टपने उससे असख्यात गुणा आमति प्रमाण है ( अर्थात् अपने विषयभूत व्यकी इतनी पर्यायोंको जानता है ) ।
५. ऋजुमति अचिन्तित व अनुक्त आदिका ग्रहण क्यों नहीं करता
ध ६/४,१,१०/६३ / २ अचितिदमणुत्तमणमिणइदमत्थं किमिदि ण जाणदे
विसि खओवसमाभावादो । प्रश्न - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी मनसे अचिन्तित, वचनसे अनुक्त और शारीरिक चेष्टाके अविषयभूत अर्थ को क्या नही जानता है। उत्तर-नहीं जानता, क्योंकि, उसके विशिष्ट क्षयोपशमका अभाव है ।
६. वचनगत जुमतिकी मन:पर्यय संज्ञा कैसे
घ १३/५,५,६२/३३०/११ उज्जुववचिगदस्स मणपज्जवणाणस्स उजुमदिमणपज्जवब एमो ण पावदित्ति । ण एत्थ वि उज्जुमणेण विणा
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